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19 जनवरी, 1990। कश्मीर की घाटी सर्द हवाओं में ठिठुर रही थी। नि:स्तब्ध, नीरव। हलचल थी तो केवल गली-मोहल्लों से निकलकर जम्मू की ओर जाते हिन्दू-पुरुष, महिलाओं की। बूढ़ों और बच्चों की। सब हिन्दू। सिर पर गठरियां, हाथों में संदूक, अटैची। जितना समेट पाए समेट कर चल पड़े थे। अपनी और अपने बाल-बच्चों की जान की परवाह उन्हें न चाहते हुए भी उस अनजाने रास्ते पर चलने को मजबूर कर रही थी। उनकी आंखें नम थीं, लौट-लौटकर अपने घर, चौबारे, दालान, गली और नुक्कड़ को देखते थे; उन मैदानों को, स्कूलों के बरामदों को जहां खेल-कूदकर बड़े हुए थे; उन दरख्तों को जिन पर बचपन में यूं ही हंसते-हंसते चढ़ जाया करते थे, झूले डाला करते थे या जिनके पीछे छुपकर अठखेलियां करते थे; वितस्ता की उस धार को जिसने कितनी बार अपने अमृत से पानी से उनकी प्यास बुझाई थी; उन शिकारों को जिन में बैठकर झील में सैर करते थे; उन वादियों को जिनमें उनके बाल-बच्चों की किलकारियां गूंजा करती थीं। सब बिछुड़ गया, छूट गया पीछे। मन था जो बार-बार कसक उठता था। कब लौटेंगे वापस?

जिहादी उन्माद की नफरत और गोलियों से छलनी होकर यूं अपमानित होकर निकले थे कश्मीर से हिन्दू। 1990 की वह भयावह रात आज भी उनको कचोटती है। उन्हें वह सब याद है कि किस तरह खुलेआम रास्तों में रोककर कभी उनके ही पड़ोस में रहने वाला अहमद या शौकत ए.के.-47 दिखाकर उन्हें कश्मीर छोड़कर चले जाने को कहता था, जरा विरोध किया तो गोली सीधे सीने में उतार दी जाती थी या सिर कलम कर दिए जाते थे। उन्हें याद है किस तरह हिन्दुओं के घरों पर पर्चे चिपकाकर उन्हें गांव, मोहल्ला छोड़कर चले जाने की धमकियां दी जाती थीं। उन्हें याद है किस तरह उनके दालान में घुसकर पाकिस्तानी झण्डा लहराते हुए, "आजादी" के नारे लगाते जिहादी तत्व उनकी बहु-बेटियों पर कुदृष्टि डालते थे। उन्हें याद है कि कैसे हिन्दू और सिख समाज के बीच दूरियां पैदा करके बारी-बारी से दोनों समाजों को प्रताड़ित किया गया। उन्हें याद है कि कैसे पड़ोस में रहने वाला कोई अशरफ खां अचानक ही उनका दुश्मन बन गया। उन्हें याद है हथियारबंद जिहादी कैसे उनके चाचा या ताऊ को घर से निकालकर वहां के ठेकेदार बन बैठे थे। उन्हें याद है डल का हल्का नीला पानी कैसे लाल हो गया था। उन्हें याद है कि क्षीर भवानी और आदि शंकराचार्य मंदिरों की सीढ़ियों पर चढ़ने वालों की पींठ में गोलियां उतार दी जाती थीं।

पाक अधिकृत कश्मीर के नरसंहार के बाद भारत अधिकृत कश्मीर में रह रहे पंडितों के लिए कश्मीर में छद्म युद्ध की शुरुआत पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के काल में हुई। उसने षड़यंत्र पूर्वक कश्मीर में अलगाव और आतंक की आग फैलाई।

उसके भड़काऊ भाषण की टेप को अलगाववादियों ने कश्मीर में बांटा। बेनजीर के जहरिले भाषण ने कश्मीर में हिन्दू और मुसलमानों की एकता तोड़ दी। अलगाववाद की चिंगारी भड़का दी और फिर एक सुबह पंडितों के लिए काल बनकर आई।

19 जनवरी 1990 को सुबह कश्मीर के प्रत्येक हिन्दू घर पर एक नोट चिपका हुआ मिला, जिस पर लिखा था- 'कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे।'
पहले अलगाववादी संगठन ने कश्मीरी पंडितों से केंद्र सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए कहा था, लेकिन जब पंडितों ने ऐसा करने से इनकार दिया तो हजारों कश्मीरी मुसलमानों ने पंडितों के घर को जलाना शुरू कर दिया।

महिलाओं का बलात्कार कर उनको छोड़ दिया। बच्चों को सड़क पर लाकर उनका कत्ल कर दिया गया और यह सभी हुआ योजनाबद्ध तरीके से। इसके लिए पहले से ही योजना बना रखी थी। यह सारा तमाशा पूरा देश मूक दर्शक बनकर देखता रहा।

सबसे पहले हिन्दू नेता एवं उच्च अधिकारी मारे गए। फिर हिन्दुओं की स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक बलात्कार कर जिंदा जला दिया गया या नग्नावस्था में पेड़ से टांग दिया गया। बालकों को पीट-पीट कर मार डाला। यह मंजर देखकर कश्मीर से तत्काल ही 3.5 लाख हिंदू पलायन कर जम्मू और दिल्ली पहुंच गए।
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29 साल बीत गए, पर घाव हरे ही हैं। निर्वासित होकर अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में जीना क्या होता है, यह कश्मीर से निकाले गए हिन्दुओं से पूछें। क्या होता है जब उनका दर्द बांटने की बजाय मानवाधिकारों के नाम पर आतंकवादियों की मिजाजपुर्सी की जाती है। 400-500 रुपए माहवार और 10*5 फुट का कमरा देकर सरकारी प्रशासन "राहत" पहुंचा देता है। बस! शरणार्थी शिविरों में बसे उन लोगों से पूछें कि क्या गुजरती है उनके मन पर जब उनके बूढ़े माता-पिता या बच्चे की शिविर में डाक्टर न होने के कारण मृत्यु हो जाती है। जब दो मुट्ठी अनाज और एकाध कम्बल के लिए दर-दर भटकते, अपमान सहते हैं । जब सरकारी मुलाजिमों की दुत्कार और जवान बेटियों पर कानून के ठेकेदारों की गिद्ध-दृष्टि पड़ती है।

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