स्कूल या जेल और थ्री इडियट्स
कभी कहा जाता था कि 'एक स्कूल बनेगा तो सौ जेलें बंद होंगी ' पर अब तो उल्टी गंगा बह रही है क्योंकि हमारे स्कूल ही जेल में तब्दील हो गए हैं. बच्चे उनीदें से अपने वजन से ज्यादा भार का स्कूली बैग लेकर बस में सवार होकर स्कूल चले जाते हैं..वहां मशीन की तरह व्यवहार करते हैं...
एक पुरानी कहानी है:एक बार एक पंडितजी(ब्राम्हण नहीं) को दूसरे गाँव जाना था.शाम घिर आई थी इसलिए उन्होंने नाव से जाना ठीक समझा. नाव की सवारी करते हुए पंडितजी ने मल्लाह से पूछा कि तुम कहाँ तक पढ़े हो तो मल्लाह ने कहा कि मैं तो अंगूठा छाप हूँ. यह सुनकर पंडितजी बोले तब तो तुम्हारा आधा जीवन बेकार हो गया! फिर पूछा कि वेद-पुराण के बारे मे क्या जानते हो? तो मल्लाह बोला कुछ भी नहीं. पंडितजी ने कहा कि तुम्हारा 75 फ़ीसद जीवन बेकार हो गया. इसी बीच बारिश होने लगी और नाव हिचकोले खाने लगी तो मल्लाह ने पूछा कि पंडितजी आपको तैरना आता है? पंडितजी ने उत्तर दिया-नहीं,तो मल्लाह बोला तब तो आपका पूरा जीवन ही बेकार हो जायेगा.
इस कहानी का आशय यह है कि केवल किताबी पढाई ही काफी नहीं है बल्कि व्यावहारिक शिक्षा और दुनियादारी का ज्ञान होना भी ज़रूरी है.यह सब जानते हुए भी हमारे स्कूल इन दिनों बच्चों को केवल किताबी कीड़ा बना रहे हैं और आगे चलकर 'बाबू' बनने का कौशल सिखा रहे हैं.जब हम बच्चे स्कूल में टॉप कर बाहर निकलते हैं तो तांगे के उस घोड़े कि तरह होते हैं जिसे सामने की सड़क के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता .हम बच्चे भी रचनात्मकता और सृजनशीलता के अभाव में सिर्फ बढ़िया सी नौकरी,फिर एशो-आराम और अपनी बेहतरी की कल्पना ही करते हैं. उनके लिए देश, समाज, परिवार के सरोकार कुछ नहीं होते या अपने बाद नज़र आते हैं. यदि हम समय पर नौकरी नहीं तलाश पाते हैं तो तनाव में आ जाते हैं और इसके बाद बीमारियों की गिरफ्त में! इसमें बच्चों से ज्यादा कुसूर अभिभावकों, स्कूलों का और शिक्षा प्रणाली का है? दरअसल स्कूल खुद ही बच्चों को नोट छपने की मशीन समझते हैं और उन्हें मशीन के रूप में ही तैयार करते हैं. आज के निजी और पब्लिक स्कूल बच्चों को अनुशासन की चेन में बांधकर कैदियों सा बना देते हैं.
कभी कहा जाता था कि 'एक स्कूल बनेगा तो सौ जेलें बंद होंगी '
पर अब तो उल्टी गंगा बह रही है क्योंकि हमारे स्कूल ही जेल में तब्दील हो
गए हैं. बच्चे उनीदें से अपने वजन से ज्यादा भार का स्कूली बैग लेकर बस में
सवार होकर स्कूल चले जाते हैं..वहां मशीन की तरह व्यवहार करते हैं और
दोपहर में होम वर्क से लादे-फदे घर वापस आ जाते हैं. घर में भी गृहकार्य
करते हुए पूरा वक्त निकल जाता है और शाम को हंसी के नाम पर मारपीट एवं
हिंसा सिखाते कार्टून देखकर सो जाते है और दूसरे दिन सुबह से फिर वही
कहानी... आखिर ऐसी व्यवस्था का क्या फायदा है जो इंसान को मशीन बनाये और
बच्चों को भविष्य में पैसे छापने की टकसाल? जब हम(बच्चे) ऐसा नहीं कर पाते
तो स्कूल में शिक्षकों के हाथ से मार खाते हैं और घर में माँ-बाप की दमित
इच्छाओं को पूरा करने के नाम पर कुंठित होते रहते हैं. ऐसे में ही बच्चे
मौत को गले लगा लेते हैं और शिक्षक की मार के बाद मरना ज्यादा आसान समझते
है? वैसे अब तो हर साल ही दसवीं-बारहवीं के परिणाम आते ही देश भर में
आत्महत्याओं का दौर सा शुरू हो जाता है और फिर बच्चे पर "कलेक्टर-एसपी"
बनने के लिए दबाव बनाने वाले अभिभावक हाथ मलते-पछताते रह जाते हैं? क्या
"थ्री इडियट्स " और तमाम फिल्मों में बताई गई हकीक़तों को हम फ़िल्मी ही
समझ बैठे हैं या असल जीवन में इस फिल्म से कुछ प्रेरणा भी ले सकते हैं? कब
अभिभावक बच्चे की पीठ का दर्द ,घुटन और कुंठा को देख पाएंगे? या उसे ऐसे ही
अपने सपनों के लिए कुर्बान करते रहेंगे? सोचिये जरा सोचिये... अगर आप भी
किसी बच्चे के बाप हैं....