शून्य चालीसा
यह कविता शून्य की महत्ता का वर्णन करता है।
शून्य चालीसा
दोहा - न आदि पता न अन्त पता है जो तुम्हरा आकार
हे शून्य देव सारा जग करता तुम्हरा जय जयकार।।
हे ‘शून्य देव’ तुम्हारा हम करते हैं वन्दन,
विन तुम्हरी सारी संख्याएँ करती रहती क्रन्दन।
आगे लगो तो एक, पीछे दस हजारों,
तुम्हरी महिमा तुम्ही से हे जायी सम्भारी।
आर्यभट्ट हैं पिता तुम्हारे, संख्या तुम्हरी माता,
तुम्हें प्रयोग में लाने वाला बन जाता भाग्य विधाता।
जुड़कर तुमसे वही मिले जो अपनी कीर्ति बचावै,
जो तुुमसे घाटा चाहै तो अपनी कीर्ति घटावै।
गुणा न तुम तो आगे करते भाग न कोई लगावै,
जो कोई गुणा भाग करै जबरन अन्त तुम्हीं को पावै।
तुम्हरी महिमा तुमहीं जानौं सब पर पड़ते भारी,
हर कोई तुमको उपयोग में लावै वो नर हो या हो नारी।
विन तुुम्हरे है अधूरा परिवार तुम्हारा आगे न बढ़ पावै,
दस से आगे कैसे बढ़े बस तुम्हें कुर्बान चढ़ावै।
दोहा - विन शून्य सब शून्य तब शून्य बिना संसार
सब पूरा जब शून्य से शून्य ही जग आधार।।