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अपुन ने भी मनाया था कभी Valentine's Day!! ईमानदारी की बात तो ये है कि मनाना पड़ गया था. इस चौदह को तीस साल हो जाएँगे. उन दिनों 'डे' सेलीब्रेशन न होते थे. पता ही नहीं था कुछ! 'डे' आते, निकल जाते. 'डे' के नाम पर जो मनाए जाते वे, कोजागिरी-होली, बस दो ही थे. बाकी हिंदी-दिवस, 15 अगस्त और 26 जनवरी के अलावा कुछ जयंती-पुण्यतिथि के दिन होते.

अपुन बात कर रैला था 'वेलेंटाइन डे' का!

उन दिनों (फरवरी 1987) औरंगाबाद में पोस्टेड था मैं. विवाह हुए एक महीना भी न हुआ था. इसी वर्ष की 17 जनवरी को हुई थी शादी. दरअसल शादी के दो ही दिन पहले, यानी 15 जनवरी को हमारे तीन अंकी नाटक, "पळा, पळा; कोण पुढे पळे तो?", का अत्यंत सफल प्रयोग हुआ था. (मैं पहले भी लिख चुका हूँ यहाँ.) 14 फरवरी को सुबह, बैंक जाने के बाद, पता चला की आज शाम पांच बजे, हमें भावना बेडेकर (नाटक के पात्र, 'लूसी' को अभिनीत करने वाली लड़की) के घर जाना है, सक्सेस सेलीब्रेट करने हेतु!

शादी तक, रात दस से पहले कभी बैंक न छोड़ते थे हम. काम के बाद देर रात तक टेबल-टेनिस खेला करते, नाटक की रिहर्सल किया करते. पत्नी के आने के बाद, शाम साढ़े पांच बजे तक, काम समाप्त होते ही घर का रुख कर लेता मैं. आज घंटा भर तो विलंब होने ही वाला था. मेरा अनुमान था कि शाम साढ़े छह-सात के बीच पहुँच जाऊँगा मैं घर. फोन-मोबाईल थे नहीं की श्रीमती जी को सूचित कर देता. यही लोचा हो गया!

रात साढ़े नौ हो गए घर पहुँचने को! मैं पार्टी का आनंद भी नहीं ले पा रहा था. पत्नी के चिंतित होने की चिंता सता रही थी. मैंने जब भी, निकलने की बात की, साथी मित्रों ने मज़ाक उड़ाया. विवशता थी. डरते-डरते घर पहुँचा. वही हुआ, जिसका डर था. मेरी नई-नवेली दुलहिन, मुझे देखते ही लिपट कर सुबक पड़ी थी. ग़जरा बिखरा था, कजरा धुल चुका था! कोई पूर्व अनुभव न होने के चलते, उसे शांत करने में समय लग गया मुझे. किसी भांति स्थिति थोड़ी संभली, तो मैंने कहा;

"अबे रोतडू, पढ़ी-लिखी लड़की है तू! कोई गँवार है के? रोने की जगह बैंक तक नहीं जा सकती थी? पता चल जाता. कोई नासमझ बच्चा तो हूँ नहीं कि खो जाता कहीं!"

मेरी बात ने 'ज्वाला' में 'धृत' डालने का काम कर दिया. केवल एक पल उसने देखा मुझे, और दूसरे ही पल मुट्ठियाँ भींचे टूट पड़ी मुझ पर. घूंसे बरसाते हुए बोलना और रोना, निरंतर जारी था;

"किसे बताकर गए थे? बताओ किसे बताकर गए थे? कल जाकर पूछना अपने ब्रांच-मैनेजर और वॉचमेन से...बात करते हो!!"

"ओए, बस कर....मेरी गलती हो गई!", अपुन बैकफुट पर भी थे और डिफेंसिव भी...., "खाना-वाना तो कुछ बनाया ही न होगा, है न?"

फिर घी पड़ गया अंगारों पर.......

"तुम्हें बीवी भी सुपर-वूमन चाहिए, क्यों? तुम्हारे बैंक भी जाए, खोज-ख़बर रखे और यह सब करते हुए खाना भी बना ले..."

फिर ठंडे पानी के छींटें डालना पड़े.....

कुछ देर में, मुश्किल से, स्थिति नियंत्रण में आयी. सुबकते हुए ही कहने लगीं;

"मुझे भूख लगी है ज़ोरों की.....तुम तो खाकर आ गए, मेरा क्या?"

अबकी मैंने कोई दुस्साहस नहीं किया....

"अरे, चलो चलो... मुझे भी भूख लग गई है. तुम्हारी चिंता में मेरा ध्यान ही कहाँ लग रहा था उधर, कुछ खा ही नहीं पाया मैं!"

हालांकि मैं दबाकर खा चुका था पर बताता तो विस्फोट ही हो जाता. पुरूष, शादी के साथ ही होशियार भी हो जाते हैं. मुझे अपनी तुरंत-बुद्धि पर आश्चर्य हो रहा था. सिर्फ दो महीने पहले इतना होशियार नहीं था मैं! अगला ही वाक्य मेरी इस सोच की पुष्टि करता लगा मुझे;

"Be my valentine!! संयोग से आज वेलेंटाइन डे भी है, चौदह फरवरी! जानती हो न? ट्रीट तो बनती ही है!!"

वह खुश हुई और मोगँबो भी!!

शानदार कैंड़ल-लाईट डिनर और फिर आइसक्रीम!! इस छोटु सी इन्वेस्टमेंट ने बडे शानदार व चकित कर देने वाले रिटर्न दिये जीवन में जो अनवरत जारी हैं अब भी!!!

हाँ, मुझे भरे पेट पर ठूँसना पड़ा था.... जबरन!!

मैंने आपको बताई इस बात की कानों-कान ख़बर ना हो उन्हें!!

............इतनी अपेक्षा तो कर सकता हूँ न मित्रों?

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