आस्था के प्रतिमान, १-२
१) क्या योगियों की समाधि पूजन और दरगाह भक्ति एक समान है? २) सांई पर कुछ कहना और केजरीवाल पर कुछ कहना एक समान है।अपना ही नुकसान होता है और एक निरर्थक व्यक्ति को प्रचार मिल जाता है।
आस्था के प्रतिमान-१
क्या योगियों की #समाधि_पूजन और #दरगाह_भक्ति एक समान है????
देखिए, दरगाह पूजन और समाधि पूजन समान नहीं है।
कैसे??????
इसके लिए हमें सनातन की संन्यास परंपरा और इस्लाम में फकीर की अवस्था समझने की आवश्यकता है।
"देखिए, #इस्लाम कोई धर्म नहीं है,अपितु, एक #युद्धजीवी(war monger) #संप्रदाय है इसका आध्यात्मिक पथ जो #सूफी कहलाता है भारत में विशेषतः #नाथ_संप्रदाय का चोरी का माल है। असली सूफी शियाओं में हुए और उन्हें सुन्नियों ने ईरान से आगे बढ़ने ही नहीं दिया। यहाँ तो लुटेरों के भेदिए सूफी बनकर आए। विदित ही है साईं भी उन्हीं में से एक रहे हैं।"
ऐसे लोग जो छलकपट लूटमार और स्वपूजनप्रिय होते हैं, बहुत देहासक्त होते हैं। मृत्यु के बाद अपनी दफन देह के आसपास मंडराते रहते हैं और पतले रक्तवाले आत्मबलहीन लोगों की ताक में रहते हैं। ये अकेले नहीं होते धीरे धीरे अपना कुनबा बढ़ाते हैं।अर्थात एक #दरगाह मतलब एक #प्रेतसंघ।
फिर बारबार अपने आसपास आनेवाले मूर्खों की प्राण ऊर्जा खाने की भूख में उनके घरों तक चले जाते हैं।वहाँ भी अनुकूल वातावरण मिलता है।इस प्रकार #गीता का श्लोक सत्य हो जाता है। "देहांत के बाद उनके ये कथित भक्त उस पिशाच कुनबे की शोभा बढ़ाते हैं।"
दूसरी ओर संन्यासी होने की प्रक्रिया इतनी दुरूह है कि हर कोई नहीं होता। हमारे सनातन में सिर्फ दशनामी संन्यासी और नाथ संन्यासी को भू समाधि या जल समाधि देते हैं।शेष सब अग्नि को अर्पण हैं।
एक संन्यासी जब विरजाहोम करके संन्यास लेता है तो अपनी पिछली ७ पीढ़ियों और अगली ७ पीढ़ियों सहित स्वयं का भी पिंडदान कर देता है।
संन्यास के बाद उसे सिर्फ देहपात होने तक अनासक्त भाव से विचरण करना है। (पतित संन्यासी के लिए अलग विधान हैं।)
फिर कुछ सिद्ध ऐसे हैं जो जीवंत समाधि लेते हैं।योगबल से अपना देह स्वयं त्यागते हैं। इस वजह से जीवंत समाधि या कोई भी समाधि किसी भी दरगाह से श्रेष्ठ और पूज्य है क्योंकि वहाँ एक ऐसी देह है जिसके भीतर का चैतन्य जीवनकाल में ही उससे संबंध तोड़ चुका था।उस देह का परम शुद्धिकरण हुआ है योगाग्नि द्वारा। वहाँ नमन से आप परमात्मा को ही नमन कर रहे हैं।
आप योगियों की समाधि का पूजन करें, उसमें दोष नहीं है। वैसे भी उन्हें मात्र नमन किया जाता है।
किंतु .......
दरगाह भक्ति या साईं भक्ति में डूबे गधों से #विचित्रोपनिषद का ज्ञान प्राप्त होता है।
"हमें जहाँ से कृपा मिले वहाँ सिर झुकाएंगे। ....सब ब्रह्म है तो फिर साईं भी ब्रह्म है,मज़ार भी ब्रह्म है,बाबा फकीर भी ब्रह्म है,पर्वत, नदी ये वो सब ब्रह्म है....।
नफरत मत फैलाओ...... ये धर्म संप्रदाय के झगड़े हमें नहीं चाहिए।..... #शंकराचार्य कौन होता है हमें समझाने वाला???.... हम बाबा फकीरों में भगवान देखें तो आपको क्या तकलीफ है?????"
गजब के मूढ़ तर्क हैं। अपने बाप को बाप नहीं कहेंगे। पंचर जोड़नेवाले चचा में बाप दिख रहा है क्योंकि उसने ५ पैसे की दो गोली बाँटी थी।
और ईश्वर सबका बाप है इसलिए सब बाप हैं । बाप भी,मामा भी,पड़ौसी भी,चचा भी और भी कई चर अचर बाप।
बढ़िया.....। इसीलिए घर में घुस के जूते मारे कटुवों ने और अपन ने खाए.... वो भी १००० वर्ष तक।
यही सोच जिम्मेदार है जो तय ही नहीं कर पाती कि श्रद्धा किस पर क्यों और कितनी???
"न गुरु परंपरा का भान है और न शास्त्र मर्यादा। बस मेरा स्वार्थ तय करेगा मैं किसे बाप कहूँगा।"
#अज्ञेय
आस्था के प्रतिमान-२
"सांई पर कुछ कहना और केजरीवाल पर कुछ कहना एक समान है।अपना ही नुकसान होता है और एक निरर्थक व्यक्ति को प्रचार मिल जाता है।"
किंतु कभी कभार उत्तर देना आवश्यक हो जाता है क्योंकि घटिया स्तर का व्यक्ति या दल हमारे कमजोर होने का भ्रामक प्रचार कर असत्वाद को अल्पज्ञ जनसामान्य में स्थापित कर देता है।
सांई भक्तों की गुणवत्ता का आकलन इसी से होता है कि उनका कोई साधन पथ नहीं है।मूर्खतापूर्ण इमोसनल अत्याचार को ये भक्ति कहते हैं।
किसी का कर्जा है,किसी को विवाह करना है,कोई बीमार है,किसी के नसीब फूटे हैं, और कई के तो लोभ की ही सीमा नहीं है।
इन सभी में एक बात समान है।ये चाहते हैं कि कर्म ये करें और फल कोई और भोग ले।या इन्हें कर्तव्य न करना पड़े और फल 'टप' से टपक जाए।
"ऊपरी तौर पर बहुत भावुक दिखाई देने वाले सांईवादी भीतर से बहुत विषाक्त होते हैं।हर समय मानसिक तनाव और विषाद से घिरे रहते हैं।"
इसका कारण है कि प्रकृति ने इन्हें जिस पथ में उत्पन्न किया है ये उसकी अवहेलना कर धर्म में मनमाना आचरण कर रहे हैं।
"हर मंत्र व स्तोत्र के विनियोग में उसके संरक्षक देवता, ऋषि, शक्ति इत्यादि बताए जाते हैं।वह एक पथ है जिस पर वे आपको सहायक होंगे।"
"सांई कोई पथ ही नहीं है।एक विकृति है।विकृति के उपासकों को #प्रसाद(मन का प्रशांत आनंद) कैसे उपलब्ध हो सकता है????"
"अक्सर ये तर्क दिया जाता है कि मैं जिसे चाहूँ पूजने को स्वतंत्र हूँ।"
महामूर्ख है ऐसा व्यक्ति....।
तुम जन्म लेने के लिए बाध्य हो।पिता द्वारा माता में गर्भाधान के बाद ९ माह गर्भवास करके #योनिमार्ग से ही बाहर आना होता है। "तुम हर कहीं से नहीं निकल पड़ते।" फिर एक परिवेश तुम्हें मिलता है।पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर।उस परिवेश में जो धर्म है वह तुम्हारे जन्म मरण चक्र को रोकने के उपाय देता है।उसके बाहर कहीं से कुछ भी करना घातक है क्योंकि जन्म से प्राप्त व्यवस्था तुम्हारे रक्त माँस मज्जा में घुली है,तुम्हारे मन का निर्माण उससे हुआ है। तुम अपनी कल्पना के या किसी पाखंडी की चालाकी के वश में कोई भी भगवान आरोपित करके अपना और अपनी भावी पीढ़ियों का नाश का बीज बो रहे हो।ये कोई खेल नहीं है। "देवता और उनका तंत्र, मंत्र,यंत्र #ऊर्जा_विज्ञान है।"
मेरे समक्ष सैकड़ों सांई भक्तों की बरबादी के उदाहरण हैं जिसके मूल में यही छेड़छाड़ है।
आप शंकराचार्यजी को निजी गुरु न मानें पर जन्मना सनातनी होने के कारण आपके सामाजिक गुरु का सम्मान उन्हें उस व्यवस्था से प्राप्त है जिसकी नींव १५०० वर्ष पूर्व भगवान आद्यशंकराचार्य ने रखी थी। विधर्मी षड्यंत्र के प्रति निष्ठा और अपने अस्तित्व से घृणा इन बुद्धिहीनों को कहाँ ले जाएगी कौन जाने???
ये विडम्बना कहें या माँ भारती का दुर्भाग्य कि "हम ईश्वर और संत की ईसाई/मुस्लिम अवधारणा को आत्मसात कर चुके हैं।"
आज किसी से कहो कि अपने धर्म और मत के अनुसार ही देवपूजन और गुरु का वरण आपके लिए श्रेष्ठ है तो वह श्रद्धा के नाम पर उधार का म्लेच्छ ज्ञान परोसने लगता है।
साईं की या किसी दरगाह की फोटो पूजाघर में रखकर अपने कुलपरंपरा का भयंकर श्राप लेने को उद्यत मूढ़ बताते हैं कि कैसे वे दुर्भाग्य से जूझ रहे थे और किसी दिन किसी की प्रेरणा से शिर्डी या किसी दरगाह पर गए और किस प्रकार उनका जीवन बदल गया।
मैं इस मनोवृत्ति की तह तक शोध करके निष्पत्ति पर पहुँचा हूँ।
१- साईं या दरगाह पूजक हिंदू अपनी जड़ों से पहले कटते हैं। वे फिल्मों, सीरियलों या अपने जैसे बुद्धिहीनों से धर्म का अर्थ ग्रहण करते हैं।उनके जीवन में कोई जीवंत गुरु परंपरा नहीं होती।संतों व आश्रमों या साधकों में उठना बैठना नहीं होता।
२- गीता, रामायण व महाभारत का स्वाध्याय भी नहीं होता, उपनिषदों पर चिंतन तो संभव ही नहीं।
३- अज्ञान के कोढ़ पर मिडिल क्लास अहंकार की खाजयुक्त ये जीव अपने धर्म और संतों को पहले से पाखंड प्रेरित मान लेता है।इसलिए अपनी धारणा मन में रखकर ही कभी जाता भी है तो कुछ पाता नहीं।
"हमारे सनातन में #कर्म_का_सिद्धांत धुरी है।" अर्थात कर्म से ही आप सौभाग्य को दुर्भाग्य और दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल सकते हैं।
#ज्योतिष का आरंभ ही इस सिद्धांत से होता है कि "प्रबल पुरुषार्थ से प्रारब्ध बदला जा सकता है।"
आपके कर्म आपको ही भोगने हैं।हाँ उसमें अपने धर्म के अनुसार बताए तप इत्यादि करके आप दुर्दैव के विष को काफी हद तक क्षीण कर सकते हैं।उसकी विधि आपको आपके धर्म का जीवित प्रतिनिधि अर्थात संत सद्गुरु बताएगा।
कोई परंपरा विच्छिन्न व्यक्ति जो कबका मर चुका,आपके प्रारब्ध को नहीं बदल सकता। "न ही कोई दरगाह इसमें समर्थ है।न ही कोई #टोटकाचार्य_सूफी_बाबा।"
ये जो क्षणिक लौकिक सुख का आभास इन स्थानों के प्रभाव से दिखाई देता है ये आपके शुभ प्रारब्ध का उदय ही है।वहाँ न जाते तो भी होता।
"पर सनातन के लिए विषतुल्य आसुरी स्थानों पर नाक रगड़कर जो और #भयंकर_प्रारब्ध आप रचे जा रहे हैं वो अपनी बारी की प्रतीक्षा में है.....स्मरण रखिएगा।"
#अज्ञेय