व्यथा-विसर्जन
सुलभ काव्य संग्रह
कभी सोचता हूँ, धन वैभव का अर्जन करूँ,
कभी सोचता हूँ, इस मोह माया का मर्दन करूँ,
किस वैतरिणी में जाकर मैं
अपनी इन व्यथाओं का विसर्जन करूँ!
मुझे बोध है, मैं असंतुष्ट हूँ,
सब ज्ञात है, किन कारणों से रुष्ट हूँ,
आकांक्षाओं को लेकर बढ़ा हूँ, अंततः,
आशा-अभिलाषाओं से हुआ पुष्ट हूँ,
ढूँढ रहा हूँ, वो दिव्य-कर,
जिनको तृष्णाएं, ये अर्पण करूँ
किस वैतरिणी में जाकर मैं
अपनी इन व्यथाओं का विसर्जन करूँ!
मन-रिपु किंचित तो निकृष्ट है,
कभी पथ पर, कभी पथ-हीन, कभी ये पथ-भ्रष्ट है,
संग-कुसंग-विसंग, प्रसंग सब जाने ये,
मन-सुमीत सत्य पर भी आकृष्ट है
एक मन सुसंस्कृत, एक मन अलंकृत,
किसको समर्पण करूँ, किसका तर्पण करूँ,
किस वैतरिणी में जाकर मैं
अपनी इन व्यथाओं का विसर्जन करूँ!
ज्ञान-अज्ञान-विज्ञान है, सब संज्ञान मुझे,
तनिक सी है विनम्रता और बड़ा अभिमान मुझे,
सम्मान और अपमान की चिंताओं से हूँ घिरा हुआ,
है इसका भी अनुमान मुझे!
स्वयं उद्वेलित, स्वयं आलोकित,
द्वैत-अद्वैत-द्वैताद्वैत में विभाजित,
किसका आकर्षण करूँ, किसका विकर्षण करूँ
किस वैतरिणी में जाकर मैं
अपनी इन व्यथाओं का विसर्जन करूँ!
............................सुलभ गुप्ता
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