आस्था के प्रतिमान, १५-१६
१५) पूरब का पतिव्रत और पश्चिम की नारीमुक्ति ... ये एक ऐसा कालखंड है जिसमें हर गर्व करने योग्य परंपरा पर लज्जित होना और लज्जित होने योग्य कार्य पर गर्व अनुभव करना प्रचलन में आ गया है। १६) सनातनी साम्यवाद ... "ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल तारना के अधिकारी।।"
आस्था के प्रतिमान -१५
पूरब का पतिव्रत और पश्चिम की नारीमुक्ति
ये एक ऐसा कालखंड है जिसमें हर गर्व करने योग्य परंपरा पर लज्जित होना और लज्जित होने योग्य कार्य पर गर्व अनुभव करना प्रचलन में आ गया है।
एक स्थान पर व्याख्यान देते हुए मैंने प्रसंगवश #पतिव्रत_धर्म की चर्चा की। जैसे ही मैंने कहा स्त्री अपने पति को परमेश्वर मान कर गृहस्थी में रुचि ले तो एकाएक वहाँ उपस्थित युवा महिलाओं के मुखमंडलों पर व्ययंगात्मक मुस्कान तैर गई। फिर इस विषय पर लंबा चिंतन हो गया जिससे उपस्थित देवियों को अपनी दिव्यता की किंचित अनुभूति हुई।
स्त्री मोक्ष से आकर संसार रचती है। स्त्री की स्वतंत्रता उसके रचे संसार में ही है। उसके आसपास का जगत उसके लिए दिव्य आलोक से आपूरित होता है। उसके स्वभाव की गहनता से उसका स्पर्श जिधर होता है वहाँ दिव्यत्व प्रकटता है।
ऋषि प्रज्ञा ने ये सत्य समझते हुए स्त्री के आधार पर गृहस्थ आश्रम की नींव रखी। स्त्री का स्वभाव है कि जब वो प्रेम करती है तो पूर्ण समर्पित हो जाती है।
इसलिए एक स्त्री के लिए कहा गया कि जिस पुरुष को तुमसे काम संबंध में बँधना है उसे तुम परमेश्वर मान कर प्रेम करो।
ये बहुत गहन संदेश है। यदि पुरुष परमेश्वर है तो साधारण स्त्री उसके साथ काम संबंधी विचार भी नहीं कर सकती। ऐसी स्थिति में एक ही संभावना है कि स्त्री को स्वयं के परमेश्वरी होने का भी उतना ही गहरा बोध हो। तब बराबरी का संबंध बनता है।
अब एक दिव्य युगल प्रेम में डूबे तो वो पाशविक संभोग नहीं रह जाता है। उसमें दिव्य भाव संचारित हो जाता है। उस आध्यात्मिक मिलन से जो संतति जन्म लेगी वो साधारण नरपशुओं से बहुत ज्यादा उच्च स्तरीय होगी।
उस घर का वातावरण मंदिर सा हो जाएगा जहाँ एक स्त्री और एक पुरुष एक दूसरे को दिव्य भाव से स्वीकार कर रहे हैं।
एक छोटी सी शिक्षा कि , *"पति को परमेश्वर मान कर गृहस्थी में रुचि लो"* इतने व्यापक परिणाम लाई कि इस भूमि पर परमात्मा भी बार बार इन सतियों के गर्भ में आने को ललचा गया।
इस एक शिक्षा से हमने अपने स्वर्णयुग निर्मित किए थे और इसके विस्मरण से हम आज गर्हित पतित समाज होकर रह गए हैं।
आज हमारे मन में #नारीमुक्ति के नाम पर विष प्रक्षेपित किया जा रहा है।
जरा एक दृष्टि डालें नारीमुक्ति आंदोलन पर।
फ्रांस की मजदूर क्रांति के बराबर से फ्रांस की ही औरतों ने नारी मुक्ति आंदोलन खड़ा किया, जिसकी परिणति मजदूर क्रांति जैसी ही हुई।
मार्क्स को दरकिनार कर रशिया पहुँचा समाजवाद साम्यवाद हो गया और लेनिन से स्टालिन तक अकेले रशिया में करोड़ों हत्याओं का कारण बना और आज वामपंथी बौद्धिक वैश्याओं के रूप में हर संस्कृति के मूल उच्छेदन के कुत्सित कर्म में रत है।
वहीं आरंभ में यूरोपीय महिलाओं की गुलाम अवस्था के विरुद्ध उपजे मुक्ति आंदोलन को अमेरिका और यूरोप के नवोदित वामपंथी लंपटों ने समर्थन देकर हथिया लिया।
इनकी नीयत स्पष्ट थी।ये मुक्ति के नाम पर नारी को वैश्या बनाने में उत्सुक थे। विवाहित नारी के साथ बहुत बंधन थे,मर्यादाएँ थीं, बच्चे थे।
कथित मुक्ति ने वहाँ पुंश्चलियों की भीड़ लगा दी। दायित्व विहीन स्वतंत्रता ने एक संस्कृति का ह्रास तो किया ही एड्स जैसे महारोग को संस्कृति का अंग बना दिया।
उन्हीं पाश्चात्य लंपटों की अवैध संतानें भारत में भी विगत 60/70 साल से प्रयासरत हैं।किंतु धन्य हैं हमारी मातृशक्ति जो इससे अब भी सम्मोहित नहीं हुई।
#अज्ञेय
आस्था के प्रतिमान -१६
सनातनी साम्यवाद
"ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल तारना के अधिकारी।।"
वामपंथी अक्सर इसकी हिंदू धर्म की आलोचना के लिए विषैली आलोचना करते हैं।
आइए विषवमन से परे इसे समझें...
ये सब वाम कचरे से लदे गधे हैं।
न कोई आधार है न अध्ययन।बस रात दिन कचरा खाते ढोते और उगलते रहते हैं।
रामायण के जिस सूत्र की बात कर रहे हैं उसके कई अर्थ हो जाते हैं।
सबसे पहले तो इन गधों को ये समझाओ कि
"ढोल गँवार सूद्र पसु नारी सकल तारना के अधिकारी।।"
कोई आप्त वचन नहीं है।श्री राम ने नहीं समुद्र ने कहा था।किस संदर्भ में कहा ये पूरा संदर्भ देखकर इसके महत्व का अनुमान हो सकता है।
*स्वतंत्र रूप से इसमें ५ नहीं ३ संज्ञाएँ हैं।*
#ढोल, #गँवार_शूद्र,#पशु_नारी...।
अब व्याख्या देखें....
#सकल_तारना- इसमें काव्य के एक शब्द के दो अर्थ निकालने वाले द्विगु समास का प्रयोग है(कनक कनक ते सौ गुनी...)।
ढोल के साथ सकल तारना का अर्थ है "संपूर्ण आघात" जमकर बजाना।ताकि उसका ढोलत्व सार्थक हो।
गँवार शूद्र और पशु नारी इन दोनों के लिए 'सकल तारना' #समग्र_उत्थान का अर्थ है #सकल_तारण"।
*साम्यवादी खलकामियों के बाप मार्क्स से ज्यादा साम्यवादी अर्थ।*
गँवार शूद्र या अनपढ़ दलित और पशु नारी या जानवरों जैसी जी रही नारी(आसमानी किताब से मुग्ध समाज की नारियों की तरह खाली बच्चे निकालने वाली थैली) का समग्र उत्थान हो।
उनको सभी तरफ से सबल सशक्त बनाया जाए।
अब कोई वामी खल कामी ये न कहे ये मेरा अर्थ है क्योंकि गधों इतने सालों से तुम भी इस सूत्र की मनमानी व्याख्या दे दे कर विष फैला रहे थे।
*ये इस सूत्र की स्वतंत्र व्याख्या है।*
#अज्ञेय