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पिछला भाग यहाँ पढ़ें - लल्लन भैया - "द सुपरकूल GUY" भाग-1

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(3)

लल्लन भैया को देखदाख के पिंकिया के पापा रामकुमार पांडे और ओकर भैया लक्ष्मीनारायण दोनों अपने घर चले गए, घर पर पहुंचते ही पिंकिया की अम्मा ने सबसे पूछताछ चालू किया, कैसा है लड़िका, लड़के की अम्मा कैसी है, साफ सफाई रखते हैं घर में कि नहीं, घर कितना लम्बा चौड़ा है, कितने बीघे खेत हैं । यह सब सवाल पिंकिया के अम्मा ने बाप बेटे से पूँछा, पिंकिया के पापा ने उनको सब कुछ विस्तार से बताया । उनके हर सवाल के जवाब दिए । हर सवाल के जवाब सुनने के बाद पिँकिया की अम्मा के चेहरे पर संतुष्टी के भाव थे । पिँकिया अंदर घर में अपने पढाई लिखाई में व्यस्त थी और इधर बरामदे में ये सब बातचीत चल रही थी । पिंकिया को ई सब के बारे में कुछू पता नहीं था ।

पिँकिया की अम्मा पूरा विवरण लेके ख़ुशी ख़ुशी खाना बनाने चली गयीँ, अंदर आयीं तो पिँकिया ने कहा " अम्मा हम कछु मदद् करे का ?" " अरे नाही बेटा, हम बनाई लेब तू जाओ पढाई करो " अम्मा ने पिँकिया को कहा । पिँकिया पढ़ने चली गयी और पिँकिया की अम्मा किचन में चली गयीँ । तभी पिंकिया के पापा घर में आये और पिँकिया की अम्मा को बुलाने लगे, पिँकिया की अम्मा इनका आवाज़ सुन के आयीं । तो उन्होंने कहा"अरे ई लो बात करो, पिँकिया के मौसी का फ़ोन आया है " पिँकिया की अम्मा ने फ़ोन लिया और बात करने लगीं। कुछ देर बाद जब फ़ोन पर बात हो गयी , तो पिँकिया के पापा पूंछने लगे "का कह रहीँ थी पिंकिया के मौसी ?" "अरे उ दिनेसवा के जन्मदिन है न परसों तो कह रहीँ थी कि पिँकिया को भेज दो " पिँकिया के अम्मा बोलीं । " ठीक है त भेज देव कल" पिँकिया के पापा ने कहा । दिनेसवा पिँकिया के मौसी का लड़का था । उसके जन्मदिन पर हमारा भी निमंत्रण था, हम गए उसके घर पे तो देखा कि पिँकिया ही सबको खाना परोस रही थी, हम भी जाके बैठ गए खाना खाने के लिए । पिँकिया एक थाली में खाना परोस कर लायी, और मुझे बड़े गौर से देखकर आगे थाली रख दी ।

हमने खाना खाया और फिर बाहर नल पर हाथ धोने चले आये, हम हाथ धो ही रहे थे कि पीछे से किसी ने मुझे धीमी आवाज़ में बुलाया हम पलट के देखे तो पिँकिया खड़ी थी, एकाएक उसको देखकर मैँ सकपका गया, तभी उ उ अपना मूड़ी नीचे कर के हमारे हाथ में एक कागज़ का टुकड़ा थमा दी और बोली धियान से पढ़ लेना, और फिर मैं कुछ कह पाता वह वहाँ से चली गयी । हम उ पर्ची को खोल के देखे तो उसमे लिखा था "शाम को चार बजे कुएँ के पास मिलना, कुछ बात करनी है तुमसे " हम हतप्रभ हो गए कि आखिर पिँकिया हमको का कहना चाहती है और चार बजे का इन्तिज़ार करने लगे । मोबाइल में टाइम देखा तो अभी ढ़ाई बज रहे थे । हम घर पर गए, थोड़ा आराम किया और फिर साढ़े तीन बजे कुँए के पास पहुँच गए , पिँकिया का आशा देखने लगे, उस वक्त कुएँ के पास कोई नहीं होता था और सायद यही वजह था उसके चार बजे बुलाने का ।

पिँकिया अपने कहे के मुताबिक़ ठीक चार बजे आई, आते ही हमसे बोली" कबसे खड़े हो यहाँ पर ?" हमने हकलाते हुए कहा"अभी अभी आएँ हैं, आपके आने से पहिले," उ बोली " तू अबही तक नाराज हो हमसे ?" "हम तुमसे नाराज काहे होंगे" हमने कहा । "अरे वही जब तुम हमरे वजह से मार खाये थे, सच कहूँ त हमका बाद में बहुत बुरा लगा था, सोचे थे कि कभी मिलोगे तो माफ़ी मांग लेंगे पर तुम हमको मिले ही नहीं, जब कबही दिखते भी थे तो दूर से ही भाग जाते थे, ई भी कुछ हद तक ठीक था लेकिन ई जो दो साल पहिले तुम पढ़ने के लिए बम्बई चले गए तब से तो एकदम चौथ के चाँद हो गए, एक बार चले गए तो लौट के अब आये हो, खैर ई सब छोड़ो तू हमका माफ़ कर दो खाली हमर गलती के लिए ।" हम सकुचाते हुए कहने लगे "काहे हमका सर्मिंदा करती हो, माफ़ी मांग के, हम गलती भी तो किये थे न !" "हमें उ सब नहीं पता तुम एक बार बस कहि देव अपने मुह से कि तू हमका माफ़ कर दिए हो ।" "माफ़ कर दिए हम, अब खुश हो !" हमने पूँछा । पिंकिया मुस्कुराते हुए बोली "हाँ" और फिर धीरे से एक कागज़ का टुकड़ा हमरे हाथ में देके तेज़ी से भाग गयी ।

हमने कागज़ का टुकड़ा खोल तो देखा उसमेंं ऊपर एक फ़ोन नंबर लिखा हुआ था और न उसके नीचे लिखा हुआ था " ई हमारा फोन नम्बर है कभी दिल करे तो फ़ोन कर देना बम्बई से।" आज हम मारे खुसी के फूले न समा रहे थे, कल तक जो पिंकिया हमारे लिए दहसत का पर्याय बनी हुई थी वही आज हमारे लिए कुछ और बन चुकी थी । काफी देर तक तो हम कुएँ के किनारे बैठे रहे और फिर सूर्यास्त होता देख कागज़ के टुकड़े को जेब में रखे और बड़े प्रसन्नता से अपने घर की और चल दिए । आज हम कुछ अलग ही महसूस कर रहे थे, जो इसके पहले कभी महसूस न किये थे । और उधर हमारे लल्लन भैया फेसबुक पर एक फाड़ू फोटू एक दबंग स्टेटस के साथ "फीलिंग कूल विथ रामनरेश एण्ड फिफ्टी अदर्स" लिख के अपलोड कर चुके थे ।

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(4)

अब मैं अपने घर को पहुँच गया था, लेकिन अभी तक दिमाग में पिंकिया का ही चेहरा घूम रहा था । पिंकिया से बात करके मैं आज बहुत ही खुश था रात को खाना खाने के बाद बिस्तर पर लेट गया और फिर से पिँकिया के बारे में सोचना चालू, उसकी मासूम आँखे आज थोड़ा शरारती लग रहीं थी, उसकी जुल्फ़ें, इसके कान की बाली, हम यही सब सोच रहे थे विचारों का एक धक्का सा लगा ।

अरे ई का कर रहे हो , तुमको मालूम नहीं का, पिँकिया की शादी होने वाली है लल्लन भैया से ?

अरे हाँ ई तो हम भूल ही गए थे, फिर का करें ?

करना क्या है, नंबर फाड़ के फेंक दो, आज के बाद फिर कभी मत मिलना उससे।

अरे ऐसे कैसे छोड़ दें ? जिस का इंतज़ार बचपन से कर रहे थे, वह आज इतनी सहजता से मुझे मिल रही थी उसे यूँ ही छोड़ दें !

तो ठीक है मत छोड़ो, लेकिन अपने दोस्त के विश्वास का क्या करोगे ? तुम्हे पता है कि एकबार अगर तुमने यह गलती कर दी, तो लल्लन भैया के नज़र में तुम्हारी कैसी छबि जिंदगी भर के लिए अंकित हो जायेगी !

ठीक है । हम सुबह होते ही लल्लन भैया के पास जाकर उनको सब बताएँगे और पिँकिया का नंबर उनको दे देंगे ।

अरे ऐसे कैसे किसी लड़की का नंबर किसी दूसरे को दे दोगे? उसने तुम से बात की है, लल्लन भैया से नहीं ।

हाँ ये बात भी सही है । तो हम अभी पिँकिया को फ़ोन करके सब बता देते हैं, और अगर पिँकिया ने कहा तो सुबह लल्लन भैया को जा कर उसका नंबर दे देंगे ।

हाँ ये ठीक रहेगा ।

मैं विचारोँ के इस तूफान से बाहर आ गया था, और काफी देर यूँ ही बैठा रहा, फिर मोबाइल उठाया और पिँकिया का दिया हुआ नंबर डायल किया, पर उधर से मोबाइल स्विचओफ़ बता रहा था, फिर से लगाया फिर न लगा, ऐसे कई बार ट्राई किया फिर सोचा कि अब पिँकिया से का पूछना जब उसका बियाह लल्लन भैया से ही होना है ! कल सुबह जाके लल्लन भैया को उसका फ़ोननंबर दे देंगे और कह देंगे कि पिंकिया ने तुम्हें अपना नंबर दिया है । और फिर आँख में आँसू भरे हम नींद आने का इंतज़ार करने लगे ।

एक मधुर स्वप्न निद्रा की छाँव में जाने से पहले ही टूटता बिखरता हुआ प्रतीत हो रहा था !

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(5)

हम सुबह साढ़े नौ बजे उठे, नहा धो कर चाय पानी पीकर भारी मन से लल्लन भैया के घर उनको पिंकिया का नंबर बताने चल दिए । उनके घर पहुंचे तो देखा सब लोग चुपचाप स सर पे हाथ रखे बैठे हुए थे, हमने लल्लन के पिता जी से पूँछा "चाचा लल्लन भैया कहाँ हैं ?" "मर गवा ससुर" चाचा ने जवाब दिया । "अतना गुस्सा में काहे लग रहे हो चाचा कछु हुवा है का " हम पूँछे । "अरे एतना बढ़िया रिश्ता आया था, सब पोढ़ पक्का हो गया था,लेकिन ई लल्लनवा की वजह से सब खत्म हो गया " चाचा बोल पड़े । "अरे ई सब कब हुआ चाचा, और ईमें लल्लन भैया का क्या हाथ ?" चाचा गुस्से में बोले "अरे हमरे राजा साहेब(लल्लन भैया) फेसबुक चलाते हैं न , बड़के कूलडूड बनते हैं, अब कल उ पिंकिया के भाई लक्ष्मीनारायण फ़ेसबुक कुछू होता है मोबाइल में वही चला रहा था, और वहीँ पर हमरे सुपुत्र जी को देख लिया फ़ेसबुक पर ये न जाने का का लिखे हुए थे,

"छोरी अपने बाप को बोल फेसबुक और वाट्सअप खोल के देखे, उसका जमाई स्टार है "

"सुन पगली तू अकेले न बाज़ार जाया कर, मेरे दोस्त बोलते हैं भाई तू कँहा है, तेरी वाली यहाँ है,"

"तेरे कितने भी हट्ठे कट्ठे भाई होँ, रहेंगे तो मेरे साले ही "

ई सब पढ़ि के उ गुस्सा हो गया और अभी फ़ोन किया कि आपका बेटा बहुत छिछोरा है, और हम ऐसे छिछोरे के हाथ में अपनी बहिन का हाथ नहीं देंगे । अब तुम्ही बताओ बेटा हम का करे ?"

ई सुनके हम मन ही मन भगवान् को धन्यवाद बोले और सोचने लगे कि "क़िस्मत नाम की चीज़ सच में होती है, कल पिंकिया को फ़ोन नहीं लगा और आज ई सब हो गया"हमको भीतर ही भीतर प्रसन्नता हुई लेकिन थोडा दुःख भी था,

हम चाचा को बोले " कोई बात नहीं चाचा, अबही लल्लन भैया कि उम्र थोड़ी न बीत गयी है, वही शादी न होगा, अरे वो न करेंगे तो कोई और आएगा, आप टेंशन मत लीजिये ।"

और फिर हम लल्लन भैया के पास गए उनको सांत्वना दिया, और फिर वहाँ से चले आये ।

उसके दूसरे ही दिन लल्लन भैया लखनऊ निकल लिए पढ़ने के लिए और हम भी दो तीन दिन बाद बम्बई चले आये । आने के दो तीन दिन बाद हमने पिंकिया को फोन लगाया, और कुएँ पर जो बातेँ बाक़ी बची थी, उन्हें आज हम दोनों ने दिल खोल के कह ही दिया, कुछ हमने इज़हार किया और कुछ उसने । ऐसे ही करीब छः सात महीने हो गए, एक दिन हम पिंकिया से बात किये ऊके बाद में हमको अचानक ही लल्लन भैया की याद आ गयी, हमने सोचा क्यूँ न लल्लन भैया को फेसबुक पर ढूंढा जाए ,लल्लन टाइप करने पर कई नाम आये पर लल्लन भैया न दिखे, फिर हमने लालकेश्वर प्रसाद सुक्ला लिखा तो लल्लन भैया मिल गए, लेकिन उ अपने नाम के पीछे अब "बेदम" लिखे हुय थे, बहुत समय पहिले इन्होंने ही बताया था कि मैं अपने नाम के पीछे "कूलGuy" हमेशा लिखता हूँ ।

आईडी पर गए तो देखा कि अब वह दर्द भरी सायरी लिखने लगे थे, बायोडेटा में लिखा हुआ था "तुम्हे क्या लगता है कि, हम बेवफाई के कायल नहीं, अरे तेरे इश्क़ में मर जाएँ, हम भी इतने पागल नहीं ।"

और इस तरह एक चरमत्व को प्राप्त कूलडूड अब एक उम्दा किस्म का शायर बन चुका था !

©राघव_शंकर


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