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"निर्दयी, तुम मातृत्व का निर्वहन न कर पायीं पर मैं...मैं अपने पुत्र होने के दायित्वों को अवश्य पूर्ण करूँगा, निश्चिंत रहो!!

कहते कहते उनकी आंखों से आंसू टपक ही पडे. उपस्थित सारे छात्र भी भाव-विव्हल हो गए. मैं समझ ही नहीं पा रहा था कुछ ना ही कोई और समझ पाया होगा.

वे लगभग साढ़े छह फीट ऊँचे, बलिष्ठ देहयष्टी के युवक थे. पूरा महाविद्यालय उन्हें हरक्यूलिस कहा करता. उन्हें यूँ भावुक होते देखना बडा अजीब लग रहा था. वैसे अजीब भी न था कुछ. सदैव शून्य में कुछ ढूँढा करते से लगते थे. कॉलेज के शुरूआती दिनों में उनका व्यवहार विक्षिप्तों जैसा लगता.

"साला, दिखने में ही हरक्यूलिस है! अपनी पत्नी तक को तो नहीं संभाल पाया. वह छोड़कर चल दी तो पागल हो गया है."

सीनीयर्स से, उनका यही परिचय मिला था हमें. महाभारत के कर्ण-कुंती संवाद पर आधारित व आर.के. नारायण लिखित, एक अंग्रेजी पाठ की व्याख्या कर रहे थे क्लास में. ऐसी विशद व्याख्या करनेवाला कतई पागल नहीं हो सकता, मुझे लगा. आवश्यकता से अधिक भावुक लोगों को विक्षिप्त समझ लिया जाता है.

फूलों के प्रति मेरा आकर्षण, उनके रंग व गंध का मोहताज कभी नहीं रहा. मेरे लिए उनका फूल होना ही पर्याप्त होता है. प्रोफेसर महोदय, मुझे इसी गंध-विहीन फूल जैसे लगते. अच्छे लगते. कभी कोई पीरीयड मिस नहीं किया मैंने उनका! एकाध बार मित्रों के बीच उनका पक्ष लेने पर भारी उपहास का पात्र भी बनना पडा मुझे.....

इसी वर्ष (1978 की बात है यह....) शहर के बीच से बहने वाली मोरणा नदी में भीषण बाढ़ आई. आधे से अधिक शहर डूब गया. हमारा घर भी पानी के नीचे था. हम दोनों भाई व हमारे पिता, इसी चिंता में थे कि कब पानी का स्तर कम हो और हम अपने घर की सुध लें. सारे लोग सूखे में खडे, अपने डूबे घरों को देख रहे थे. पड़ोस के मुहल्ले के कुछ लोग भी साथ खडे थे. इनकी अवस्था अधिक गंभीर थी. कुछ लोग फंसे थे घरों में. कोई कह रहा था;

"यार, क्या आदमी है वह! कुछ बोला नहीं, सीधे घुस गया.... उसे देखकर ही बाकियों को साहस हुआ. आदमी तो बच जाते किसी तरह....वह तो जानवरों को भी निकाल लाया सकुशल. मानना पडेगा उसका जीवट!!"

मेरी उत्सुकता बढ़ गई. पूछने पर जो हुलिया बताया गया, वह उस व्यक्ति का, हमारे अंग्रेजी के प्राध्यापक होने की पुष्टि कर रहा था. मैं, पिता की अनुमति ले, अपने मित्रों के संंग उधर को हो लिया. वही थे. पजामें के पांयचे घुटनों के ऊपर तक चढ़ाए, बारिश में तरबतर, लोगों की मदद कर रहे थे. उनकी पहल ने उपस्थितों का साहस जागृत कर दिया था. पता चला, किसी को कुछ नहीं बोले वह. बस कुछ बडबडाते हुए, लग गए थे. तभी अपने बलिष्ठ हाथों में गाय का बछड़ा उठाए आते दिख गए. उनकी हमेशा सूनी-सूनी सी लगने वाली आंखों में, सफलता की खुशी झलक रही थी. पर यह बडी क्षणिक निकली. बछड़े को सूखे में छोड़ते ही, फिर कुछ खोजने लगी थीं उनकी आंखें.

वर्षा थम गई थी. बाढ़ भी उतर गई. अब घुटनों-घुटनों तक जमा कीचड़ पीछे रह गया था. स्थिति, अधिक भयंकर लग रही थी. अन्य लोगों को अपने घरों की सुधि लेते देख, उन्होंने अपनी साईकिल उठाई और नदी के तट की ओर रुख किया. इस बार हम, उनके कुछ छात्र, भी साथ थे उनके. पिछली रात से जारी यह काम, दूसरे दिन मध्यान्ह तक चला. निरंतर कुछ न कुछ बड़बड़ाते हुए, कभी सूने तो कभी अश्रू भरे नैन लिए, घूमते रहे पूरा शहर! पूरा दिन साथ बने रहे हम, उनका हाथ बंटाते. हम सब पर बडे खुश थे वह. यह हमें पता ही न चलता यदि शाम को अपने घर चाय पर न बुलाया होता उन्होंने.

एक नज़र में मनुष्य को भांप लेने जैसी झूठी बात नहीं कोई! किसी को केवल देख कर, नहीं जान सकते हम. इसीलिए ऊपरी प्रतिक्रिया अर्थहीन होतीं हैं. उस दिन चाय पर काफी कुछ जान पाये हम उन्हें. कुशाग्र बुद्धि के बावजूद, व्यवहार शून्यता ने भावुक बना दिया था उनको. प्राध्यापक पिता व अध्यापिका माता प्रदत्त संस्कार, संवेदनशीलता का कारण बने. अल्पायु में माता-पिता के निधन व अंगभूत व्यवहार शून्यता, असफल गृहस्थी में परिणीत हुई. शिक्षा का व्यवसाय व लोगों के काम आने की चाह ने जीवित रखा उनको. हम सबके लिए नया था उनका यह स्वरूप.

एक प्रश्न, आज भी मुझे संभ्रम में डाल देता है......

संवेदनशीलता, जन्मजात होती है या शिक्षा-संस्कारों का परिणाम है? महिलाओं में इसकी अधिक मात्रा, क्या दर्शाती है?

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