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हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - 20

‘‘तुम जिस तरह सोचते हो उस तरह हम नहीं सोचते। तुम्हारे साथ एक दिक्कत यह है कि तुम यदि किसी पर रीझ गए तो उसके लिए विशेषणों के अपने शब्दकोश को खााली कर देते हो। उसका दूसरा पक्ष दिखाई देता ही नहीं! तुम तुलसी को क्रान्तिकारी मानते रहो, यह एक सचाई है कि उन्होंने हमारी सामाजिक सोच को स्थगित ही नहीं कर दिया अपितु उसे शताब्दियों पीछे ले गए।’’

''यदि कोई कारण, प्रमाण या औचित्य के साथ ऐसी राय प्रकट करे जो तुम्हारी राय से भिन्न है तो उस पर सहानुभूति पूर्वक विचार करना, जरूरी है। पर जब तक तुम्हें ऐसा लगता है तुम्हारी आश्‍ांकाओं का निवारण उससे नहीं होता तो तुमको अपने मत पर टिके रहना चाहिए। विचारों की भिन्नता का बना रहना सर्वानुमति से अधिक जरूरी है, इससे चिन्तन प्रक्रिया जारी रहती है। परन्तु दो बातें याद दिला दूं, मैंने तुलसी को क्रान्तदर्शी कहा था, तुमने उसे क्रान्तिकारी सुना या बना लिया। मैंने इसे बहस का मुद्दा नहीं बनाया, उन विशेष सन्दर्भों में जहां वह सत्ता की आलोचना करते हैं, सर्वसाधारण की दुर्दशा का वर्णन करते हैं जिसका साहस किसी दूसरे मध्‍यकालीन कवि को नहीं होता, उस विशेेष सन्दर्भ में उनकी भूमिका क्रान्तिकारी थी। रामकथा को और पौराणिक व वैदिक ज्ञानसंपदा को जिस पर ब्राह्मणों का एकाधिकार था और इस एकाधिकार को बनाए रखने के लिए वे इसे संस्कृत से बाहर जाने नहीं देना चाहते थे, उसे सर्वजनसुलभ बना कर वर्णवादी एकाधिकार पर जो प्रहार तुलससी ने किया था उसे मैं क्रान्तिकारी अवश्‍य मानता हूं।’’

‘‘तुम यह क्यों नहीं देख पाते कि यथास्थितिवाद के या कहो पुरातन हिन्दू मूल्यों, विश्‍वासों, रीतियों को वह नए सिरे से संजीवनी देते हैं और समाज को वर्णवादी, पुरुषवादी दायरे में घसीट ले जाते हैं।’’

‘‘मैं तुलसी को क्रान्तदर्शी इसलिए कहता हूं कि उन्‍होंने तात्कालिक छटपटाहट से मुक्ति के मार्ग का सही अनुमान किया, उस साहित्य को जिसके विषय में तुम्हीं यह प्रचार करते फिरते हो कि वह किसी शूद्र के कान में पड़ गया तो उसके कान में पिघला सीसा डाल दिया जाता था, जो हास्यास्पद होते हुए भी इस सीमा तक तो सही है ही कि उसको सुनने समझने का अधिकार शूद्रो को नहीं था, उस एकाधिकार को तोड करं उसके पाठ और श्रवण और अर्थग्रहण को सर्वजनसुलभ बना कर एक ऐेसा काम किया था जिससे पुरातनपंथी ब्राह्मण समाज लगभग विक्षिप्त हो गया था।

''मैं नहीं चाहूंगा कि निर्णय करते समय अपनी पार्टी की समझ से काम लो, अपनी बुद्धि से काम लोगे तो बहुत कुछ दीखेगा जो अपनी जरूरत से पार्टी देखने से रोकती है। तुम हिन्दुत्व की ऐसी व्याख्या करते हो, जिसमें ब्राह्मण शूद्र की परछाई से अपवित्र हो जाता था, तुलसी ऐसे मर्यादापुरुषोत्तम की सर्जना करते हैं जो सच्चा प्रेम करने वाली शबरी का जूठा बेर खाता है ।

''मेरी समझ से तुलसी अकेले ऐसे कवि है जो अपने पर हंसते हैं, कबीर को भी कभी अपने पर हंसते नहीं देखा। हो सकता है, हंसा हो और वह स्थल मुझे याद न आ रहा हो। तुलसी उन साधकों और मुनियों पर हंसता है जो जीवन से पलायन करके एकान्त साधना करते हैं, इसी तर्क से वह योगियों पर हंसता है, वह ब्राह़्मण जाति की श्रेष्ठता का मखौल किन किन प्रसंगों में उड़ाता है यह तो याद नहीं पर परशुराम की जो गति लक्ष्मण के साथ उनके संवाद में होती है, वह अकारण नहीं है, इसमें नाटकीयता भी है और वैचरिक दृढ़ता भी है।

''रावण अंगद संवाद को अापन मुख तुम आपन करनी बार अनेक भांति बहु बरनी के संकेत को ध्यान में रखते हुए मुगलकालीन दरबारी इतिहासकारों के प्रशस्ति लेखों पर विचार करो तो एक ऐसा तुलसी सामने आता है जैसा मार्क्‍स भी ढूढ़े न मिलेगा क्योंकि मार्क्‍स के सामने समस्या इकहरी थी, आर्थिक विषमता की। तुलसी अधिक बहुआयामी यथार्थ और बहुमुखी चुनौतियों का सामना कर रहे थे, गो यह कहूं कि अधिक सफलता से कर रहे थे, तो तुम्हें दुख होगा और मैं किसी को दुखी नहीं देखना चाहता।

‘‘पर एक बात पर ध्यान दो कि तुलसी के प्रभावक्षेत्र से बाहर ब्राह्णवाद या उसका आतंक अधिक गहरा रहा है, रूढ़िवादिता इतनी गर्हित कि जिसे छेड़ना सांप की बांबी में हाथ डालने जैसा होगा, फिर भी दक्षिण भारत के ब्राह्मण हों या तुलसी के प्रभाव से बाहर के उत्तर के ब्र्राह्मण, उनमें पुरातनपंथिता अधिक मिलेगी! इसलिए मैं यह समझ बैठा था कि वह परिरक्षणवादी तो हैं, अपने समाज को महाविनाश से बचाने वाले तो है, एक्सीलरेटर दबाने के साथ ही ड्राइविंग के उस्ताद बन जाने वाले क्रान्तिकारियों को तो अपनी थ्रिल में मौत तक पसन्द होती है, पर ब्रेक लगाना तक यथास्थितिवाद लगता है। रास्ता रुंधा होने पर बैक गीयर में चल कर सही रास्ता निकालना या उस पर आगे बढ़ना तक पुरातनवाद या रूढ़िवाद प्रतीत होता है।

'' समझ का अन्तर है संभव है कुछ ऐसा भी हो जिस पर मेरी नजर न गई हो, और उसे जानने के बाद मुझे तुम्हारी बात का कायल होना पड़े । सोच विचार का जीवित रहना किसी मान्यता से चिपके रहने से अधिक इष्टकर है । तुम क्या सोचते हो?’’

इस बार वह कुछ सोचता हुआ सा चुप रहा । मैने कहा, ‘‘आज तुमने फिर उसी दलदल में घसीट लिया जिसमें स्वयं फंसे हो! मैं आज इस पहलू पर, जितनी मेरी जानकारी है उसमें, यह समझना चाहता था कि यदि मध्यकाल में मुसलमानों के मन में हिन्‍दुओं के प्रति या हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के प्रति घृणा नहीं थी तो यह पैदा कैसे हुई?’’

उसने जोरदार ठहाका भरा, ‘‘यह तुम कह रहे हो, घृणा थी नहीं! हैरानी है ! किसी ने किसी का छुआ पानी तक पी लिया तो उसका छुआ पानी तक नहीं पी सकते! फिर भी घृणा नहीं।

छोड़ो, विषय काबू से बाहर हुआ जाता है इसलिए तफरीह के लिए शब्द चर्चा में समय गुजारा जाय!’’

उसकी समझ में नहीं आया कि मैं कहना क्या चाहता हूं। वह उचक्के की तरह देख रहा था!

‘‘तुमने काठ का उल्लू शब्द का प्रयोग क्यों होता है, इसका इतिहास क्या है, कभी सोचा है इस पर ?’’

वह पहले से अधिक उलझन में पड़ गया, या इलाही ये माजरा क्या है वाली उलझन !

‘‘मुझे ऐसा लगता है कि यह विंड काक या हो सकता है इसे वेदर काक कहते हों, उसका अनुवाद हो। मैंने अपनी एक कविता में इसके लिए ‘हवामुर्ग’ का प्रयोग किया था। हैरान इस बात पर हूं कि काठ का उल्लू क्या इसी से संबन्धित है और बुरा मत मानना मेरी अगली हैरानी यह है कि क्या तुम काठ के उल्लू का मतलब जानते हो? तुम अपने को जानते हो? क्या जानते हो कि तुमने हवा की दिशा देख कर कितनी बार अपनी कार्यदिशा, अपनी मान्यताएं, संगी साथी और कार्यक्रम बदले हैं और हवा कोई बहे तुम हमेशा सही साबित होते रहे हो।’’

मैं हंस रहा था और वह अगल बगल किसी पत्थर की तलाश्‍ा कर रहा था। पर हो सकता है कल वह अधिक तैयारी से आए और अधिक सही निकले !

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