आस्था के प्रतिमान, १७-१८
१७. परिव्राजक परंपरा की उपयोगिता ... नारद...... हालाँकि आज मजाक के पात्र बना दिए गए हैं पर वे किसी समय #देवर्षि की उपाधि से इसीलिये सुशोभित थे। १८. बसंतोत्सव या वैलेंटाइन डे ... हमारी संस्कृति पूरा एक पखवाड़ा वसंतोत्सव मनाती थी। शशि कपूर की फिल्म #उत्सव देखिए। इसे #मदनोत्सव भी कहा जाता था।
आस्था के प्रतिमान -१७
परिव्राजक परंपरा की उपयोगिता
#Communicator को मेरे मत से #संवाद_संवाहक की तरह अनुवादित किया जाना चाहिए।
इस तरह का व्यक्ति हमने अपनी संस्कृति के स्वर्णिम काल में अपनी संपूर्ण महिमा में उत्पन्न किया था।
#नारद......
हालाँकि आज मजाक के पात्र बना दिए गए हैं पर वे किसी समय #देवर्षि की उपाधि से इसीलिये सुशोभित थे। वे भिन्न भिन्न संस्कृतियों में घूमते और आपस में उनका संवाद माध्यम बनते।भटक रही संस्कृति को परिष्कृत करने के लिए कहीं अर्धसत्य या कपट जैसा कुछ आवश्यक हो तो वो भी कर देते।
समाज के लिए हानिकारक व्यक्ति या संस्था को सुधार के पर्याप्त अवसर दे चुकने के बाद यदि देवशक्तियों को उनका निर्मूलन ही उचित लगता तो नारद की अक्सर उसमें महती भूमिका देखी गई है।
*इसी व्यक्ति से परिव्राजक या भ्रमणशील साधु परंपरा विकसित हुई(आरंभ नहीं)।*
हम देखते आए हैं बौद्ध काल, मुस्लिम काल, ईसाई काल आदि आपत्तिकाल जब जब सनातन की मुख्य धारा को ग्रसने के लिए बढ़े तो घुमक्कड़ संतों व साधुओं ने उनकी शक्ति क्षीण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
१८५७ के संग्राम से कई वर्ष पूर्व बंगाल में संन्यासी विप्लव हुआ था।जिसकी पृष्ठभूमि पर बंकिमदा ने #आनंद_मठ जैसी कालजयी रचना की है।
सनातन में भगवान आद्यशंकराचार्य द्वारा स्थापित नागा साधुओं के अखाड़े वस्तुतः धर्मरक्षा व धर्म जागरण के उद्देश्य से स्थापित संन्यासी वाहिनियाँ ही हैं।
आज भी अगर नेट को हटा दें तो समाज में किसी विचार को तीव्रता से फैलाने में अखाड़े के साधुओं का कोई जोड़ नहीं है।
कारण.....
वे निरालंब,बेफिक्र कहीं पैदल कहीं सार्वजनिक वाहनों से सतत आमजन के बीच भ्रमण रत रहते हैं।
इस विराट संवाद संवाहक शक्ति को आप अखाड़ों के घुमक्कड़ साधुओं में देखेंगे।
समाज से संवाद के विभिन्न मंच हो सकते हैं। इलैक्ट्रॉनिक और नेट आदि भी परंतु #one_to_one_communication बेजोड़ है।
धर्म के माध्यम से ये कार्य आज भी संभव है क्योंकि व्यक्तिगत अनुभव है कि गांव देहात में कथाकार या साधु के प्रवचन को प्रथम प्रतिसंवेदन #प्रणाम ही मिलता है।
फिर कुछ काली भेड़ें छवि कलंकित कर जाएँ तो बात अलग है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रवादी चिंतनशील लोगों को इस मंच पर लाया जाए।
धर्म को अब #भाँडगर्दी से मुक्त कराना ही होगा।मेरा निजी अनुभव है कि #गीता का #गहन_ज्ञान भी लोग सुनना चाहते हैं, संस्कृति का इतिहास और अध्यात्म के रहस्य सुनने में भी उनकी रुचि है।और ये कोई प्रबुद्ध लोग नहीं हैं।इनमें हस्ताक्षर तक न कर पाने वाले किसान और लोगों के घरों में बर्तन माँजने वाली बाईयाँ भी हैं।
परंतु हमारे महाराज लोगों में कई ऐसे हैं जिन्होंने लाखों रूपये निवेश करके एक मंडली बना रखी है... भाँड मंडली,जो सालाना करोड़ों का व्यवसाय दे रही है।
ऐसे लोग जनता को धर्म की अफीम खिलाकर मनोरंजन में गाफिल रखते हैं।ये स्वयं तो भोंदू होते हैं, चिंतन संभव ही नहीं, पर यथाशक्ति चिंतनशील व्यक्ति को आगे आने से रोकते हैं।
यदि आप चाहते हैं कि आपके सनातन को फिर नररत्न प्राप्त हों तो पहले इन भाँडों की दूकानदारी बंद कीजिए।
कथाकार क्या बोल रहा है,संदेश है भी या नहीं, मात्र नाचगाना कर माल तो नहीं बटोर रहा??? ये चिंता आपको करनी है।
अर्थशास्त्र का नियम जीवन का भी नियम है, *" खोटे सिक्के खरे सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हैं।"*
आप खोटे सिक्कों को सहयोग बंद कीजिए।खरे सिक्के चलन में आ जाएंगे।
#अज्ञेय
आस्था के प्रतिमान -१८
बसंतोत्सव या वैलेंटाइन डे
जब भी फरवरी का महीना आता है कुछ हलचल शुरू हो जाती है।
कुछ विद्रोही प्रेमी खुद को तमाशा बनाने में स्वतंत्रता अनुभव करते हैं तो कुछ संस्कृति के पहरेदार उस तमाशे को और ज़ायकेदार बना देते हैं अपनी कथित संस्कृति रक्षा से।
हमारी संस्कृति पूरा एक पखवाड़ा वसंतोत्सव मनाती थी। शशि कपूर की फिल्म #उत्सव देखिए। इसे #मदनोत्सव भी कहा जाता था।
आज भी हमारे मंदिरों में होली के बाद पूरे १५ दिन फाग गाए जाते हैं।पर इनमें अब बूढ़े और गंभीर लोग सक्रिय हैं।
मैं देख रहा हूँ कि हम वैलेंटाइन डे की आलोचना करने में ज्यादा ऊर्जा झोंक रहे हैं। जबकि उससे ज्यादा रंगीन संस्कृतिक पर्व हमारे बीच उपस्थित है, उपेक्षित सा।
यदि युवा मित्रों की सहज वृत्ति को विकार से बचाना है तो लठ भांजना निकृष्टतम उपाय है। बजाय इसके आप उनके प्रेम को स्वीकार करें। उनके लिए फागोत्सव परंपरा पुनर्जीवित करें। यदि मंदिर में दो प्रेमी सबके बीच अपने प्रेम के गीत गाने को स्वतंत्र होते हैं तो होटल के बंद कमरे में या किसी सूने पार्क की झाड़ी में कुकर्म की संभावना बहुत कम रह जाती है।
यद्यपि ये सहज नहीं है किंतु असंभव भी नहीं है। कुछ लोगों ने आरंभ किया भी है।
#अज्ञेय