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मैं सर सैयद अहमद के समग्र व्यक्तित्व का मूल्यांकन नहीं कर रहा हूं इसलिए उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलू छूट गए हैं। व्यक्ति के मूल्यांकन की दृष्टि से देखें तो उनके प्रति कुछ अन्याय भी हुआ। उनकी चर्चा देख कर मित्रों के मन में उन पहलुओं को लेकर भी जिज्ञासाएं होती हैं। हमारी चर्चा में मुख्य रूप से वे प्रसंग आए हैं जो भारत के सामाजिक संबंधों को प्रभावित करते हैं। इनमें कुछ बातों के लिए उनको जिम्मेदार भी माना गया है। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि सर सैयद अहमद न हुए होते तो हमें जिस तरह के अनपढ़ या मदरसों मकतबों में तैयार की जाने वाली मानसिकता वाले मुसलमानों से पाला पड़ता जिनकी जहनियत और उसके भारत पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बहुत अच्छी बातें नहीं सोची जा सकतीं। वह मुसलमानों का पुरातनपंथिता से हटा कर ज्ञान विज्ञान, प्रौद्योगिकी, व्यापार आदि की दिषा में प्रवृत्त करना चाहते थे और उनका ही साहस था कि वह कुरान का भी विज्ञानसम्मत पाठ करते हुए चेतना के रूप को बदलना चाहते थे। उनकी कही गई बहुत सी बातें अवसर, श्रोताओं की अपेक्षाओं और उनके मनोविज्ञान को देखते हुए उनमें उत्साह पैदा करने के लिए कहा गया था। कुछ के अन्य कारण भी थे ।
यह सच है और इसे मैं पहले कह आया हूं कि उनकी चिन्ता मुस्लिम रईसों, जमीदारों या संभ्रान्त वर्ग की आर्थिक दषा में आ रही गिरावट को लेकर थी। उन्नीसवीं शताब्दी में सामाजिक और लैंगिक समानता की बातें करना या इस पर सोचना तक अपवाद हो सकता था, नियम नहीं। जमीदारों के बाद कारीगर और मजदूर ही बचते थे जिनकी सामाजिक आर्थिक हैसियत में सुधार लाने की बात कोई न सोचता था। कारीगर तो जैसे पहले थे वैसे अब क्योंकि उनको अपने श्रम और कौषल का ही भरोसा था जिसमें कई कंपनी की नीतियों के कारण मामूली गिरावट आई थी। पर हिन्दू मुसलमान सभी इस खयाल के थे कि यदि उनकी दषा सुधर जाएगी तो उन्हें नौकर चाकर कहां से मिलेंगे। महिलाओं की षिक्षा के बारे में वह इसलिए नहीं सोच सकते थे कि महिलाएं कमाने नहीं जा सकती थी। योग्यता हासिल करने का एक ही उद्देश्य था नौकरी पाना । आज हम पश्चिमी जगत में महिलाओं की दशा को देख कर उनकी समकक्षता की बात करते हैं, उनकी महिलाए पर्दा तो नहीं करती थीं पर पहले विश्व।युद्ध से पहले काम काज के मामले में उनकी हालत एषियाई देशों से बेहतर न थी। सच कहें तो दूसरे महायुद्ध में सभी देशों के पुरुषों को लामबन्द किए जाने के बाद ही उनको भी दफतरों और काम माज की जगहों पर जाने की बाध्यता अनुभव हुई और फिर तो उनकी मांगें बढ़ती गई। अनेक देशों में, यहां तक सोवियत संघ में भी औरतों को उसी काम के लिए पुरुषों के बराबर वेतन नहीं मिलता था। अमेरिका में तो अपने नौजवानों को साम्यवादी प्रभाव से मुक्त करने के लिए मौज मस्ती और नषाखोरी के साथ जो जी आए करो की छूट दी गई। छूट के सभी रूप किसी समाज या समुदाय को मुक्ति देने वाले ही नहीं होते, कुछ उनका अमानवीकरण भी करते हैं। व्यावसायिक विज्ञापनों ने औरत को मुक्ति नहीं दी, उसकी देह को बिकाऊ माल में बदल दिया। देह हो व्यापारिक उपयोग का बनाने का धन्धा तो बहुत पुराना है, हाल में उसे कुछ अधिक भाव दिया जाने लगा है। यूरोप में इन सारी बन्धन मुक्तियों के बाद भी यदि ‘पूर्णमुक्ति, होती तो वहां नारीवादी आन्दोलन न होते हां, यह सच है कि उन्होंने स्त्री शिक्षा पर पहले से ध्यान देना आरंभ किया और उनके विदुषी महिलाएं पहले से देखने में आती हैं! सर सैयद अहमद की सोच क्या थी इसे उनके कुछ कथनों से समझा जा सकता हैः
1. Acquisition of knowledge of science and technology is the only solution for the problems of Muslims.

2. Call me by whatever names you like. I will not ask you for my salvation. But please take pity of your children. Do something for them (send them to the school), lest you should have to repent (by not sending them)

3. We will remain humiliated and rejected if we do not make progress’’ (in scientific field)

4. Get rid of old and useless rituals. These rituals hinder human progress.

5. Superstition cannot be the part of Iman (faith).

6. The first requisite for the progress of a nation is the brotherhood and unity amongst sections of the society.

7. Religion is the word of God and our surroundings are the work of God. And explanation of the existence of work of God is science. No contradiction is possible between science and religion as word of God cannot be opposition of work of God. If a contradiction between religion and science exists in a mind then it indicates cloudy thinking and therefore one should try to clear his thinking.

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