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वह

किशोरावस्था मासूमियत लिए होती है. दिशा मिलने भर की देर है, किशोर मन बह निकलता है उस ओर......बिना औचित्य का ध्यान किए.

"उधर देख..... तेरेको देख रही है वह!"

वह ब्लैकबोर्ड पर नज़रें गड़ाए फुसफुसाया. इसका ध्यान पढ़ाई से ज्यादा फालतू बातों पर होता है हमेशा, मैंने सोचा....

"अबे, ठाकुर सर ने देख लिया न, तो मुझे तो कुछ न कहेंगे, तेरी सुताई हो जाएगी. पढ़ाई में चित्त लगा...."

कहने भर को टाल तो दिया मैंने उस मित्र को, पर मन व आंखें अब कुछ ढूंढते प्रतीत होने लगे थे. कक्षा में सबसे आगे बैठता था मैं और सामने ही उसका वर्ग था. मेरी अंग्रेजी माध्यम की और उसकी, मराठी! कई दिनों तक सीधे देखने का साहस नहीं हुआ, कनखियों से ताका करता मैं. उसे अपनी ओर देखता पा रोमांचित हो जाता! रीढ़ की हड्डी में सिहरन अनुभव होती!

संगीत कक्ष में गानों की रिहर्सल करते हुए, कई बार, मैंने कक्ष की खिडकी के पास खडा पाया था उसे. यहाँ तक की स्वराज्य भवन के प्रांगण में, जहाँ क्रिकेट खेला करते थे हम, अपनी किसी सहेली के साथ दीख जाती थी वह. अब तक मुझे पता न था सो ध्यान ही नहीं गया कभी. अब ध्यान में आ रही थी यह बातें!

दरमियाने कद की, सांवली सलोनी, अत्यंत तीखे नाक नक्शे और अत्यंत तीखी जुबान वाली लडकी थी वह. उसकी आंखें, अंतर्मन का थाह लेती सी लगतीं. घुटनों के नीचे तक लंबी केशराशि, उसे खूब फबती. अपनी कक्षा की सबसे होशियार विद्यार्थी थी वह. कक्षा आठ से, तीनों माध्यमों के विद्यार्थियों में, सर्वप्रथम आने की होड लगी होती और कक्षा दसवीं के शालांत विदाई समारोह में प्रथम आने वालों को पुरस्कृत किया जाता. नवीं के लिए उसने यह पुरस्कार जीता था. आठवीं से नवीं तक पहुंचते हम दोनों के बीच मित्रता हो गई और शुरुआती झिझक भी मिट गई. अब हम सीधे देखने लगे थे, एक दूजे को. बाज मौकों पर बात भी कर लेते. पर राज़दारी इतनी कि, किसी को पता न चले!.... और फिर एक दिन, गजब हो गया...

मेरे शहर के नगर अध्यक्ष, स्व. विनय कुमार पाराशर जी की पत्नी, यशोदा देवी पाराशर, हमें संस्कृत पढाती थीं. बडी ममतामयीं व अत्यंत भावुक! शाला के कार्यक्रमों में व रिहर्सलों के दौरान भी जब कभी मैं, 'ऐ मेरे वतन के लोगों' गाता, रो पडतीं. सातवीं से दसवीं तक मैंने यह गीत गाया और हर बार वे रोईं.

एक दिन, उन्होंने हमें एक दूजे को तांकते, धर लिया. हमें तो वे कान से पकड़ ले गयीं स्टाफ रूम में और ठाकुर सर के आने तक अपने कान पकडे खडे रखा. उस लडकी के क्लास टीचर को भी सूचित कर दिया.

"बहन जी, ये बच्चे अपनी शाला के सबसे होनहार बच्चे हैं. अल्हड हैं, पर हमें उनपर विश्वास रखना चाहिए. को-एज्यूकेशन तभी सार्थक होगी, नहीं? चल जा रे, आगे से यह हिमाकत ना करना!"

सारा माजरा सुन, ठाकुर सर ने जान बख्श दी. HVPM अमरावती के boxing champion थे, ठाकुर सर! सारे खौफ खाते उनसे....

लगभग ढाई वर्षों का मेरा किशोर मोह, उस लड़की को, स्कूल के सबसे कुख्यात (गुंडा कह लीजिए) लडके से बात करते देख, ऐसा ध्वस्त हुआ कि बात करना तो दूर, अब मैं देखता तक न था उसकी ओर! वह बेचारी असफल प्रयास करती रही पर फिर ध्यान नहीं दिया मैंने कभी....

साल बीता. हमारी शालांत पूर्व परीक्षाएं सर पर आ गयीं. दसवीं के तीनों माध्यमों की परीक्षाएं साथ ही होतीं. हम दोनों के पहले नाम 'S' से शुरू होते थे, परीक्षा में हम दोनों की सीट आगे पीछे आयीं. मुझे आज भी याद है, Geometry का पेपर था उस दिन. एक घंटा शेष रहते उसने अपने होंठ हथेली से छिपाते हुए मुझसे पूछा ;

"पांचवें प्रश्न में कौनसा theorem apply करेगा ?"

....उसे कुछ सूझ नहीं रहा था शायद! यह mandatory प्रश्न था, वरना फेल होने की नौबत! अनिच्छा के बावजूद उसकी मदद करना उचित लगा. मैं बोला;

"दो theorem applicable हैं, Theorem of similar angle triangles और Theorem of parallel lines...",

... मैं हल कर चुका था यह प्रश्न!!

"Thanks!!"

वह बोली. उसकी आंखों से कृतज्ञता छलक रही थी....

परीक्षाएं संपन्न हुई. अब हम सबको परिणामों की प्रतीक्षा थी जो परंपरा नुसार विदाई समारोह में घोषित किए जाने थे. और वह दिन भी आ गया....

मैं अपने बचपन से ही अत्यंत भावुक रहा हूँ. शालांत तक यह बीमारी अपने चरम पर पहुँच चुकी थी. मुझे याद है, दसवीं के पहले चार महीनों में दो या तीन बार 'ऐ मेरे वतन के लोगों' गाते हुए, 'जब देश में थी दीवाली, वो खेल रहे थे होली' के आते ही, कंठ अवरुद्ध हो जाता मेरा. बडी मुश्किल से गीत पूरा हो पाता. और यह बात इसी गीत के बारे में नहीं थी, हर भावनाप्रधान गीत को गाते, यही अवस्था होती मेरी. शायद यही कारण रहा हो, स्कूल के बाद फिर कभी किसी कार्यक्रम में नहीं गा पाया मैं! यह अवस्था बदस्तूर, अब भी जारी है. अब तो किसी फिल्म के संवेदनशील दृष्यों को देखते हुए भी, आवाज बदल जाती है, आंखें डबडबा जाती हैं अपनी. बडे प्रयासों से अपनी अवस्था व इससे उत्पन्न शर्म को छिपाना पडता है, पत्नी व बच्चों! इस दुर्बलता से कई बार लज्जित हुआ हूँ मैं!

उसे फिर गणित में सर्वाधिक अंक मिले. मैं तीसरे स्थान पर था. वह स्कूल की सबसे योग्य विद्यार्थी घोषित हुई. अब बारी थी अपने मनोगत व्यक्त करने की. मैं तो भावातिरेक में ज्यादा कुछ बोल न सका. उसकी बारी आई. उसने बोलना शुरू किया और मेरी भावनाएं तटबंधों को ध्वस्त करने लगीं. उसकी पूरी स्पीच के, आज भी भुलाए न जा सकने वाले शब्द कुछ कुछ यूँ थे ;

"इन मासूम से स्कूली दिनों में भी, हममें से कुछ ने रिश्तों की कोई पूंजी अवश्य सहेजी होगी...यह मासूमियत भी धीरे धीरे खत्म हो जाएगी....जीवन में आगे बढने, अपना करियर बनाने की कुछ कीमत तो देनी ही होगी. है न? मैं अपनी बात कहूँ तो, एक रिश्ता है मेरा भी...जो कुछ तो इन दिनों की और कुछ, मेरे विधि लिखित ऋणानुबंधों की देन लगता है मुझे! मेरी दृष्टि में बेशकीमती है....."

अपनी आंखें ठीक मुझ पर जमाए बोल रही थी वह अब....

"तुम चाहे जो सोचो, मैं तो यही समझती हूँ...किसी को गलती करते देख, नाराज होनेवाला....किंतु आसन्न संकट में निश्छल मदद को तत्पर, मित्र सा...कुछ तो होगा मेरा किया, फिर वह पिछले जन्म का ही क्यों न हो, जिसकी एवज में तुमने यह किया... तो, हुआ न ऋणानुबंध ?"

अपना बोलना खत्म करते हुए, उसका स्वर भारी हो चुका था उसका....

वह मराठी में बोल रही थी. कम लोग सुन रहे थे और उससे भी कम समझ रहे थे. मैं सुन भी रहा था और समझ भी! स्पीच का अंतिम भाग मेरे लिए था, निरंतर मुझ पर नजरें गडाए बोला था उसने....

स्वयं को भरसक संयत रखते हुए, पानी पीने का बहाना कर मैं हट गया वहाँ से....

"क्या हुआ? आंखें लाल क्यों हो रही है तुम्हारी? तबीयत तो ठीक है?"

...मित्र पूछ रहा था. मैं चुप था....क्या कहता?... कुछ था ही नहीं मेरे पास कहने के लिए!!!

पाराशर बहन जी, डबडबाई आंखों के साथ मेरी पीठ थपथपा रही थीं.....और हम दोनों नजरें चुरा रहे थे एक दूजे से... शायद पहली बार... नहीं, शायद अंतिम बार...!!

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