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आप के घर की महिलाओं के साथ आप की बातचीत कैसी है?

प्रश्न से चौंकिएगा नहीं, हाँ आप ये तो जानते हैं कि मैं हल्की बात कभी करता नहीं । यह प्रश्न भी नितांत गंभीरता से पूछ रहा हूँ और आप से यह भी आग्रह रहेगा कि आप इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएँ । बात की गंभीरता को समझते हैं ।

हिन्दू महिलाओं को अपना अवकाश है, स्वतंत्र सोच है । कई निर्णय खुद लेती है जहां पुरुष दखल नहीं देते । इस बात को, इसी स्वतन्त्रता को हमारे शत्रु अच्छी तरह जानते हैं और महिलाओं को योजनाबद्ध तरीके से टार्गेट किया जाता है । इस टार्गेटिंग के लिए मैं शत्रु विशेष को नहीं चिहनित करूंगा, वा क ई तीनों ही टार्गेट करते हैं ।

नारीवाद और अभिव्यक्ति को ले कर उन्हें बरगलानेवाले वामी, सर्विस सेक्टर में कई जगहों पर वास्ता पड़ने से फायदा उठानेवाले कसाई और मन:शांति एवं घर की विविध समस्याओं को लेकर दैवी निराकरण के भूलभुलैये में उनका शोषण करनेवाले कसाई और ईसाई दोनों । अपनी परिजन लड़की या महिला इसमें किस कदर फंसी है यह समझ तब ही आता है जब चिड़िया चुग गई खेत । दुर्भाग्य की बात यह होती है कि यह आसानी से रोका जा सकता है अगर महिला और परिजनों के बीच वार्तालाप खुला और मैत्रीपूर्ण हो । मन की बात मन में दबाये रखना कठिन होता है । बात करने को कोई चाहिए । अक्सर घरवालों से बात खुलकर न कर पाने से ही कोई संवादयोग्य पात्र खोजा जाता है । यह पता नहीं होता कि वो क्या है । अक्सर एक बात को ले कर दिल दे बैठती हैं लड़किया कि वो लड़का मुझे हरदम हँसाता है या मेरी बकबक से बोर नहीं होता । ऐसा नहीं कि यह एक ही बात है लेकिन यह भी एक बात है ।

यह भी जरूरी है कि समाज या राजनीति पर चर्चा हो, विचार का आदान प्रदान हो । आप के खर्चे से कौन लाभान्वित होते हैं इसपर भी चर्चा हो । सहकर्मी और सहपाठियों की भी बात हो । विचारों में आते बदलाव को समयपर समझना आवश्यक है ताकि योग्य कदम उठाए जा सके । अतिसंशय से जासूसी भी ठीक नहीं लेकिन बिलकुल लापरवाही भी उतनीही घातक है । लड़कियों के, खास कर के कॉलेज जाती लड़कियों के मित्रों को घर पर एक बार तो खाने को जरूर बुलाएँ, सहज भाव से बात करें, उनकी बैक्ग्राउण्ड समझ लें । फिर निर्णय करें । एक खाना सस्ता होता है बाद के झंझटों के बनिस्बत । एकलौती संतान है तो यह ज्यादा जरूरी है । भाई बहन हैं तो उनके बीच संबंध सहज हों यह जरूरी है ।

तमाम संकीर्णता के आरोपों को मेरा एक ही उत्तर है कि इस मामले में प्रमाण व्यस्त है । जितनी जाती हैं उतनी आती नहीं, न उतनी संख्या में न ही उतनी आसानी से । इसका मतलब साफ है । बाकी आप सुधिजन अपना अपना निर्णय लेने को स्वतंत्र हैं ही । मेरे बात कोई फतवा, Bull या Whip नहीं कि किसी पर बंधनकारक हो ।


इसी पोस्ट पर एक कमेंट भी प्राप्त हुआ था, जिसे यहीं देना उचित भी लग रहा है, कि कैसे पिता-पुत्री के बीच संवाद होने पर, लड़की का जीवन नष्ट होने से बच गया..

यही कमेन्ट को ढूंढ रहा था। अधिकतर पढ़ ही लेंगे, लेकिन जिन्हें जरूरी है उनके लिए यह रहा अनुवाद ।

परिवार के भीतर खुली बातचीत अत्यधिक महत्व की है, लेकिन अगर पहले से मौजूद नहीं है तो चुटकी में स्थापित नहीं हो सकती । समय लगता है और बुद्धि भी । एक सत्य घटना बता रहा हूँ । यह लड़की एक लड़के से दिल्ली यूनिवर्सिटी में मिली, प्यार हुआ । लड़की अमीर घर की, लड़का आरक्षण के सहारे आया था, खुद भी आर्थिक संघर्ष करते घर से था, आर्थिक कठिनाइयों से जूझते राज्य से था । लड़की ने अपने पिता से कह दिया कि यही लड़का है जिससे वो ब्याह करेगी । बाप परेशान, कुछ मित्रों से बात की । उन्होने सायकियाट्रिस्ट से मिलने की सलाह दी। एक प्रसिद्ध DU प्रोफेसर की सलाह ली गई और एक डिटेक्टिव की भी – जिसने लड़के की आवश्यक खोजबीन की । सायकियाट्रिस्ट ने सलाह दी कि लड़के को माँ बाप सहित घर बुलाओ खाने पर । अब लड़की को भी अकेला नहीं छोड़ा जा रहा था, कोई न कोई साथ लगाया जाता । लड़का जल्द ही मीटिंग के लिए उत्सुक था। फिर वो घड़ी आई, लड़का माँ बाप के साथ लड़की के घर पधारा । बंगले के दरवान ने सलाम मारा, और कोर्टयार्ड में पार्क की हुई चार आलीशान गाड़ियों को पार करते हुए वे तीनों घर के बड़े और शानदार सजाये हुए ड्राविंग रूम में पहुंचे । लड़के ने बड़े ही उत्साह से माँ बाप को अपनी बोली में कह दिया – ई सब हमार होयेगा इक दिन ! यह बढ़िया तरीके से रेकॉर्ड कर दिया गया और उनके रवाना होने के बाद, लड़की को दिखाया गया । पिता से खुलकर बातचीत थी बेटी की इसलिए ....

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