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उपवास का चलन अच्छा चल पड़ा है, जिसे देखों वह उपवास करने पर उतारू है। अब जबकि देश में अन्न की भरपूर पैदावार होने लगी है, और हमें उसे सड़ाने के लिए जतन करना पड़ता हैं, लोग अन्न को बचाने वाली हरकतें करने लगे हैं। खाते-पीते घरों के लोगों को जिनकी दसों उंगलियाँ घी में और सर कड़ाही में हों ‘उपवास’ करते देख बेचारे गरीबों पर तरस आता है, एक ‘उपवास’ ही तो उनके पास महीना काटने का अचूक अस्त्र हुआ करता है, वह भी इन सम्पन्न लोगों ने हथिया लिया।
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औसत बीस रुपल्ली रोज़ाना कमाने वाला इंसान महीने में इतने उपवास रखता है कि उसकी आर्थिक हाय-हाय ठंडी हो जाए। महँगाई जब बढ़ती है और यह ‘बीस’ रुपल्ली ‘उन्नीस’ रह जाती है तो बेचारा कहीं से ढूँढकर एकाध उपास और रख लेता है। इस तरह देश की आर्थिक स्थिति और उत्पादन व वितरण व्यवस्था के साथ ताल-मेल बिठाकर चलता हुआ एक सच्चा भारतीय होने का प्रमाण देता है। मगर जो लोग राजपाट का आनंद ले रहे हैं, धन-दौलत, सुख-सुविधाओं में लोट-पोट रहे हैं उन्हें उपवास जैसी नौटंकी करना शोभा नहीं देता! भई, भगवान का ‘दिया-न-दिया’ सब कुछ है आपके पास, उसे खाने-पचाने में मन रमाओं, उपास-वुपास कर आत्मा को कष्ट पहुँचाने की क्या तुक है।
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शरीर विज्ञान के स्वयंभू ज्ञाताओं को कहते सुनी हूँ कि हफ्ते में एक दिन उपवास रखा जाए तो पाचन तंत्र ठीक-ठाक काम करता है। यह ज्ञान तमाम खाऊओं के लिये बड़ा उपयोगी है जो गपागप देश का माल खाने में लगे हैं। हफ्ते में एक दिन अगर वे उपवास की तर्ज पर माल हज़म करने से परहेज कर लें तो उनका हाज़मा भी ठीक रहेगा और आगे माल भकोसने में सुविधा भी रहेगी।

शास्त्रों में पापों से मुक्ति के लिये व्रतों-उपवासों का विधान है। दुनियाँ भर के कुकर्म करने के बाद उपवास कर लेने से आत्मा शुद्ध हो जाती है। चोरी करो, डाका डालो, बलात्कार करो, गरीब-गुरबों का खून चूसो, शोषण-दमन, अत्याचार में पाटनरी करो, जातीय घृणा फैलाओ, कत्लेआम को अंजाम दो और फिर भोले-भाले बनकर ‘उपवास’ कर लो, सारे पाप खत्म। सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली इसी को तो कहते हैं।

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