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सनातन राष्ट्र की अध्यात्मिक शक्ति-कवच

स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी अवतरित हुए थे।स्वामी विवेकानंद जी के अलावा भी उनके बहुत सारे दीक्षित शिष्य थे।उन सभी ने देश को बदलनें में महती भूमिका निभाई थी।उनमें से एक अखंडानंदजी थे जो सारगाछी में आश्रम बनाकर रहते थे।कभी विवेकानंद जी ने देश की पीड़ा से निकालने के लिए कामना की थी"अगर हमें कुछ योग्य राष्ट्रभक्त,उर्जावान,युवक कार्यकर्त मिल जाए तो इस देश को बदल कर रख देंगे। उनके जीते जी उन्हें नही मिले।1902 में उनका देहांत हो गया।
उसके कुछ साल बाद इस देश को 'ऊर्जावान युवक कार्यकर्ता तलाश कर एक व्यक्ति ने दी। वह समर्पित देव दुर्लभ कार्यकर्ता निर्माण का व्यक्ति-व्यक्तित्व थे संघ में द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवरकर जी।वह भी एक आध्यात्मिक संत थे जो 1906 में महाराष्ट्र में जन्मे थे।अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान थे।बाद में बीएचयू में निदर्शक नियुक्त हुए थे।अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक अत्यन्त लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे। इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने गये।लेकिन बीएचयू में संघ कार्य में थोड़ा-बहुत ही सक्रिय थे।बचपन से ही अध्यात्मिक रुझान के थे तो सत्य की तलाश में चल पड़े।उनकी दीक्षा स्वामी अखंडानंद जी से हुई थी सार गाछी में।यह स्वामी जी के अंतिम दिनों की बात है।वही वह साधु की तरह रहते थे,उसी आश्रम में सेवा-आदि करते थे।एक सन्यासी की तरह जीवन बिता रहे थे।समाधि से पूर्व एक दिन स्वामी अखंडानंद जी ने बुलाकर उनसे कहा कि तुम वापस जाओ नागपुर।महात्माओं के खेल बड़े रहस्यमई होते हैं।काल ही इसे समझ सकता है। 1937 में वो नागपुर वापस आ गए। वहां उन्हें डॉक्टर हेडगेवार मिले।जो देशभर में लघु भारत के रूप में आरएसएस खड़ा कर चुके थे।नागपुर 1925 मे हेडगेवार जी ने आरएसएस की स्थापना की थी।उस समय आरएसएस के सरसंघचालक थे।लेकिन बीमार थे। उन्होंने इन को देखा।लंबी वार्ता हुई पहले भी कई बार मिले थे।यह 1939 के आसपास की बात है।डॉक्टर हेडगेवार ने संघ कार्यकर्ताओ से सर-कार्यवाह के रूप में गोलवलकर जी का परिचय कराया।पूरे संघ में खलबली मच गई,यह अचानक हुआ था न।यह बड़ा निर्णय था।मार्तंडराव जोग ने तो संघ ही छोड़ दिया।सर सेनापति हुआ करते थे।तब सर सेनापति पद ही समाप्त कर दिया गया।21 जून 1940 ईस्वी को डाक्टर हेडगेवार जी ने देहावसान के कुछ दिन पहले ही उनको सर-संघ चालक घोषित कर दिया।1940-से 50 के बीच उन्होंने 5 सौ से अधिक प्रचारक बना डाले।उन्होंने देश के कोने-कोने,गाँव-गाँव में संघ-कार्य पंहुचा दिया।चुपचाप,निष्कामी,रूप में।'इदं नमम राष्ट्राय स्वाहा,के मंत्र की रचना के साथ उन्होने राष्ट्र-साधना सिद्धांत का प्रतिपादन किया। यह जो आज का संघ है उन्हीं गोलवलकर जी की देन है,तपस्या है।बाकी का जीवन अध्यात्मिक उन्नति के साथ उन्होंने लगातार 1972 तक संघ साधना की।संघ का वर्तमान स्वरूप उन्होंने ही बनाया। संघ का चिंतन,संघ की बनावट,संघ का स्वरूप, राष्ट्र का हित उन्होंने भविष्य में उतर-उतर कर देखा।उनको लोग गुरु जी कहते थे। वह गुरु जी जो रामकृष्ण परमहंस के शिष्यों में से एक अखंडानंद के शिष्य थे,आध्यात्मिक शिष्य थे और उसी धारा को लेकर के राष्ट्र-चेतना की स्थापना में लगे।संघ ने हजारों प्रचारक निकाले गुरु जी के प्रयासों से हजारों प्रचारक निकले।यह जीवनदानी प्रचारक जिन्होंने पढ़ाई-लिखाई के बाद, बिना विवाह के अपना पूरा जीवन राष्ट्र को अर्पित किया। राष्ट्र कार्य किया।यह संकल्पना,यह जीवन पद्धति, गुरु जी की देन थी।आप क्या सोचते हैं, हिमालय से एक संत आता है रामकृष्ण परमहंस को दीक्षा देता है,परमहंस कलकत्ता में दक्षिण काली के पास बैठकर युवकों को तैयार करते हैं।उन्हीं में से एक युवक अमेरिका जाता है, वहां हिंदुत्व,राष्ट्रीयत्व और सनातन संस्कृति के बारे में जागृति-पुनर्स्थापना करता है।दूसरी तरफ एक अखंडानंद जी बैठ के इंतजार कर रहे होते है कोई माधव सदाशिव गोलवलकर जाता है लौट कर आरएसएस संभालते है।आज के स्वरुप की कल्पना करते है।बाकी आप देख ही रहे है।तो जान लीजिये परम् योगियों की दृष्टि इस सनातन प्रवाह पर लगातार थी,भारत राष्ट्र उनकी दृष्टि से ओझल नहीं था।इसी में से गुरुजी जन्मे और वह भेजे गए थे और उन्होंने संघ खड़ा किया।यह एक आदमी के बस का नहीं था वह किसी एक सोच के बस का भी नहीं था।लेकिन उन्होंने किया।

एक तरफ ईसाई-इस्लामी और कांग्रेस का दमन मुझे आश्चर्य होता है कि संघ खड़ा कैसे हो गया। उन्होंने गुरुजी को 1948 में उठा कर के जेल में डाल दिया।गांधी जी की हत्या का आरोप लगाकर।बाद में कोर्ट ने कहा इनका क्या लेना-देना देना। बाइज्जत बरी किया।वह बाहर आये और काम में लग गए। 1950 से1972 तक उन्होंने 4000 से अधिक पूर्णकालिक कार्यकर्ता निकाले।जिन्होंने देश में चुपचाप संगठन का काम किया।उनको पता था अगर उन्होंने शोर-शराबे से काम किया तो संघ को कांग्रेस खत्म कर देगी।कांग्रेस लगातार प्रयत्न करती थी किसी तरह संघ को खत्म कर दे।तीन बार प्रतिबन्ध लगाया।कार्यकर्ताओं को सताती थी।कोई कसर नही छोड़ा समाप्त करने में।

ईरान से तूरान,किर्गिस्तान से तजाकिस्तान,ईराक,अफगान,नाइजर से नाइजीरिया,युगांडा,मिश्र,तुर्की तक दुनिया में जहां कहीं भी इस्लाम गया तो धर्म या सम्प्रदाय सोच और पूजा-पद्दति ही नही बदला एक तरह से “दूसरा अरब,ही खड़ा कर दिया गया।पुरानी चींजो और प्रणालियों,तरीको और संस्क्रति के नामों-निशा मिटा दिये गये।वह जहां भी गया “अरेबिक जीवन शैली,का विस्तार रूप में ही गया।इस्लाम के आगमन के पश्चात पुरानी यादे,नामो की बनावट,पहनावे,रीति-रिवाजों,खान-पान और पुरखो की धरोहरों और इतिहास,किताबें,इमारत्,पूजास्थल।पूरी-तरह नष्ट कर दियें।कमोबेश ऐसा ही ईसाइयों ने भी दुनियाँ भर में किया।वे भी जहां गए दुसरे को जड़-मूल से साफ़ कर दिया।यूरोप के सभी देश,अमेरिका,आस्ट्रेलिया,की पुरानी संस्कृति,अफ्रीकन कबीलो का आध्यात्मिक-तांत्रिक तेज सब इसाइयत ने नष्ट कर दिया।यह एक मजबूत “सांस्कृतिक-धार्मिक-राजनीतिक आक्रमण था।क्या अभी तक आप में से किसी ने सुना है?किसी भी खुदाई में 2 हजार,3 हजार साल पुराना मस्जिद मिला है,कोई दरगाह मिला,चर्च मिला या क्रॉस मिला,सिर्फ मन्दिर ही क्यो मिलते है?सामी आक्रमण जेहाद-क्रूसेड ने स्थानीय समाजिक ताने-बाने को बिगाड़ ही नही दिया बल्कि पूरा अतीत खा गया।अस्तित्व की वही खोज इस्लामिक देशो में खुनी जंग की शकल में प्रकट हो रहा है।इन सब से आजिज अधिकतर देश अपनी जडो की तरफ लौट रहे हैं।वे अपनी ‘स्व-अस्तित्व,के लिए आवाजें उठनी शुरू हो गई हैं।

इस्लाम-इसाइयत ई 692 से 19 वी सती तक सम्पूर्ण संसार को लील गया।100 वर्ष भीतर ही उन्होंने पश्चिम में स्पेन से पूर्व में चीन तक अपने साम्राज्य को विस्तारित कर लिया।वे जिस भी प्रदेश को जीतते वहा के लोगो के पास केवल दो ही विकल्प रखते, या तो वे उनका धर्म स्वीकार कर ले या मौत के घाट उतरे।उन्होंने पर्शिया जैसी महान संस्कृतियों,सभ्यताएं,शिष्टाचारो को रौंध डाला,मंदिर,चर्च,पाठशालाए,ग्रंथालय नष्ट कर डाले।मिश्री कला और संस्कृतियों को जला डाला। सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मचा डाला।जहां भी गया दूसरी पूजा-पद्धतियों,इतिहास चिन्हो,परंपराओ,संस्कृति के समूल नाश का के बाद स्थापित हुआ।712 ई मे मुहम्मद बिन कासिम ने भारत की तरफ रूख किया।उसके मुस्लिम आक्रमण-जीत-फिर बुरी तरह पराजय के बाद देश जाग सा गया,इसके बाद के हर आक्रमण के दौरान कम से कम दो राजे मिलकर लड़े,और दुशमनों को धूल चटाया।अगले तीन सौ वर्ष तक राष्ट्र पूरी तरह सुरक्षित रहा।10वीं गजनवी के अटैक के बाद देश एक बार फिर संभला।लेकिन 1191-92 मे तराइन के युद्ध मे मुहम्मद गौरी की जीत के बाद देश हिंदुस्तान गुलाम होता गया।इसके बाद कमोबेश मुस्लिम शासन 1757 के प्लासी,1764 के बक्सर युद्ध तक रहा मतलब अंग्रेज़ आ गए।अंग्रेज़ यानी कि ईसाई।मतलब यह की इन वर्षो मे हिंदुस्तान मे इस्लाम-ईसाई दोनों ही शासक रहे बाद के कांग्रेसी राज्य को भी आप एक तरह से समियों का काल मान सकते है।तथ्यो,प्रमाणो,और दूसरे मापको की नजर से देखा जाए तो यह 9 सौ साल हिन्दुओ के लिए पूरी तरह दासता के थे।जिसमे उनको खत्म करने का हर संभव प्रयत्न किया गया।

दुनियाँ मे जहाँ भी यह तामसी दुर्दांत लोग गये पूर्व की पूजा-पद्धति,पुरानी यादे,नामो की बनावट,पहनावे,रीति-रिवाजों,खान-पान और पुरखो की धरोहरों और इतिहास,किताबें,इमारत्,पूजास्थल,सब कुछ बदल कर रख दिया था।किन्तु हिंदुस्तान मे तीनों के हजार वर्ष कब्जा रखने के बावजूद हम हिन्दू अपने बाप-दादो की विरासत के साथ जी रहे है।हमे समाप्त करने का कोई भी ऐसा तरीका नही था जो उन्होने न अपनाया हो।हमारे राष्ट्र पर आक्रामणकारी रूप मे आए।हत्याए की,मंदिर तोड़े,पुस्तकालय नष्ट किए,विध्वंस किया,80 फीसदी तक जज़िया(धर्मांतरण से बचने के एवज मे लिया जाने वाला कर) लगा दिया वे देते रहे,तीर्थ-यात्रा कर लगाकर तरह-तरह की प्रताणनाए दी।तरह-तरह के लोभ-लालच दिये।जातीय विभाजन किया।दमन-दहन किए।देश बंटवारा किया,भूखण्ड को लगातार छोटा किया,किन्तु हमारे राष्ट्रीय भाव नही नष्ट कर पाये।बाद के शासको ने शासनो,पाठ्यक्रमो,नीतियो से मति फेरने की लगातार चेष्टा की लेकिन इतना सहन करने के बाद भी राष्ट्र के रूप हम मौजूद है।

यह अलग बात है कि संस्कृति,जन,भूमि मे से भूखंड का बड़ा हिस्सा छीन कर अलग-अलग देशो के रूप मे कब्जिया रखा है तब भी भी 'मूल भूमि, मे हम मौजूद है।यह उन्होने हजार साल के अनुभवो से सीखा था कि इस अध्यात्मिकी ताकत को हम किसी तरह नही पचा सकते।अत:रणनीतिक तौर पर छोटे-छोटे भूखंडो पर तमाम रणनीतियो से अपनी संख्या बढ़ानी शुरू की।उस हिस्से से सनातनियो को प्रताणित कर भगाना शुरू किया।50-से 75 साल के अंतराल पर हर वह भूखन्ड राष्ट्र से कट ही गया जहां हिन्दू घट गया।पहले देश के रुप मे हथियाया फिर पूरा खाली करा लिया।यह इधर के सौ सालो की युद्धक प्रवृत्ति है।जिसे सनातनी नही समझ पाये।जबकि राजा और राज़्य भी रक्षा करने वाले नही थे।इन सालो मे हमारे पुरखो ने,देश ने कभी भी गुलामी नही स्वीकारी।राजे पीढ़ी दर पीढ़ी इंच-इंच लड़ रहे थे।जंगलो मे रहकर भूखा,अभाव के जीवन मे रहकर भी उन्होने स्वाभिमान नही खोया।वे संगठित होकर नही लड़ते थे इस लिए भागना पड़ता।जान देना पसन्द करते लेकिन इस्लाम न स्वीकारते।आपको क्या लगता है अन्यों की तरह आसुरी शक्तियाँ इस राष्ट्र को निगल जाती?आपने कभी सोचा कि इतना अत्याचार-प्रताड़ना सहकर हम आज भी कैसे बचे रह गए?सत्ता उनकी,शासन उनका,सेना उनकी,हथियार वह भी पूरे 822 साल तक।हमारे पुरखो के पास तो लड़ने की कूबत तो छोड़िए रहने-खाने का ठिकाना भी नही बचा था।फिर भी हम अस्तित्व बचा ले गए कैसे? मिरेकिल ही तो। न न वामियों के तर्को पर मत जाइए वे आपको भरमाते है।अहिंसा,लचीला-पन,सहिष्णुता,कायरता,भगोड़ापन या फिर उनके बनाई दुश्मनों की उदार इमेज का शिकार मत बनिए।यह सब कोर्ष मे पढ़ाकर उन्होने आप पर इंपोज करने की है।अब केवल व्यावहारिक,और सच समझिए यदि आप बुद्दि चेतना का विस्तार करेंगे तो इसे महसूस कर लेंगे।यह केवल इतिहास ही नही है।वह फार्म शक्ति थी,अध्यात्मिक शक्तियों का ज्ञान था।

यह कुछ नया नहीं हो रहा था,राष्ट्र के हजार साल का दर्द परम चेतना महसूस कर रही थी। वहां योगी-जन,संतजन,महाजन महसूस करने लगे थे कि इस राष्ट्र को अब उबारना ही होगा। क्योंकि आसुरी आक्रमणकारी संस्कृति ऐसे चबाने के फेर में है।अब यह खत्म हो जायेगी।वे छटपटाने लगे राष्ट्रात्मा की पीड़ा महसूसने लगे।उन्होंने समाप्त नहीं होने दिया।उन्होंने देश के कोने-कोने में संत पैदा भेजे।जो लगातार प्रयास कर रहे थे कि यह बच जाए। लेकिन परकीय संस्कृति,उनकी सोच-कल्पना से परे थी।उनकी राष्ट्र-राज्य की अवधारणा अलग थी और वह उसी अनुरूप करते थे।यह जो सामी संस्कृति थी यह एक संगठित-जेहादी रूप में आई,आक्रमणकारी स्वरुप में आई।उनके यहां धर्म,राज्य और अध्यात्म तीनों एक ही चीज थी।योगी जनों को यह बात समझने में दिक्कत हुई।शुरू में वे भी यही समझे सामी चिंतन भी भारत की अन्य संस्कृतियों की तरह,सोच की तरह आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक मार्ग है।शुरुआत में वह ये बात जान- ही नहीं पाए कि यह एक मार्ग नहीं है, बल्कि 'विस्तारवादी साम्राज्यवादी संगठन,जिसने धर्म का चोला पहन रखा है। बहुत बाद में विवेकानंद जी की चेतना ने,रामकृष्ण की चेतना ने,तोतापुरी विशुद्धानंद जी की चेतना से गोपीनाथ कविराज के अंत:करण ने इस बात को समझा। यह तो संगठन की धारणा है और संगठन ना होना इस सनातन राष्ट्रीय समाज के लिए बड़ा घातक है।कलयुग में समाज का सांगठनिक स्वरूप अपने में ही एक सुरक्षा कवच होता है।वह कवच लगातार सुरक्षा करता है।लेकिन रविवारीय-शुक्रवार की ताकत खड़ा करना आसान नही था।हमारे यहां राष्ट्र,समाज,राज्य,धर्म,इतिहास,पंचांग सारी अवधारणाये उनसे अलग थी।वे विजेता और शासक बन कर आये थे वह सामी सोच से देखते थे,उसी अनुरुप सोचते थे।यह संगठित रूप में थी,हर पल,हर स्थल,हर पद्धति के लिए वह आक्रमणकारी रुप थी।अपने अंतर्गत वह किसी भी अन्य स्वतंत्र सोच,पद्दति,धारणा,को बर्दाश्त नही कर सकती थी।सबको वह खुद के अनुरूप ढालने को लेकर एग्रेसिव।

यहां धर्म,राज्य और अध्यात्म अलग-अलग चीज थी तो योगीजनों को भी समझने में दिक्कत हुई वह कोई दुनियावी लोग थोड़े ही होते है।हमारी धरती पर जीवन का मतलब था पूर्ण स्वतंत्रता।दूसरे की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं,दूसरे की पूजा पद्धति में हस्तक्षेप नही, राजा भी यह नहीं करता था।आप अपने हिसाब से जीने,खाने,पूजा करने आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए स्वतंत्र है।यहां की धारणा ही थी 'जो चाहे जिस पथ से जाएं साधक केंद्र बिंदु पहुंचेगा,। इस धारणा को तोड़ने का भाव कभी किसी में पैदा नहीं होता था।राजे आपस में लड़ते रहते थे।दूसरा विजेता आता था महल,राज्य पर काबू कर लेता था लेकिन लेकिन फसल नही नष्ट करता था।जनता की संपत्ति,औरते,लडकिया,नहीं छीनता था,बच्चे-बूढ़े नहीं मारता था,पशु-अन्न नहीं छीनता था घर नहीं चलाता था वह सैनिकों से लड़ता था।यह पाप था वह पाप नही ढोटा था।यही सर्व-मान्य नियम हजारो साल से था।आपसी युद्द राजाओ में होते थे,आपसी संघर्ष सैनिकों के होते थे,जनता के नही।दसवीं सदी में असुरों का एक नया स्वरुप भारत में आया था जो बच्चे छीनते थे,निरपराधो-मासूमो को मारते थे,धन-अन्न-पशु लूटते थे, औरतें-लड़कियां उठा ले जाते थे,मंदिर तोड़ते थे,जबर्दस्ती धर्मान्तरित करते थे।इसे समझने में ही 8 सौ साल लग गए कि यह एक डिफरेंट चीज है। यह दुश्मन खतरनाक है।बिल्कुल पूर्णतया सनातनी समाज ही बदल देना चाहती है।यह उस ड्रैकुला की तरह है जिसके रक्त पान करते ही आप ड्रैकुला हो जाते हैं।एकदम वैम्पायर। खून पीने की नई लालसा पैदा हो जाती है। आप आदमी से वैंपायर में बदल जाते हैं।यह एक नई सोच थी और इसे समझने में बहुत दिन लग गए।फिर उन्होंने सोच समझ लिया कि यहां इस देश को संगठन की जरूरत है।पर समय कहाँ था।वह समय में झाँकने लगे।फिर भी कर्म नही छोड़ा।संत-महात्माओं ने बचाने का प्रयत्न किया।गली-गली वह लड़ते थे,वह हथियार गायन था,वादन था। एक-तारा लेकर भजन गाते थे कभी भक्ति काल आ रहा है कभी योगी काल रहा है।विदेशी शासक या नहीं महसूस करता था उसे परमात्मा की चेतना से कोई लेना देना नहीं था।हमारा भारत का तो कण-कण ही परमात्मा की चेतना से विद्यमान।हर आदमी उसी की तरफ बढ़ा जा रहा है।पर वह मेटेरियल में और अध्यात्म में अंतर नहीं कर पाया अंतर नहीं कर पाया तो संगठन नहीं बनाया अब जब संगठन ही नहीं है तो उनसे लड़ कैसे सकते हो। यह जो विविधता थी,यह जो आंतरिक सौंदर्य था,स्वतंत्रता थी,अपने बचाव में लग गई।

राज्य-व्यवस्था के हारने के बाद अब उसे पता ही नहीं था उसकी सुरक्षा कैसे करनी है।तो देशभर में हजारों साधु,संत,महात्मा,योगी बाहर आए,गुह्य स्थानों से निकल निकल कर।सल्तनत काल बन गया। उन्हे पकड़ कर के कहता मुसलमान बन जाओ।पूछते वह क्या चीज है।वह कहते यह क्या चीज है शासन बोलता 'अल्लाह एक है,सन्त जन बोलते 'वह तो हम अनुभूतते ही है वह समस्त कण-कण में है,हममें और तुममे भी है,,।मौलवी-काजी बोलते की 'तुममे कैसे हो सकता है,तुम उसकी बराबरी कर रहे हो यह तो कुफ्र है।सन्त शून्य में अमरता का सन्देश देते 'उसने ही यह मौका दिया है।श्रेष्ठ कर्म कर।उनकी समझ में न आता अंतिम लाइन ऐसे होती 'दो में से एक चुनो मौत या इस्लाम,।लाखो ब्राम्हण,साधु, सन्त,महात्मा, योगी जोगी और शिष्य मौत का रास्ता चुनकर अनन्त में समा गए।वह परमात्मा के रास्ते में समा गए।वह एक संघर्ष ही था वह स्वतंत्रता संघर्ष ही था।अनंत चेतना तामसी शक्तियों से लड़ रही थी। वह जानते थे कि वह मुक्ति के रास्ते पर हैं।उस आध्यात्मिक राष्ट्र के रास्ते पर है जो युगों से यहां विद्यमान है। युगों से ही संतो, ब्राह्मणों को मारते रहे,परम सत्य वादियों को मारते रहें वह जान देते रहें। उनके लिए देह छोड़ देना सही था क्योंकि इसी धरती पर उन्हें पुनर्जन्म लेना था।वह पुनर्जन्म ले ले कर के आसुरी शक्तियों से लड़ते थे,।पूरे एक हजार साल परम-चेतना सम्पन्न योगी असुरो से लड़-कर सनातन व्यवस्था बचाते रहे।

भुला देना आसान है,कि हमारे पुरखों ने क्या त्याग किया।अब जरा कल्पनाए करके देखिये विजेता दुश्मन, सब कुछ लूटने के बाद शासक बन कर सर पे सवार है और आपका धर्म-स्ंप्रदाय उसके रहमो-करम पर है।धर्म-नष्ट करना उसका टारगेट है..फिर कौन सी शक्ति उस धर्म-वेदना की रक्षा कर रही थी?इतनी सहन-शक्ति का आत्मबल कहाँ से आ रहा था की लोग प्राण दे देते लेकिन धर्म न छोडते?असल मे सामी आक्रमण-कारियों की भौतिक-वादी अध्यात्मिकता-धार्मिकता के दर्शन के साथ आया था।वह भव्य-शाली रूप मे सम्मुख दिखता था।पराजित भारतीय समुदाय के सामने कर्म की श्रेष्ठता,चरित्र,और पुनर्जन्म की धारणा के साथ त्याग-वाद के आदर्श दिखने जरूरी थे।क्योकि युग-युगीन समाज के अपनी धारणा पर टिका रहने के लिए कुछ ठोस वजूद सामने होना ही प्रेरणा का कारण होता।अत्याचारो,पीड़ाओ से लड़ने की क्षमता-प्रेरणा मिली उस काल मे उत्पन्न हुये महान संतो से।इस पूरे कालखंड मे समय-समय पर हजारो साधुओ-संतो ने देश भर मे हिन्दुत्व और सनातन विचारो का लगातार अलख जगा रखा था।जोगी-साधु गाँव-गाँव शहर-शहर,जंगल-जंगल इकतारा लिए घूमते,कथा गाते,धर्म से जोड़े रहते।अमरत्व के यह संदेश लोगो को अपने धर्म से जोड़े रखता।तरह-तरह के कष्ट सहकर वे जुड़े रहते।
19वीं सती मे रामकृश्न परमहंस,विवेकानंद,केशव सेन,मास्टर जी,बाल गंगाधर तिलक,महादेव गोविंद रानाडे,स्वामी दयानंद सरस्वती,राममोहन राय, महरषि अरविन्द,महर्षि रमण आदि सारे नाम इस लिए प्रसिद्द है कि वे केवल समाज सुधारक बन कर नही पैदा हुए बल्कि कहीं ना कहीं से आध्यात्मिक ऊर्जा दे रहे थे।"वयं राष्ट्र जागृयाम पुरोहिता,कहकर, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार से आत्मविश्वास का जागरण देश के हर एक हिस्से में होना शुरू हुआ। ईसाई मिशनरियों और इस्लामिक मदरसों के रिएक्शन में जगह-जगह गुरुकुल संस्थाएं,आश्रम,डीएवी स्कूल और शिक्षा प्रसार का काम शुरू हुआ।समाज में बहुत सारे कथावाचक तैयार हुए,बहुत सारे प्रवचन देने वाले संत तैयार किए जो देशभर में घूम-घूम कर सनातन धर्म के स्वरूप का रक्षण-संरक्षण का कार्य कर रहे थे।उनके योगदान और संघर्ष को हम नकार नही सकते।हजारो ज्ञात-अज्ञात-अनाम-बेनाम,निष्कामी सन्यासियों,त्यागियों ने समाज के लिए उतना ही त्याग किया है जितना कोई 'समुराई योद्धा,करता है।बहुत सारे युवक ऐसे थे जिन्होंने विवाह-शादी नहीं किया,अपना परिवार नहीं बसाया और संपूर्ण जीवन घूम घूम करके देश के कोने-कोने में राष्ट्र साधना करते रहे।उनकी साधना का परिणाम है कि हम आज हिंदुस्तान के रूप में अपने पूर्वजों के दिए हुए नाम-गौरव,स्वाभिमान और संस्कृतियों के साथ जी रहे हैं।

संत कीनाराम,संत अवधूतराम,देवरहा बाबा,नेम-करौली बाबा आदि न जाने कितने साधू,संत,योगी,वैरागी,नाथ,मणि,अघोरी,सन्यासी,जोगी,जोगड़े,तांत्रिक,मांत्रिक,साधक,चारी,घुमक्कण,पंडे,पुजारी सभी हजार साल तक राष्ट्र जोड़ने-जागरण में सतत प्रयास कर रहे थे।उस 'भीषण त्राण काल,में उनका योगदान अतुलनीय है।उनके ऋण हम कभी चुका भी नही पाएंगे।लाहिड़ी महाशय,स्वामी योगानंद,महावतार बाबा जी,परमहंस विशुद्धानंद,केदार मालाकार, योग प्रकाश ब्रह्मचारी,राम ठाकुर,कालीपद गुह्य राय,सोहम सिद्ध बाबा,पागल, साधु काली नाथ बाबा, योगत्र्ययानंद,मां आनंदमयी,शोभा मां,लोकनाथ ब्रह्मचारी,सतीश चंद्र मुखोपाध्याय,अंधा-मास्टर,नवीन आनंद,योग़-मयानंद चैतन्य,स्वामी ब्रह्मानंद,हरिहर नाथ बाबा,स्वामी निश्चलानंद,तरुणी कांत सरस्वती, केशवानंद, तारकेश वर्मा, बालानंद ब्रह्मचारी, भूपेंद्रनाथ सान्याल,डॉक्टर भगवान दास, मधुसूदन ओझा,कमरू बाबा, निर्विकल्प आनंद तीर्थ स्वामी, पुलिन ब्रह्मचारी,स्वामी प्रेमानंद,सच्चा बाबा, टूड़ीपार बाबा,मेहेर बाबा, सत्य साईं बाबा, आदि महा अनुभूतियों से सम्पन्न महात्मा भारत देश के कोने-कोने में पैदा हुए।यह सभी ईश्वर (उस परम ऊर्जा) के साथ प्रत्यक्ष साकार हुए थे।उन्होंने अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा से पूरे देश के कण-कण में सनातन ईश्वरीय कण पुनः विद्यमान व्याप्त कर दिये।उनके लाखों-लाख शिष्य,लाखों-लाख भक्त उनके चेतना के साथ प्राचीनतम राष्ट्र से जुड़ कर नाद कर रहे थे।यह नाद हमको गहन सुरक्षा दे रहा था।आप गोपीनाथ कविराज जी की साधना को क्या कहेंगे जिन्होंने हर पढ़े-लिखे में सहज-सत्य अध्यात्म,सत्य,तंत्र,योग के सूक्षम पहलू को दिखाया,अंतर्नाद को जगाया जो युगों से प्रवाह धारा के रुप में चला रहा था क्या राष्ट्र सेवा नही थी।अगर परम् ऊर्जा सचेत नही रही होती तो हजार साल के महा-भौतिक सत्तात्मक दबाव से हिंदू राष्ट्र का बच पाना संभव ही नही था।'आटो-बायोग्राफी आफ दी योगी,मे योगानन्द जी ने उस समय कि विभूतियों के विषय मे विस्तार से लिखा है।उन महान संतो की लीलाओ पर मशहूर पत्रकार पाल ब्रन्टन ने 'सर्च आफ सेक्रेट इंडिया,नाम से एक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी है।वह खुद गुहयतम स्थानो पर जा-जाकर उनसे मिलते थे।

बनारस के एक प्रकाशन ने 14 भागो में 'भारत के महान योगी,नाम से 7 जिल्द में वह पुस्तके छापी थी।अगर कोई पढ़ना चाहे इन किताबो में उन सभी संतो की जीवन कथाएं,आध्यात्मिक उपलब्धियां और उनकी अनुभूतियों का स्तर तत्त्थ्यात्मक रूप में पढा जा सकता है।उनके त्याग और साधनाओ के स्तर ने देश,भूमि को धर्मांतरण/मतांतरण से बचने की ताकत दी।अनंत कोटि जगत, भूत-भविष्य-वर्तमान सहित, स्वप्रकाश महाचैतन्य रूप में वही गुरु की तरह भारत भूमि की धरती पर व्याप्त रहा।जो तलवारों की मार से,शासन के अत्याचार से बमों हथियारों की शक्ति,से और दुश्मनों के आक्रामक व्यवहार से केवल बचा ही नही रहा था बल्कि सहन के साथ अपनी आस्था से जोडे हुऐ था।लगातार हजार साल तक करता रहा।उनकी प्रेरणा शक्ति हिंदू भूमि में व्याप्त हो गई और लोगों में सहन करने की ताकत आ गई।

योगी गोगादेव जाहर वीर (950 ईस्वी),संत झूलेलाल (10वीं सदी)सिंध प्रांत (पाकिस्तान),सन्यासी पीपा (1379 से 1490,बाबा रामदेव (1352-1385,बाबा हड़बू (1438-89 ई.),बालक नाथ,भैरो-नाथ,अघोरनाथ,गुरुनानक (1469-1539),संत धन्ना (1415 ईस्वी में)वीर तेजाजी महाराज(29-1-1074 से 28-8-1103),संत नामदेव : (1267 में जन्म)महाराष्ट्र,संत ज्ञानेश्‍वर सन् (1275 से 1296 ई.),पाबूजी (1362) विक्रम संवत 1313 में जोधपुर, मेहाजी मांगलिया राजस्थान की प्रेरणा बने,हितहरिवंश (1502- 1552),संत भीखादास,वल्लभाचार्य (1479-1531 ईस्वी),गुरुगोविंद सिंह (1666 से 1708)चैतन्य महाप्रभु (1486- 1534, विट्ठलनाथ (जन्म- 1515 वाराणसी; मृत्यु- 1585 गिरिराज), संत सिंगाजी महाराज : (1631-1721,हरिदास : (1478 ई. जन्म और मृत्यु 1573,दूलनदास (जन्म- 1660 ई.लखनऊ; मृत्यु- 1778 ई.,महामति प्राणनाथ : (1618-1694) महामति प्राणनाथ के समय में औरंगजेब का शासन था।महामति प्राणनाथजी ने बुंदेलखंड की रक्षा के लिए महाराजा छत्रसाल को वरदानी तलवार सौंपी थी तथा बीड़ा उठाकर संकल्प कराया था कि जिससे महाराज छत्रसाल पूरे बुंदेलखंड की रक्षा कर सके और बुंदेलखंड को जीत सके।संत एकनाथ(1533 ई.-1599 ई.), रामानंद : (1299 ई. से 1410 ई.) : वैष्णवाचार्य स्वामी रामानंद का जन्म प्रयाग में हुआ था। अनंतानंद, संत कबीर, सुखानंद, सुरसुरानंद, पद्मावती, नरहर्यानंद, पीपा, भावानंद, रैदास (रवि दास) धन्ना सेन आदि इनके शिष्य हुये जिन्होंने पूर्ण-धर्म स्थापित किए।दादू दयाल (जन्म 1544 ई. - मृत्यु 1603 ई.) संत गरीबदास (1579-1636) दादू दयाल के पुत्र थे। ये गुजरात के प्रसिद्ध संत थे। इन्हें हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी भाषा याद थी। दादू के संत रज्जब, प्रसिद्ध कवि हुये थे।उन्होने पाकिस्तान के सिंध तक अपना प्रभाव छोड़ा।इलाहाबाद मे पैदा हुये मलूक दास : (1574 से 1682)मध्यभारत के वन-वासियो मे राष्ट्र भाव जगाया।पूर्वी यूपी और बिहार मे राम-नाम की जोहार शुरू की संत पलटू ने।चरणदास (1703-1782),महिला संत भी पीछे नही थी सहजो बाई (जन्म 1725 ई.- मृत्यु 1805 ई),मीरा-बाई,दया बाई ने भक्ति-काव्य के जरिये चेतना पैदा की।
धर्म के लिए ऐसे-ऐसे मठ बने जहाँ व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था।ऐसे मठों अखाड़ा कहा जाने लगा।आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए। शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें ४० हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया।अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।देश भर मे ऐसे उदाहरण मिलेंगे।सबसे गज़ब प्रेरणा-वतार थे समर्थ गुरु रामदास(1608-1681। वीर शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास का जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले के जांब नामक स्थान पर शके 1530 में हुआ।वे राम और हनुमान के भक्त और थे।उन्होने गाँव-गाँव मे अखाड़ो की स्थापना की लहर पैदा की।हर युवक को वह देश की आजादी का संकल्प करवाते थे।शिवा को उन अखड़ो से ही वफादार,देशभक्त लडाके मिले।जब उन्होंने शक संवत 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली उस वक्त उनके शिष्य ने देश का एक हिस्सा आजाद करवा लिया था।
उधर पूर्वोत्तर भारत मे गोरखपुर और असम को केंद्र बनाकर नाथ संप्रदाय के हजारो जोगी इकतारा लिए योग-ज्ञान,अमरत्व और हिन्दू चेतना लगातार जगाए हुये थे।उनका विस्तार केवल पूर्वी भारत ही नही मिजोरम,नागालैंड,अरुणान्चलप्रदेश,तिब्बत,सिक्किम,मणिपुर,मेघालय और त्रिपुरा तक था।आज भी निरंतर घूमते रहना-जोड़ते रहना उनकी प्रवृत्ति मे है।भारत के पूर्वी हिस्से मे आज भी कई गांवो मे जोगीगीत होते रहते है।

अगर आपके पंजाबी मित्र है तो आपने देखा होगा कि किराये के मकान मे रहते हुये भी वह पहले गाड़ी खरीदेगा।मकान बाद मे खरीदता है।प्राय: आदत देखते होगे,वे बड़ी मस्ती से सब कुछ खा-पीके खर्च कर डालते है।बचाने की कुछ भी कोशीश नही करेंगे।हमेशा मस्त-मेहनती-खुशदिल।किन्तु इसी में से कई ऐब भी पनपे है। जानते हैं यह आदत कैसे पनपी?लगातार आक्रमणों से।दसवी से उन्नीसवी सताब्दी तक उस भूमि ने 12 सौ से भी आक्रमण झेले।आनंदपाल से लेकर पानीपत के तृतीय युद्द तक आक्रांता उन्हे लूटते,खसोटते,बर्बाद करते।खूब लड़ते, जान दे देते थे।पर संगठित दुश्मन।उर्वरा भूमि थी लूटने के बाद कुछ ही सालो मे फिर सुखी जीने-खाने लायक हो जाते।लगभग हर पाँच साल मे जिस भूखंड ने दुख-मौत झेली हो वह भला क्यो कल की चिंता करे।कब कौन डाकू धार्मिक वेश मे आकर लूट ले जायेगा इसका ठिकाना नही था।तो उन्होने एक नई आदत विकसित कर ली।लूटने के लिए कुछ रखो ही मत।सब खापीकर कर आज ही खत्म कर दो।गुरुओ ने इसी आदत मे से सब कुछ दान देने की प्रवृति विकसित की।यह जो पूरे देश मे जगह-जगह लंगर छ्कते हैं न।सब अकेले पंजाबी देता है।यह त्याग की प्रकृति उसी वर्तमान मे रहने की आदत से उपजी है।यह उनकी मस्त जीवनशैली भी वही स्वतन्त्रता संघर्ष है।जिसने एक आदत डालकर अपने को बचा लिया।सिख 'शिष्य, शब्द से निकला है।मुगल काल में अत्याचार चरम पर पहुँच गया था तब इस पंथ की स्थापना “हिन्दू समाज, की रक्षा के लिए की गयी थी।पूरे 8 साल तक(1984-1992)देश भर में इस “रक्षक समुदाय,, को किसने और कैसे दुश्मन बना दिया था।भला हो संघ इस बात को समझ गया।पांच सौ साल के रक्षको को कितना दर्द भुगतना पड़ा।महज एक 'राजवंश, को सत्ता में बनाये रखने के लिए।कभी सोचा है?सत्ता में बने रहने का हवस कितना खून पीता था “कतरा-कतरा।गुरु नानक से लेकर,गुरु तेग बहादुर,गुरु गोबिन्द सिंह उस अध्यात्म चेतना से निकले थे जो राष्ट्र की रक्षा के लिए उपजते है।उनके इस प्रयास ने भारत के पश्चिमी हिस्से मे धर्मान्तरण पूरी तरह रोक दिया।अगर आज पंजाब मे हिन्दू/सिख/बौद्ध बचा हुआ है तो सिखो की उस शौर्य/त्याग/बलिदान की वजह से।अपने बाल-बच्चे राष्ट्र की बलिवेदी पर चढ़ा दिये।

हमारे सनातनी पुरखो ने धरम बचाने का हर तरीका अपनाया।दूर-दराज के जंगलो मे जाकर वनवासी बन गए।ऊंचे पहाड़ो पर जाकर कष्ट-पूर्ण जीवन जीने लगे।लेकिन अपना धर्म न छोड़ा।शहरो मे अंत्यज जातियो मे बदल गए।वे जवान लड़किया छीन लेते थे तो बाल विवाह(वह भी रात मे)करना शुरू किया।रानियाँ जौहर/सतीत्व करके अपना शील बचाती।वे उपजाऊ खेत छीन लेते थे तो खेतो की बदल प्रणाली अपना ली गई।बंजर जमीन जैसे शब्द वही से उपजे।शिक्षा के नगरीय सेंटर बर्बाद कर दिये गये मठीय पद्धति अपना ली।गांवो मे पंडितो ने एक व्यक्तिकेंद्रित पाठशालाए खोलनी शुरू की जिसे एकल शिक्षा केंद्र कहते है।यह इसी काल मे जन्मी जिसके कारण उच्च शिक्षा और शोध-कार्य खत्म ही हो गया।लिस्टिंग करिए ऐसी हजारो परम्पराए केवल सनातन-जीवन प्रणाली बचाने के लिए जन्मी।यह सब कुछ अपने अस्तित्व को बचाने का संघर्ष ही मानिए।
गुह्य स्थानो को छोड़ दिया जाए तो गुलमाइ काल मे बड़े मंदिर और अन्यो के उपासना स्थल तोड़ दिये जाते थे इसलिए कालांतर मे मंदिर बनाने के बजाए भक्ति-भजन-कीर्तन जैसी चीजे अपनाने लगे।इस काल मे भव्य-हिन्दू स्थापत्य ही खत्म कर दिया गया। भक्तिकाल के गीत और कविताए उसी की देन है।सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश,गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, नरसीदास, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु आदि-आदि देश के हरेक कोने मे यह स्वतन्त्रता संग्रामी ही थे।भारत भूमि के किसी भी भाषाई हिस्से मे चले जाइए।ग्यारहवी शती से 19वीं सती तक कोई न कोई ऐसे भक्त-कवि मिल जाएंगे तरह-तरह से भक्तिकाव्य रचकर सनातन के प्रति प्रेम की शक्ति पैदा की थी।जन-जन मे उनके रचे गीत हिन्दुत्व का प्राण जागा रहे थे।यही प्राण-शक्ति इस्लामिक तलवारों से लड़ रही थी।उनकी अध्यात्मिक चेतना ही राष्ट्र की सुरक्षा कर रही थी।

इन बातों में भी सबसे आश्चर्यजनक बात है कि वह ज्यादातर सन्त-महात्मा आज की पिछड़ी, निचली,दलित कही जाने वाली जातियों में से आगे आये।अधिकतर सन्यासी लोग उनलोगों में से ही ऐसे संत,महात्मा निकले जो ज्यादा पीड़ित थे और कमजोर पड़ने लगे थे।ज्यादातर ऐसे ही संतो ने हिंदुत्व की रक्षा की।उन्होंने ही जाति,धर्म,समाज की पुनर्रचना में अध्यात्म के प्राण फूंक दिए।स्वतंत्रता के बाद उन असल संग्रामियों को पिछड़ा,दलित और शोषित कहकर के अपमानित करने की साजिशे होनी शुरू हो गई।सिखों से लेकर जिस किसी ने भी वाह्य आक्रमणकारियों से मुकाबले का सैद्धान्तिक प्रयत्न किया सभी को कांग्रेस सरकारे हिन्दू-धारा से अलग बताने में लग जाती।हिन्दू-समाज के विखण्डन का प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिये।इस पर लिखा जाना अत्यंत आवश्यक था।मुझे लगता है इतिहास पाठयक्रमोमें इस पर एक चैप्टर अनिवार्य रूप से पढाया जाना जरूरी है।हम आज जो क़ुछ भी बचे हुये हैं उनकी त्याग,तपस्या,साधना और दिव्य दृष्टि की वज़ह से हैं।अनन्त की गहराइयों तक,प्रलय काल तक इस हिन्दुभूमि-पुण्यभूमि को बचाने-सजाने वाले आएंगे।तप,त्याग और घनघोर साधना से उत्पन्न ऊर्जा कवच रूप में इसकी रक्षा करती रही है।क्योकि इसके प्रेरणा स्रोत अवतार लेते हैं,लेते रहेंगे।ईश्वरीय शक्तिया इसकी कवच रही है जिससे हम बचे रह सके।उनके प्रति कृतज्ञता होगा यदि हम इस हिंदू राष्ट्र के प्रकाश से दुनिया को रोशनी दे सके।जिससे यह दुनिया शांति समृद्धि और सुख से रहत अर्थ,धर्म,काम,मोक्ष की जीवन पद्धति को अपना सकें।

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