हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-37-5
5- हिन्दू फोबिया की पड़ताल
हिंदुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - 37
5- हिन्दू फोबिया की पड़ताल
पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी और अंग्रेज भारत में व्यापार करने आए थे। पर आरंभ से ही उनकी नजर अपनी सल्तनत कायम करने पर भी थी। सभी ने अपने अपने ढंग से कुछ इलाके दबाए। परन्तु आरंभ में उनके मुनाफे का स्रोत व्यापार ही था। व्यापार में दोनों पक्षों को एक दूसरे की बात समझनी और अपनी बात बतानी होती है। इस क्रम में दोनों एक दूसरे की भाषा सीखते और संतोषजनक ढंग से अपनी बात कह पाने के लिए उसमें सुधार करते है। आरंभ संकेत और वास्तु की संज्ञा से होता है फिर दोनों पक्ष एक दूसरे की भाषा के कुछ शब्द सीखते हैं और कई बार खुद नए प्रयोग गढ़ लते हैं और एक संकर भाषा या पिजिन का चलन होता है। कई बार पिजिन ही व्यवहार की भाषा बन जाती है, परन्तु यदि संपर्क गहन और व्यापक हों तो दोनों अपने भाषाज्ञान में सुधार करते हुए पहले कामचलाऊ और फिर आधिकारिक ज्ञाप प्राप्त करते हैं।
भारत का व्यापार मध्यकाल में भी हिन्दुओं के हाथ में था। यहां तक कि सुल्तानों और मुगलों के विजय अभियानों में सेना के पहुंचने से पहले पड़ावों और छावनियों पर खानपान और रसद का प्रबन्ध वे ही करते थे। बुनकरी से जुड़े लोगों के लिए कपास से लेकर सूत तक की आपूर्ति और उनके द्वारा बनाए गए माल केा बेचने का काम हिन्दुओं के हाथ में ही था।
यह एक विचित्र लचीलापन है कि कुछ परिस्थितियों में कुलीन ब्राह्मण और क्षत्रिय भी धर्मान्तरण के लिए बाध्य हुए परन्तु बनियों ने ले दे कर अपने को बचाए रखा। इसका एक कारन यह है की उनके साथ मनमानी भी नहीं की जा सकती थी क्योंकि इसका अर्थ आपूर्ति व्यवस्था को पंगु बनाना था इसलिए सेना के रसद पानी का प्रबन्ध करने वाले बनिये भी अपने धर्म की रक्षा करने में सफल रहे। विदेशी मूल के लगभग सभी मुसलमान जागीरदार और जमींदार थे और वे उगाही पर पलते थे और मौजमस्ती में दिन काटते थे। उनके जीवन मूल्य मध्य- एशियाई थे जिसमें पराए माल को लूटने जोड़ने की प्रवृत्ति तो थी, उत्पादन और संवर्धन की नहीं । वे व्यापार का झमेला मोल नहीं ले सकते थे जिसमें असाधारण लोच और विनय की और जब तब टुच्चेपन की भी आवश्यकता होती है। उनकी शान ऎसी कि अपनी जमीदारी संभालने के लिए भी उन्हें कारिन्दों की जरूरत होती थी।
कंपनी के अमलों के संपर्क में हिन्दू आए चाहे उनका दफतरी काम काज हो या दुभाषिए का काम या भारतीय भाषाएं सीखने को उत्सुक अंग्रेजों की सहायता का काम. यह सारा गोरखधंधा हिन्दुओं के हाथ में ही रहा। यदि मैकाले के सुझाव से अंग्रेजी शिक्षा को प्रोत्साहन न भी दिया गया होता तो भी अंग्रेजी जानने वाले बंगालियों की बहुत बड़ी संख्या स्वयं अपने प्रयास से अंग्रेजी सीखने जानने वालों की निकल सकती थी जो नये अवसरों का लाभ उठाती और परिस्थितिवश ये बंगाल के हिन्दू ही थे मुसलमान नहीं।
अठारहवीं शताब्दी तक अंग्रेजों के आदर्श मुगल थे। वे उनकी जीवनशैली की नकल करते थे, अतः मुसलमानों के लिए अनुकरणीय नहीं हो सकते थे। इस प्रवृत्ति में बदलाव उन्नीसवीं शताब्दी में आया जब क्लाइव और वारेन हेस्टिग्स के ऊपर कदाचार के आरोपों के सिद्ध होने और इसके लिए भारत में व्याप्त कदाचार को उत्तरदायी मान कर लार्ड वेलेस्ली के समय में स्थानीय जनों के सीधे संपर्क में आने पर रोक लगाई गई।
सामाजिक स्तर पर हिन्दुओं से मुसलमानों के संबंध जहां तनावपूर्ण भी थे वहां दुराव तो था, टकराव भी कम था और घृणा नहीं थी। राजकीय अमलों के द्वारा दमन अवश्य होता था और हिन्दू उत्पीड़ित भी अधिक होते थे। अकालों के दौर में भी रियायत यह सोच कर नहीं दी जाती थी कि लगान चुकाने में असमर्थता की स्थिति में उनको धर्मान्तरण के लिए बाध्य किया जा सकता था।
परन्तु अंग्रेजों से उनकी चिढ़ घृणा के स्तर पर इसलिए थी कि उनके कारण ही मुसलमानों के बुरे दिन आए थे जिसकी चर्चा हम पहले कर आए हैं। मुसलमान न झुकने को तैयार थे, न बदलने को। उनकी चाकरी करने और उसके लिए अपेक्षित योग्यता प्राप्त करने का तो प्रश्न ही नहीं। हिन्दुओं के लिए यह अवसर था, मनोवैज्ञानिक अवरोध इसलिए नहीं था कि कल तक मुसलमान शासकों की चाकरी करते थे अब अंग्रेजों की करनी थी। पहले अवसर सीमित था अब खुला अवसर था।
हिन्दुओं में आधुनिक मध्यवर्ग के उदय से पहले से एक
शिक्षित और ज्ञानजीवी वर्ग रहा है और जिसमें ब्राह्मण और कायस्थ आते रहे
हैं। इसलिए यदि सतही नजर से देखें तो लगेगा, हिन्दू आगे बढ़ रहे थे और
मुसलमान पिछड़ रहे थे। परन्तु यह लाभ केवल बंगाल तक सीमित था जिसमें देश की
राजधानी थी। पर और गहराई में जाएं तो पाएंगे कि बंगाल के भी ब्राह़मणों
ने जिनमें शीर्ष कान्यकुब्ज थे - चटर्जी, बनर्जी, मुखर्जी (चट्टोपाध्याय,
वन्द्योपाध्याय, मुखोपाध्याय), टैगोर/ठाकुर और कायस्थों (बोस, घोष, दत्त,
राय) ने और पहले के जमींदारों (सेनों और पालों) ने ही इसका लाभ उठाया] शेष
हिन्दू नहीं, बंगाल के बाहर के हिन्दू नहीं। सर सैयद को इसका पता था,
क्योंकि अपने मेरठ के जिस व्याख्यान में उन्होंने अपनी दहशत प्रकट की थी
उसी में वह तीन तरह की बातें करते हैंः
1. बंगाली हिन्दुओं ने अपने लाभ के लिए उस संगठन की स्थापना की जिसे इंडियन नेनल कांग्रेस कहते हैंः
You know, gentlemen, that, from a long time, our friends the Bengalis
have shown very warm feeling on political matters. Three years ago they
founded a very big assembly, which holds its sittings in various places,
and they have given it the name "National Congress."
2- बंगाल से
बाहर के हिन्दू भी मुसलमानों की तरह पिछड़ गए है और बंगालियों की दबंगता का
फल उन्हें भी भुगतना पड़ेगा, यद्यपि उत्तर प्रदेश के हिन्दुओं को इसका इल्म
नहीं है . उनकी कल्पना के हिन्दू सोचते है वह उनके अनूदित शब्दों में:
what I am about to say is not only useful for my own nation, but also
for my Hindu brothers of these Provinces, who from some wrong notions
have taken part in this Congress. At last they also will be sorry for it
— although perhaps they will never have occasion to be sorry; for it is
beyond the region of possibility that the proposals of the Congress
should be carried out fully. These wrong notions which have grown up in
our Hindu fellow-countrymen, and on account of which they think it
expedient to join the Congress, depend upon two things. The first thing
is this: that they think that as both they themselves and the Bengalis
are Hindus, they have nothing to fear from the growth of their
influence. The second thing is this: that some Hindus — I do not speak
of all the Hindus but only of some — think that by joining the Congress
and by increasing the power of the Hindus, they will perhaps be able to
suppress those Mahomedan religious rites which are opposed to their own,
and, by all uniting, annihilate them.
3. और फिर यह कि सभी बंगालियों
को भी इसका लाभ नहीं मिला है, वे भी बंगाल से बाहर के हिन्दुओं और बंगाल
के भीतर के मुसलमानों की तरह इस पहल से लाभान्वित नहीं हुए हैं:
and the ordinary Bengalis who live in the districts are also as ignorant of it as the Mahomedans.
अतः हम कह सकते हैं कि यह हिन्दू फोबिया नहीं था, बंगाली फोबिया था जिसे
उन्होंने एक साल पहले , मद्रास में कांग्रेस के चौथे अधिवेशन से पहले लखनऊ
में दिए गए भाषण में मुखर किया था:
Think for a moment what would be
the result if all appointments were given by competitive examination.
Over all races, not only over Mahomedans but over Rajas of high position
and the brave Rajputs who have not forgotten the swords of their
ancestors, would be placed as ruler a Bengali who at sight of a table
knife would crawl under his chair. There would remain no part of the
country in which we should see at the tables of justice and authority
any face except those of Bengalis. I am delighted to see the Bengalis
making progress, but the question is —What would be the result on the
administration of the country? Do you think that the Rajput and the
fiery Pathan, who are not afraid of being hanged or of encountering the
swords of the police or the bayonets of the army, could remain in peace
under the Bengalis? This would be the outcome of the proposal if
accepted. Therefore if any of you — men of good position, Raïses, men of
the middle classes, men of noble family to whom God has given
sentiments of honour — if you accept that the country should groan under
the yoke of Bengali rule and its people lick the Bengali shoes, then,
in the name of God! jump into the train, sit down, and be off to
Madras, be off to Madras!
मेरा दुर्भाग्य है कि मैं सर सैयद की
अधिकांश चिंताओं को सही और दूरदर्शितापूर्ण मानता हूं । परन्तु इस संशय से
मुक्त नहीं हो पाता कि उनकी चिन्ताओं का किसी दूसरे ने इस्तेमाल करते हुए
पूरी दिशा ही मोड़ दी और फिर यह सोच कर भी आश्वस्त नहीं हो पाता कि उस समय
कोई ऐसा समाधान संभव था जिससे उनकी चिन्ताओं का निवारण हो पाता और वह उस
बृहत्तर सरोकार से जुड़ पाते जिसके चलते कांग्रेस का नाम भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस रखा गया था। यह बहुत उलझा हुआ सवाल है जिसमें यह पता होते हुए भी
कि कौन किसका इस्तेमाल कर रहा है, उस ऐतिहासिक चरण पर यह नहीं कहा जा सकता
कि किसे विश्वास था कि वह दूसरे का इस्तेमाल कर रहा है। गलतियां तो सभी
से हुई हैं, सर सैयद से भी हुईं, पर यह एक ऐसी गलती थी जिसने भारत के
भविष्य को ऐसे दुस्वप्न में बदल दिया कि यह इबारत पहले की अपेक्षा अधिक बार
सुनने को मिल रही है कि इससे तो अंग्रेजों का जमाना ही अच्छा था!