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हिन्‍दुत्‍व के प्रति घृृणा का इतिहास - 3

इतिहास में बहुत कुछ ऐसा है जो मनुष्य को पशुओं से भी गर्हित सिद्ध करता है । वर्तमान में भी ऐसा बहुत कुछ होता रहता है जो इतिहास से प्रेरित भी होता है, और उतना ही जघन्य होता है। मनुष्य बने रहने के लिए जिस सन्तुलन की अपेक्षा है उसे मनुष्य आज तक हासिल नहीं कर सका । इतिहास का अध्ययन करते समय दो बातों पर ध्यान रखना जरूरी है । जिन देशों या समाजों को अमानवीय यातनाओं से गुजरना पड़ा है वे बाद में उनका सामना किन रूपों में करते रहे हैं ।

उदाहरण के लिए यहूदियों को पूरे यूरोप में भेदभाव का शिकार होना पड़ा, एक व्यक्ति की घृणा के चरम पर पहुंंच जाने के कारण उन्हें उस त्रासदी का शिकार होना पड़ा जिसको लगातार याद दिलाया जाता है। उनके मन में जर्मन समाज या गोरी जातियों के प्रति बदले की आग नहीं है, पर साथ ही उन्हें वह इतिहास भूला नहीं है। पता होते हुए भी, प्रतिशोध वर्तमान व्यवहार का हिस्सा नहीं है । वर्तमान में उनके द्वारा कू्रताएं तो हुईं हैं परन्तु, वर्तमान दबावों में, दूसरो के प्रति, जिनका चरित्र हमें अच्छी तरह मालूम नहीं है।

जिस रूप में वह हमें समझाया जाता है उसमें मुस्लिम देशों के साथ हमारे संबन्ध आड़े आते हैं । मुस्लिम देशों के साथ हमारे संबंध का एक पहलू यह है कि हमारी आन्तरिक समस्याओं के चलते हमारी राष्ट्रीय सोच समन्‍वयवादी रही है और इसका अन्‍तर्राष्‍ट्रीय पक्ष आर्थिक सरोकारों से प्रभावित रहा है, अत: तेल के देशों की ओर हमारा झुकाव किसी ऐसे देश की अपेक्षा अधिक रहा है, जिसके पास हमें देने को कुछ नहीं था।

हमारे सामने दो बातें साफ हैं। एक यह कि यहूदी चाहें भी तो हिटलर का कुछ बिगाड़ नहीं सकते, न ही जर्मन नागरिकों के प्रति अपने रोष को, यदि वह मन में दबा हो तो भी, अमल में ला सकते हैं। दूसरा यह कि इस तरह का कोई प्रयास उनको उसी नस्लद्वेषी छवि में उतारेगा जिसके कारण यहूदीद्वेष को हम गर्हित मानते हैं।

इससे मिलता जुलता उदाहरण जापान का है । वह अपनी विवशता में विजेता से बदला ले नहीं सकता था, उसे उसने अमेरिकी जनों के प्रति द्वेष का रूप न दिया और अपनी सीमाओं का उपयोग अपने आर्थिक उन्नयन में किया, परन्तु अपने उस इतिहास को वह न तो मिटा सकता है न मिटाने की चेष्टा की है। वियतनाम को, ईराक को जिन यातनाओं से गुजरना पड़ा उसके गवाह तो हममें से अधिकांश लोग हैं, परन्तु इस इतिहास को जानना जितना जरूरी है उतना ही उसकी आंच से बाहर आना जरूरी है। अन्यंथा कोई समाज अपने वर्तमान का सामना नहीं कर सकता।

परन्तु कुछ शक्तियां हैं जो अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए इस प्रयत्न में रहती हैं कि पिछड़े समाजों को उनके इतिहास से बाहर आने में बाधा पहुंचाई जाय! न वे आधुनिक बन सकें, न आधुनिक समस्याओं का सही उपचार कर सकें, न ही आधुनिक समाजों के शस्त्रों , अभिलेखागारों और सूचनातन्त्राे के सामने ठहर सकेंं।

हमने जिस लेख का हवाला दिया वह उसी प्रचारतन्त्र का हिस्सा है। हिन्दू हित से कातर यूरोपीय और अमेरिकी विद्वानों का यदि एक धड़ा अपने काम पर लगा हुआ है। उनकी जानकारी मेरे देश और समाज के बारे में कुछ माने में मुझसे अच्छी है, क्योंकि साधन, स्रोतों और पर्यटन की सुविधा उसी अनुपात में अधिक है, परन्‍तु उनका लक्ष्य हमारे इतिहास की या हिन्दूे समाज की महिमा की प्रतिष्ठा नहीं है, अपितु हमारे समाज में पैठ बना कर, समाज को भीतर से उत्तेेजित करते हुए, आन्तरिक उपद्रव पैदा करना है।

इसलिए इस बात को आंखो से ओझल नहीं होने देना चाहिए कि किसी उपक्रम से जुड़े व्यक्ति को उस काम के लिए साधन कौन सुलभ करा रहा है । वह व्यक्ति अपने समाज का हो या विदेशी, उसको आर्थिक संबल देने वाला उसका उपयोग अपने लिए कर रहा है न कि हमारे लिए ।

यदि उसका काम कर रहा है तो उन्हीं सवालों और संवेदनाओं के प्रति नफरत फैलाने वाले किसका काम कर रहे हैं और किससे संरक्षण पा रहे हैं । नफरत फैलाने वालों का चेहर उजागर हो जाता है। उनके पास समर्थन उसी के अनुरूप बहुत अधिक होता है, परन्तु जो आपके समाज में पुरानी यादों से उत्तेजना पैदा करते हुए कुछ ऐसा कराना चाहते हैं जिससे संघ को आतंकवादी संगठन बताया जा सके, वे हिन्दुओं के हित का काम कर रहे हैं, या जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं ।

काटने और उखाड़ने वाले की पहचान आसानी से हो जाती है कि यह जिसे काट या उखाड़ रहा है उसका अनिष्ट चाहता था और वही कर रहा है, परन्तु जड़ों में मट्ठा डालने वाले को देख कर यह भ्रम बना रहता है कि संभवत: वह पौधे को सींच रहा है । यह रहस्य मट्ठा डालने वाला ही जानता है कि काटने पर जड़ों से शक्ति पा कर उसी मूल या अनकटे तने से पौधा हरा हो सकता है, परन्तु जड़ों में उनका उच्छेद करने वाले कीटाणुओं का प्रवेश कराने के बाद उसे कोई बचा नहीं सकता।

अत: किसी समाज के प्रति घृणा के दो उपागम हैं । एक जो वह है उसकी विकृतियों को ही उसकी समग्र उपलब्धि और उपलब्धियों को विकृत या नजरअन्दाज करके या गर्हित रूप में चित्रित करते हुए उसे दूसरों की नजर में गिराता और अरक्षणीय बनाता है और दूसरा जो उसे ऐसे बयानों या कार्यों के लिए‍ मित्र बन कर प्रेरित करता है।

इनकी पहचान कठिन होती है यद्यपि इनके लिए भेड़ों के बीच काली भेंड़ का मुहावरा बहुत पहले से चलता है । इन दोनों धड़ों के यूरोपीय विद्वानों से, जिन्हें विद्वान न कह कर कारकुन या एजेंट कहना अधिक सही होगा, मेरा साबका पड़ता रहा है और यह कहना कुछ अटपटा लगेगा, परन्तु सच यही है कि उन्हें मुझसे असुविधा अनुभव होती रही है।

मैं इसे दो उदाहरणों से स्पष्ट करना चाहूंगा । पहला यह दिखाने के लिए कि विद्वान या विशेषज्ञ के रूप में हमें बहुत प्रीतिकर लगने वाले दुहरी भूमिका पेश करते हैं। विशेषज्ञता मुखौटा होती है, खुफियागीरी मुख्य काम होता है। इससे मैं दूसरों को सहमत नहीं कर सकता, ये मेरे विचार हैं और ये इस विचित्र संयोग पर आधारित हैं कि ईराक युद्ध से पहले अमेरिकी पुरातत्वविदों का दल ओमान के तेल एल जुनैज में, काम कर रहा था, अफगानिस्तान की गतिविधियों में तेजी आने से पहले पाकिस्तान में मोहेंजोदड़ो की ड्रि‍लिंग कर रहा था और फिर भारत पाक संबंधों में कुछ संभावनाएं देख कर वह भारत की ओर मुड़ा। इसे आप कयास मान कर खारिज कर सकते हैं, परन्‍तु समर इंस्टीट्यूट आफ लिंग्विस्टिक्स तो प्रमाणित रूप में सीआइए से चालित है। उसका लक्ष्य ईसाइयत का प्रसार है और फिर भी हमारे असंख्य विद्वान उसके कोर्स और डिस्को्र्स पर फिदा मिलेंगे और कोई आलोचना सुनने को तैयार न होंगे, क्योंकि उनका वर्तमान, अतीत या भविष्य उससे लाभान्वित रहा है।

दूसरा उदाहरण इस बात को स्पष्ट करने के लिए कि पश्चिमी विद्वान हमसे अपनी जानकारी साझा नहीं करते । उनके मुखौटों के पीछे का चेहरा हमें ही नहीं, उनके समाज के आम लोगों को भी दिखाई नहीं देता। उनकी नीयत पर शक करने का मेरा प्रधान कारण यह रहा है कि वे केवल उस सीमा तक किसी सचाई को स्वीकार करते हैं जिसका निषेध नहीं किया जा सकता, परन्तु उसी स्वक़ृति की अनिवार्य परिणति को स्वीकारने को तैयार नहीं होते।

व्यक्तिगत सन्दर्भ को अपने अनुभव का हिस्सा मान कर समझें तो गलतफहमी पैदा नहीं होगी। मेरी पुस्तक हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य 1987 में प्रकाश में आई, दि वेदिक हड़प्‍पन्‍स की पांडुलिपि 1993 में तैयार हो गई थी और ऐसे प्रकाशक के पास थी जिसने एक बार आपसी बातचीत में झटके में स्वीकार कर लिया था कि उसका संबंध सीआईए से रह चुका है और मैने सुन कर अनसुना कर दिया, क्योंकि केजीबी से संबंध रखने वालों के भी इस पक्ष को नजरअन्दाज करता आया था। उसके यहां उन ‘विद्वानों’ की पहुंच ही न थी, ठहरने का प्रबन्ध भी था जिनको पांडुलिपि के स्तर पर ही उसने इसे पढ़ने को दे दिया था। मुझे प्रकाशन से ठीक पहले यह खब्त सवार हुई कि क्यों न सभ्यता के चरित्र को परिभाषित करने वाले शब्दों का संकलन प्रत्येक अध्याय में जोड़ दिया जाय।

इसकी तैयारी में और इसके कारण हुए विलंब के कारण दि वेदिक हड़प्पन्स का प्रकाशन 1995 में हो पाया पर उसी प्रकाशक के यहां से 1994 में कुछ नये तेवर के साथ एक पुस्तक यह मानते हुए कि आर्य आक्रमण गलत था, आ गई । प्रकाशक की रुचि मेरी पुस्‍तक से अधिक इस स्‍थापना में थी और वह पुस्‍तक भी उसी ने प्रकाशित की थी। फिर कुछ और पुस्त‍कें भी आईं। सबमें आर्य आक्रमण की धज्जियां उड़ाई गईं परन्तु उससे आगे का कुछ नहीं । आप जानना चाहेंगे आगे का क्या।

आगे का यह कि यदि आर्य आक्रमण की मान्यता ध्वस्त है और वेद के रचयिता भारत के निवासी थे, तो उनकी भाषा और संस्कृति का प्रसार भारत से यूरोप तक हुआ, यह इस स्वीकारोक्ति की तार्किक परिणति है। परन्तु यहां वे खामोश रहेंगे । उल्टे यह दलील देंगे कि भाषा विशेषज्ञता का क्षेत्र है और उसमें हम दखल नहीं दे सकते। उसके निर्णय वैज्ञानिक हैं, अर्थात् वे यह दिखाते हुए कि हम भी मानते हैं तथाकथित आर्य जाति का सिद्धान्त और आर्यों के आक्रमण का सिद्धान्त गलत है, पर इससे आगे के सवाल विशेषज्ञता के क्षेत्र में आते हैं। वे इस विकल्प को चुपचाप बचाए रखते हैं कि बाद में इसका इस रूप में उपयोग किया जा सके कि अमुक ने आक्रमण की मान्यता को गलत कहा था, यह तो नहीं कहा था कि किसी और तरीके से, जैसे शरणार्थी या घुसपैठिये के रूप में बाहर से इस संस्कृति के वाहक नहीं आए होंगे।

हिन्दूवादी सोच को सब कुछ मिल गया, यह सोचे बिना कि इसके कुछ चोर दरवाजे बचा रखे गए हैं, आगे सोचने को कुछ बचता ही नहीं । विदेशी समर्थन से विह्वल हो कर एक ऐसे कारकुन को वाजपेयी सरकार के समय ही, पद्म परंपरा का उल्लंघन करते हुए पद्मपुरस्कार ही न दे दिया, नई सरकार में आइसीएचआर के सदस्य के रूप में भी मान्याता दे दी – धन्य धन्य गुरु आप ने डूबत लिया उबार ।

यह उन कारणों में से एक है मैं, संघ और भाजपा से जुड़े लोगों को अनपढ़ तो मानता ही हूं, दूर्भाग्यवश पढ़े लिखों को भी पढ़ा लिखा नहीं मान पाता, क्योंं‍कि वे पढ़ने के साथ मानते भी चलते है़।

आप कहेंगे, ‘होश में आइये जनाब। अपने शीर्षक की लाज तो रखते।‘ मैं कहूंगा, इतिहास वर्तमान से जुडा होता है और इतिहास की समझ वर्तमान की समझ से पैदा होती है और इसी तरह वर्तमान की समझ इतिहास की समझ से। इस पर हम कल बात जारी रखेंगे ।

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