डर लगता है
तीन वर्ष पहले लिखी एक गज़ल
डर लगता है
मत कर मेरे दोस्त तन्हा जीने की बात डर लगता है,
खामोशी का नया शोर सुनाती है हर रात डर लगता है.
जब से देखा था नई दुल्हन को अर्थी पर जाते हुए,
निकलती है गली से कोई बारात तो डर लगता है.
मेरी हैसियत ना थी की निगाह भी तुम तक पहुँचे,
आज तेरे हाथों में लिए हूँ हाथ तो डर लगता है.
दहलीज़ पर रखा था कदम वज़ूद की तलाश मे,
डसने को खड़े है अजगर कही नाग, डर लगता है.
मुझे खुदा ने बख्शा दरिया मुहब्बत का कसूर मेरा नही,
हाथ ले के तलवार न पूछो मुहब्बत की जात, डर लगता है.
इश्क़ तेरा मंज़ूर कैसे करूँ ऐ महलो के मालिक
तौले न कहीं दौलत से मेरे जज़्बात, डर लगता है.
दुनियाँ ख़ुदग़रज़ी की है देखा है मैने जाना है मैने,
कहीं तू भी ना बदल जाये जो बदलें हालत, डर लगता है.
वजूद अपना इक चिड़िया से भी कम लगता है,
जब देखती है लड़की बाज़ों को लगाए घात, डर लगता है.
ग़रीब का कलेजा धक से रह जाता है जब बुलाते है
ऊँची कोठियों वाले इज़्ज़त के साथ, डर लगता है.
Madhu Singh