हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-13
तुम कहते हो वह इस्लाम के प्रसार को रोकने के लिए हिन्दुत्व की रक्षा के लिए इनका विरोध करते हैं, मैं कहूंगा हिन्दुत्व की सही समझ उनके पास थी और इस्लाम के प्रसार को रोकने के लिए आत्मालोचन और बचाव की चिन्ता सन्तों को थी। वे जानते थे हिन्दुत्व वर्णवाद नहीं है, एक मूल्य व्यवस्था है जिसकी रक्षा करते ह
हिन्दुत्व से घृणा का इतिहास - 13
‘‘तुमसे शगल के लिए तो बात की जा सकती है, समझ के लिए नहीं। तुम इतने दुराग्रही हो कि तुमको यह भी समझाया नहीं जा सकता कि हिन्दुत्व के प्रति घृणा का प्रधान कारण वर्णवाद रहा है जिसके प्रतीक तुम्हारे तुलसी बाबा हैं जिनको तुम क्रान्तिकारी सिद्ध करने की जिद पर अड़े हो। सिद्ध, नाथपंथी, कबीर और दूसरे सन्त, रैदास, ये सभी वर्णवाद पर प्रहार करते हैं, समाज को इसकी अतार्किकता का कायल बना कर उसकी चेतना को बदलते हुए उसका नया संस्कार करना चाहते हैं, और तुलसी इनसे ही पंगा लेते हुए समाज को पीछे ले जाने की कोशिश करते हैं। तुम कहते हो वह इस्लाम के प्रसार को रोकने के लिए हिन्दुत्व की रक्षा के लिए इनका विरोध करते हैं, मैं कहूंगा हिन्दुत्व की सही समझ उनके पास थी और इस्लाम के प्रसार को रोकने के लिए आत्मालोचन और बचाव की चिन्ता सन्तों को थी। वे जानते थे हिन्दुत्व वर्णवाद नहीं है, एक मूल्य व्यवस्था है जिसकी रक्षा करते हुए वे हिन्दुत्व को इस्लाम के दबाव से बचाना चाहते थे। तुम्हारे क्रान्तिकारी तुलसीदास उस दुर्बलता को बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं जिसके कारण हिन्दू समाज अरक्षणीय बना हुआ था और इस तरह हिन्दुत्व के लिए स्वयं संकट पैदा कर रहे थे।’’
इस हमले के लिए तो मैं तैयार ही नहीं था, तुरत कोई जवाब सूझ नहीं रहा था, हकलाते हुए कहा, ‘‘वर्णव्यवस्था सच कहो तो अर्थतन्त्र की उपज है, धर्म से इसका कोई संबंध नहीं।’’
वह कुछ विचलित लगा तो मेरा आत्मविश्वास लौट आया, ‘‘तुम जानते हो, सभ्यता की पश्चिम की समझ कि जहां से नगर बसने आरंभ हुए वहां से सभ्यता आरंभ हुई और जहां से लेखन आरंभ हुआ वहां से इतिहास गलत है। सभ्यता उस समय आरंभ हुई जब कार्यविभाजन आरंभ हुआ, वर्णविभाजन कार्यविभाजन का ही रूप है! बर्बर समाजों में सभी काम सभी कर लेते थे और एक औसत दक्षता सभी के पास थी जिससे जीवन यापन हो जाता था, कार्यविभाजन के साथ दक्षता का स्तर और प्रतिस्पर्धा का वह पर्यावरण तैयार हुआ जिसे सभ्यता की नींव का पत्थर कहा जा सकता है।
''यह कार्यविभाजन स्थायी कृषि के साथ आरंभ हुआ। यदि तुम इसे धर्म से जोड़ना चाहो तो कहना होगा कार्यविभाजन या वर्णविभाजन के बिना समाज का उन्नयन नहीं हो सकता था, यह उसकी अपरिहार्य आवश्यकता थी इसलिए वर्णविभाजन धर्म का हिस्सा बना। तुम्हारे अधकचरे दिमाग के मार्कवादी वर्ण को वर्ग बताते रहे। पढ़ा है न, ‘भारतीय समाज में वर्ण ही वर्ग है' और इस समझ से पिछड़े और दलित जनों को एक वर्ग में रखते रहे, और वह उनके लिए सर्वहारा बन जाता रहा है और ऊंची जातियों को दूसरे में , एक संपन्न या हैव्स का वर्गत्; दूसरा सर्वहारा या हैवनाट्स का। दोनों के बीच केवल टकराव का ही संबंध हो सकता है और यह तब तक जारी रहेगा जब तक ऊंची जातियों को मिटा नहीं दिया जाता और वर्णहीन समाज जो तुम्हारी समझ से क्लासलेस साम्यवादी समाज है, वह स्थापित नहीं हो जाता।
''यह मूर्खतापूर्ण समझ है और भारतीय समाज, भाषा संस्कृति और इतिहास की उपेक्षा से पैदा समझ है और इसे ही तुम इतिहास में लौटा कर वर्णभेद को चुनौती देने वालों को क्रान्तिकारी और उसकी रक्षा करने वाले को प्रतिक्रान्तिकारी या पुनरुत्थानवादी मान लेते हो और तुलसी पर हमला बोल देते हो।’’
‘‘इसमें गलत क्या है, यह तो बताओ।’’
‘‘मूर्खतापूर्ण कहने के बाद भी क्या गलत है यह बताने को रह जाता है ? पहली बात कि यदि वर्ण वर्ग है तो भारत में चार वर्ग होने चाहिए जब कि इसमें शिक्षा थी पर शिक्षित मध्यमवर्ग तक नहीं था। इसका उदय अंग्रेजी राज के साथ हुआ।
दूसरे यदि सवर्ण हैव्स की कोटि में आते हैं और शूद्र हैवनाट्स के, तो वर्णव्यवस्था में सबसे ऊपर गिना जाने वाला ब्राह्मण तो निपट सर्वहारा था - रहने को कुटिया और जीविका के लिए भीख, वह पुरोहिती से आए या दान और भोज से या सीधे मधूकरी से । तुम आर्थिक श्रेणियों में रख कर भारतीय समाज को समझ ही नहीं सकते और कम्युनिस्टों के देसी होते हुए भी अपने नजरिये के कारण अपने ही देश और समाज के लिए विदेशी और अजनबी बन जाने का प्रधान कारण यह टकावादी सोच है।
जिसके पास टका था वे वर्णविभाजन में शूद्र के ठीक ऊपर हुआ करता था और कई मानों में उसकी तुलना शूद्रों से की जाती थी, क्योंकि समाज के निर्वाह का सारा भार, सारी अर्थव्यवस्था इनके ही उद्योग पर टिकी हुई थी। ब्राह्मण और क्षत्रिय तो परजीवी वर्ण थे, स्वयं कोई काम ही नहीं करते थे। क्षत्रियों ने बहुत बाद में भूसंपदा पर अधिकार करके अपनी आय का एक स्रोत सुनिश्चित कर लिया था, ब्राह्मण के पास पुस्तकीय ज्ञान था और शूद्र के पास परंपरागत कौशल, इस माने में दोनों एक दूसरे के सबसे निकट पड़ते थे। संपदा से वंचित और योग्यता के बल पर जो कुछ मिल सकता था उसे पाने को चिन्तित इसलिए दोनों मे तनाव भी अधिक था।
आय की दृष्टि से शूद्र की स्थिति ब्राह्मणों से अधिक अच्छी थी। हमारे समाज के आन्तरिक तनाव को भुनाने की कोशिश की गई पर समझने का प्रयत्न नहीं किया गया। मध्यकाल तक, कंपनी के प्रवेश से पहले तक शूद्रों के पास ही वे रोजगार धन्धे थे जिनसे भारतीयों को वंचित कर दिया गया, यहां तक कि नमक बनाने के अधिकार तक से, और उसके बाद वे जो किसानी में किसी न किसी तरह सहायक हो सकते थे, अर्धबेकारी भोगते हुए उस दशा को पहुंच गए जिसके लिए तुम ब्राह्मणों को दोष देते नहीं थकते और शिक्षा का लाभ उठाने के कारण जो नौकरियों से ले कर संभ्रान्त पेशों तक, यहां तक आन्दोलनों और संगठनों तक में इतने महत्वपूर्ण हो गए कि लगता है उनकी आर्थिक स्थिति सदा से ऐसी ही रही है।’’
मैं सांस लेने के लिए रुका तो वह लगभग चीखते हुए टूट पड़ा, ‘‘तुम पूरी बात न तो सुनते हो न समझते।’’
मैं चकित हो कर उसे देखने लगा, मेरे इतने प्रभावशाली विवेचन का उस पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा था।
‘‘तुममें बोलने का इतना नशा है कि तुम दूसरे किसी की बात सुनने या समझने की जरूरत ही नहीं समझते। मैं वर्णव्यवस्था की बात नहीं कर रहा था, वर्णवाद की निन्दा कर रहा था। वर्णव्यवस्था यदि कार्यविभाजन है तो किसी कार्य में सबसे दक्ष व्यक्ति को उस कार्य या उन कार्यों पर लगाया जाय जिनमें उसकी दक्षता है। आरंभ इसी रूप में हुआ था। यही सभ्यता की पहली पहचान है और प्रगति और विकास की अनिवार्य शर्त। वर्णवाद का मतलब है वर्ण का योग्यता पर आधारित न हो कर जन्म पर आधारित हो जाना, योग्यता के अभाव में भी उसका उन कामों पर नियुक्त किया जाना और उसी काम के लिए उससे योग्य व्यक्तियों की इसलिए उपेक्षा कि यह उनके आनुवंशिक कार्यभार में नहीं आता था।
''वर्ण के जाति में बदलने की कीमियागीरी को मैं नहीं समझता, पर इतना समझता हूं कि यह प्रगति में बाधक है, समाज को पीछे ले जाने वाला है और इससे मुक्ति पाए बिना समाज अपनी चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता। जिस समय के नाथों, सन्तों और समतावादी चिन्तकों की बात कर रहा हूं उस समय तक वर्ण जाति में बदल चुका था और वे इसी को समाप्त करने की बात कर रहे थे, इसलिए उन्हें क्रान्तिकारी कहा जाएगा। तुलसी उनका विरोध कर रहे थे, कर ही नहीं रहे थे, उन्होंने उस धारा को उलट दिया और इसलिए मैं उन्हें प्रतिक्रियावादी मानता हूं और यह मोटी बात तुम्हारी समझ में नहीं आती, इसलिए कभी इतिहास में इतना पीछे चले जाते हो जिसके विषय में हमें पक्की जानकारियां नहीं है इसलिए कुछ भी कयास भिड़ाया जा सकता है, नहीं तो उस चरण को छोड़ कर सीधे आज के समय पर छलांग लगा लेते हो। गोरखनाथ और गोरखपंथी योगी, कबीर और कबीरपन्थी, रैदास और रविदास के अनुयायी हिन्दुत्व को बचाने के लिए उस बुराई को दूर करना चाहते थे जिसके कारण हिन्दू समाज समतावादी इस्लाम के सामने अरक्षणीय सिद्ध होता था। इतनी सी बात तुम्हारी समझ में नहीं आती ।’’
इस बार मैं पूरी तरह तैयार था, ‘‘देखो, किसी समाज का सबसे परिरक्षणवादी तबका वह होता है जिसको हम सबसे पिछड़ा समझते हैं। सबसे ढुलमुल और सुविधाभोगी वह होता है जिसे हम शिक्षित वर्ग समझते हैं। नये विचार और तर्क की पहुंच इसी तक होती है और किसी बात का कायल हो जाने के बाद पाला बदलने वालों में सबसे आगे यही होता है। सन्तों और योगियों का औजार तर्क और औचित्य था, जिसका असर समाज के ‘समझदार’ समझे जाने वाले तबके पर होता है, और एक बार यह डगमगाया तो पीछे का सारा समाज उसी के अनुसार ढल जाता है।
''यहां मैं तुमको एक अन्य संदर्भ में चर्चित अपनी एक पोस्ट की याद दिलाऊं, जिसमें ट्वायन्बी के हवाले से मैंने दो सभ्यताओं के टकराव की परिणति बताई थी। इसे संक्षेप में दुहराऊं तो जब दो सभ्यताओं का टकराव होता है तो दबंग सभ्यता दबाव झेल रही सभ्यता पर हावी होना चाहती है । दूसरी अपनी रक्षा के लिए अधिक रूढ़िवादी हो जाती है । पर फिर यह सोच कर कि इसके अमुक तत्व को स्वीकार करने से तो कुछ फर्क पड़ता नहीं, निरापद और मामूली प्रतीत होने वाले तत्व को ग्रहण कर लेती है, परन्तु चूंकि सभ्यता की अपनी आवयविकता होती है इसलिए उसमें प्रवेश करने वाला वह तत्व विजातीय तत्व के प्रवेश की तरह उसे भीतर से तोड़ना आरंभ कर देता है और फिर वह पूरी तरह असहाय और अरक्षणीय हो जाती है। तुलसी की समझ वही थी जिसे हम ट्वायन्बी में चार सौ साल बाद पाते हैं। उनका अन्देशा गलत नहीं था। हिन्दुत्व की रक्षा के लिए वर्णवाद को तोड़ कर अपनी धुरी से विचलित होने वाले आन्दोलनों का परिणाम देख कर तुम इसे समझ सकते हो।
‘‘तुलसी तर्कवाद के आघात से बचने के लिए आस्थावाद का सहारा लेते हैं और उनका आन्दोलन अधिक सफल रहा यह तुम परिणामों से समझ सकते हो । और वह जो तुम्हारा खयाली पुलाव था कि वर्णवाद हिन्दू समाज का सबसे अरक्षणीय पक्ष था और इसके सताए हुए लोग इस्लाम की शरण जा सकते थे यह हवाई है, इसे हम उदाहरणों से देख चुके हैं कि सबसे दलित और दुर्गति में जीने वाली जातियों में से किसी ने धर्म परिवर्तन नहीं किया। यदि यह बात तुम्हारे भेजे में आ गई तो बाकी बातें कल समझ पाओगे ।’’ बात मैंने ही खत्म कर दी ।