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हिंदुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – 41

यह सोचकर कुछ बेचैनी होती है कि हमारी बड़ी हस्तियां १९वीं शताब्दी में पैदा हुईं और बीसवीं शताब्दी ने छुटभैये या लघुमानव पैदा किये और स्वतंत्रता से अबतक का हाल यह है कि यह फेरीवाले, फिरौतीवाले और कुछ भी पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहने वाले चतुर चालाक बौने पैदा कर रही है! यह देखते जानते हुए हमें हताशा से बचने के लिए कहना पड़ता है, 'भविष्य उज्जवल है.'

आप सोच सकते हैं कि जब साठ में ही लोग सठिया जाते हैं तो छियासी का बुढ़भस तो निराशावादी होगा ही. आप के मुंह में चाकलेट युग में भी घी शक्कर, क्योंकि हम ऐसे बौद्धिक पठार के दौर से गुजर रहे हैं कि तेजाबी गालियों का अविष्कार तो कर सकते हैं पर मशाल के रूप में दीप्ति देनेवाले मुहावरों तक के लिये हमें उन्नीसवीं शताब्दी की ओर ही देखना पड़ता हैं .

खैर, यह सवाल तब और मजेदार हो जाता हैं जब हम पाते हैं कि भारत में आधुनिक चेतना की दीपशिखा जलाने वाले व्यक्ति राजा राममोहन का जन्म अठारहवीं शताब्दी में हुआ था और ठीक उस साल में, जिसमें पलासी के युद्ध में मीरजाफर को हराकर अंग्रेजों ने पहली बार अपनी सल्तनत कायम की थी.

सोचता हूँ आखिर क्या था उस दौर में जो छीजता चला गया और क्या नया तत्व स्वतंत्रता पाने के बाद आया कि ठिगने बौने बनते चले गए?

एक ही बात समझ में आती हैं उद्विग्नता और उसे व्यक्त करने की छूट जो अठारहवी और उन्नीसवीं शताब्दी पर लागू होती हैं (जो मध्यकाल में न थी इसलिए जिसमें घाव हो सकते थे पीड़ा हो सकती थी पर चीख तक दबा कर रखनी होती थी इसलिए उसकी सर्जनात्मक भूमिका नहीं हो सकती थी.

अंग्रेजी का मुहावरा एडवर्सिटी इज द मदर ऑफ़ इन्वेंशन, शायद गलत कह गया, एडवर्सिटी की जगह नेसेसिटी कहना था, पर अधिक फर्क नही पड़ता. लेकिन जो मुहावरा अंग्रेजी में भी नहीं है वह है सफरिंग इस द मदर ऑफ़ रिकंसिलिएशन )

आश्वस्ति जनित आवेश जो स्तंत्रता पूर्व बीसवीं शताब्दी पर लागू होता हैं और संतुष्टि की मरीचिका जो उसके बाद से अबतक पर लागू होता हैं और जिसने उद्वेगजनित ज्वाला को दहकते कोयले में बदला और फिर गर्मराख में.

उपमाएं और रूपक सचाई को ग्राह्य बनाने में भी सहायक हो हैं और हमारी असावधानी में स्वयं सचाई का स्थान लेकर सचाई को समझने में बाधक भी बन जाते हैं.

मेरे मन में यह बात इसलिए आई कि मुझे लगा आधुनिक विभूतियों में ऊपर से जो क्रम बनता हैं वह हैं राजा राममोहन- स्वामी दयानंद सरस्वती - गाँधी - पटेल- नेहरू. कोई शिकायत करे कि इसमें सर सैयद अहमद और बाबा साहेब का नाम तो आया नहीं, और इस आधार पर मुझे अपनी कल्पना के अनुसार कोई आरोप लगाना चाहे तो उसकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उस आरोप को शिरोधार्य कर लूंगा पर यह याद दिलाते हुए कि इन दोनों महापुरुषों का इस्तेमाल सत्ता ने कर लिया था इसलिए ये अपनी जमात के सरताज बन कर रह गए, जब कि यही बात उनके विषय में नहीं कही जा सकती.

राममोहन राय ने अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाई नहीं की थी. उन्होंने बंगाली, फ़ारसी, अंगरेजी, संस्कृत पर ही अधिकार नहीं किया था, ईसाइयत के मूल को समझने के लिए हिब्रू में भी दक्षता प्राप्त की थी और उनके सामने अंग्रेजो की नौकरी नही, देश का उज्वल भविष्य था जिसमे शायद पूरे समाज की चिंता निहित थी.

जैसा हम देख आये हैं, उन्होंने बंगाली में ही नहीं फ़ारसी में भी एक साप्ताहिक निकाला था. कहे, उनके सामने सब को जोड़कर रखने की समस्या थी, यह बात कहने को दूसरों में भी थी पर जाँच पर नही मिलती थी. फारसी में भी पत्र प्रकाशित करना मुसलामानों में भी जागृति लाने की कोशिश थी. पर वह उसी अधिकार से उनके बीच पैठ नहीं बना सकते थे.

खैर मैं कहना चाहता था कि राममोहन राय ने जन जागृति के लिए प्रेस का ही इस्तेमाल नहीं किया अपितु पहले आंदोलनकारी बने और न केवल १८२३ के प्रेस ऐक्ट का विरोष किया १८३३ में नए चार्टर की हवा लगने पर स्वयम इंग्लॅण्ड जाकर पार्लमेंट के सामने वह फरियाद (पेटीशन) रखा जिसमे ज़मीन्दारों के हाथों किसानों का अमानवीय शोषण और ज़मींदारों की ज़्यादती का वर्णन था अपितु इसके लिए कम्पनी की लगानबन्दी की ऊंची दरों को जिम्मेदार ठहराया गया था. और विनय किया गया था कि लगान कम की जाए. इससे कम्पनी को होनेवाले घाटे को दूसरे तरीकों से पूरा किया जाय और इसी में एक सुझाव यह था कि ऊंचे वेतन वाले अंग्रेज कलेक्टरों की जगह कम वेतन पर हिंदुस्तानी कलेक्टर नियुक्त किये जायँ और यही से कम्पनी प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी का सवाल उठा. अनुमान से कह सकता हूँ कि यही वह बिंदु हैं जहां ब्रिटिश सांसदों में राजा राममोहन राय का सबसे मुखर समर्थक मैकाले मिला जिसने तीन बातों की जोरदार वकालत की. एक था उच्च सेवाओं में भारतीयों की भागीदारी, दूसरी रंग, नस्ल , लिंग निरपेक्ष समान दंडसंहिता, और भारतीयों को आधुनिक ज्ञान विज्ञानं की शिक्षा देना.

यह रोचक हें कि राजा राममोहन राय जिन कारणों से संस्कृत के माध्यम से शिक्षा के विरोधी थे उन्ही कारणों से मैकाले भी. राजा राममोहन राय ने अपना निर्णय पहले ले लिया था और बहुत पहले हिन्दू कॉलेज की स्थापना की थी. मैकाले ने उस मामूली सी निधि को जो भारतीयों को सकून देने के लिए संस्कृत और अरबी पर खर्च करने के लिए थी उधर से मोड़ कर अंग्रेजी शिक्षा पर लगाने की हिमायत की और प्राचीन ज्ञान कि रक्षा के लिये काशी और दिल्ली में क्रमशः संस्कृत और अरबी की एक एक अनुदान प्राप्त संस्थाओं तक सीमित रखने की सिफारिश की. उसके तर्क जोरदार थे, उन्हें मान लिया गया. यहां तक कि उसे इनको कार्यरूप देने के लिए भारत भेजा भी गया जहां उसने इन सभी को पूरा किया.

यदि यह ब्रिटिश अमलशाही की जरूरत होती तो इन सभी को लागु भी कर दिया गया होता. पर उसकी अपराध संहिता को पार्लमेंट की मंजूरी डेढ़ दशक बाद मिली और उसे संशोधित करने के बाद पास किया गया. अनुमानतः इसका कारन यह था कि मैकाले ने इंग्लॅण्ड के विधानों को ही सूत्रबद्ध किया था जो कंपनी के पक्षपात पूर्ण रवैये के अनुकूल न थे. इसी तरह भारतीयों को सिविल सेवा में बिना भेद भाव के भर्ती करने को १९३३ के चार्टर में स्वीकार तो कर लिया गया पर इसे अमल में लाने में टालमटोल होती रही और जब शासन बदल गया तब महारानी के इसी आशय के आदेश के बाद भी अड़ंगे डाले जाते रहे और यही से आरम्भ होता हैं अधिकारों की लड़ाई का दुसरा दौर जिसका परिणाम थी कांग्रेस की स्थापना.

कहें एक सीमित अर्थ में मैकाले भारतीय अधिकारों की लड़ाई में भारतीय आकांक्षाओं के समर्थन में खड़ा दिखाई देता हैं न की ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अंध समर्थक जैसा भरम इन पहलुओं को ध्यान में न रखने पर हो सकता हैं. इस बात को पुनः दुहराना जरूरी हैं कि मैकाले ने भारतीय भाषाओं में से किसी के अपेक्षित स्तर तक विकसित न होने के कारण अंग्रेजी का समर्थन किया था. इसके बाद भी उसकी कुछ पाश्चात्य ग्रंथियां रही हो सकती हैं. हमे ऐसे महापुरुषों के प्रति आभार प्रकट करना चाहिए जिन्होंने मानवीय सरोकारों से अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया हो.

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