हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-1
दूसरे यह कि विदेशियों की नजर में समस्त भारत वासी, संभवत: सभी बांग्लादेशी, नेपाली और पाकिस्तानी भी हिन्दी हैं और यह संज्ञा मुस्लिम देशों में भी भाारतीय मुसलमानों और हिन्दुओं दोनों के लिए प्रचलित है।
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास -1
इस बहस मेें जाने का कोई लाभ
नहीं कि तुर्को के प्रतिलोम अर्थात विदेशी के विलोम के रूप में हिन्द के
स्थानीय लोगों के लिए कब हिन्दू शब्द का प्रयोग होने लगा और फिर कब यह
स्थानीय जनों में भी भेद करता हुआ केवल वर्णविभाजित समाज के लिए प्रयोग
में आने लगा और इसमें से पहले सिख, फिर जैन और बौद्ध अपने को हिन्दू मानने
से कतराने लगे या व्याख्याकारों ने उन्हें अहिन्दू बताना आरंभ कर दिया
और इसके बाद रामकृष्ण मिशन से जुड़े लोगों ने भी हिन्दू न रहने में कुछ
फायदे देखे और यह दलील देने लगे कि हम हिन्दू नहीं हैं। हाल के दिनों में
दलितों को भी यह समझाया जा रहा है और यह बात उनमें से कुछ क समझ में भी आती
जा रही है कि हिन्दू न रहना अधिक लाभकर है।
जहां तक हमारी समझ है
हिन्दू वर्णव्यववस्था के सताए हुए लोगों को ही परिगणित जातियों में और
पंंचम वर्ण माने जाने चाले अन्त्यजों और वन्य गणाें को अनुसूचित जनजाति
में रखा गया था और इसलिए मुसलमानों और ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों को
आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकता था क्योंकि वे वर्णव्यवस्था से अपने को
मुक्त मानते और वर्णव्यवस्था में बंधे रह जाने के कारण हिन्दू समाज की
भर्त्सना करते रहे हैं और जनजातियों और दलितों को सामाजिक न्याय और
बराबरी के आश्वासन से धर्मान्तरण के लिए फुसलाते रहे हैं (जानकार लोग
इसमें चूक का संकेत कर सकते हैं)।
फिर भी यह याद दिलाना जरूरी है कि वर्णव्यवस्था की जटिलता को समझने के लिए जितने गहन अध्ययनों की अपेक्षा थी वह नहीं की गई क्योंकि बुद्धिजीवी को राजनीति से ही फुर्सत नहीं मिलती क्योंकि यह बिना किसी गहन आयास के लगे हाथ की जा सकती है। इसके लिए झोला उठाने की योग्यता ही पर्याप्त है। अपने को गिरा कर उठाने के आसान विकल्प मिल जाते हैंं। इस सतही पन में यह मान लिया गया कि किसी शास्त्रकार के विधान के कारण, या कम से कम ब्राह्मणों की कुटिलता के कारण वर्णविभाजन पैदा हो गया और हिन्दू धर्म से बाहर चले जाने पर इससे मुक्ति मिल जाती है जब कि अपने को वर्णमुक्त कहनेवाले मतों में कोई भी ऐसा नहीं है जिसमें खुले या छिपे रूप में अस्पृश्यता के निकट पहुंचने वाले विभेद देखने में आते हैं । इस माने में भी सभी हिन्दू ही बने रह जाते हैं।
दूसरे यह कि
विदेशियों की नजर में समस्त भारत वासी, संभवत: सभी बांग्लादेशी, नेपाली
और पाकिस्तानी भी हिन्दी हैं और यह संज्ञा मुस्लिम देशों में भी भाारतीय
मुसलमानों और हिन्दुओं दोनों के लिए प्रचलित है। हिन्दू और हिन्दी का
मतलब एक ही है, हिन्द या और भी सटीक होने का प्रयत्न करें तो सिन्ध नद
प्रदेश और उससे आगे का भाग हिन्द है और इसकी बोली, संस्कृति और निवासी
हिन्दी है उसका मजहब केई भी क्यों न हो।
तीसरी बात जो याद रखने की
हैै वह यह कि तुर्क के प्रतिलोम के रूप में हिन्दू का प्रयोग तो कबीर में
भी - हिन्दुन की हिन्दुआई देखी तुरुकन की तुरुकाई - देखने में आता है,
परन्तु भाषा के लिए हिन्दी प्रयोग उर्दू के लेखक भी करते रहे हैं। मोटे
तौर पर धर्म या समाज के रूप में बिलगाववादी या एक्सक्लूसिव पद के रूप में
हिन्दू या हिन्दी का प्रयोग और इसकाे संकुचित करते जाने की प्रक्रिया
ब्रितानी बांटों और राज करो की नीति के तहत आरंभ हुई और उसी नीति को आगे
जारी रखते हुए स्वतन्त्र भारत के प्रभुओं ने इसे उस परिणति पर पहुंचाने
की कुटिलता को अपनी शासकीय नीति का हिस्सा बनाए रखा है।
अत: सबको
जोडने मिलाने और भारत की एकता और संघीयता की चिन्ता तक करने वालों की
संख्या घटती चली गई है और इसका भार केवल उन हिन्दुओं पर रह गया है
जिन्हें हिन्दू कहने के वैकल्पिकक रूप में सांप्रदायिक भी कहा जा रहा है
इसलिए आप कह सकते हैं कि भारत को जोड़ मिला कर रखने के दायित्व का दूसरा
नाम सांप्रदायिकता है। यह हमारे लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति हो सकती है
परन्तु एेसे लोगों की संख्या शिक्षित समाज में बढ़ी है जो देश प्रेम को
भक्तिभाव और देशद्रोह को आजादी के रूप में परिभाषित करना चाहते हैं। इससे
उनकाे स्वयं क्षति भी उठानी पड़ी है जो तोडफोड करते हुए अपनी ऊर्जा का
अपव्यय करने वालों को उठानी पड़ती है, परन्तु एक लत के रूप में वे इसके
इतने आदी हो चुके हैं कि वे अपनी आदत सुधार नहीं सकते । परन्तु अपने
कार्यभार के अनुरूप सदाशयता का निर्वाह हिन्दूपन या भारतीयता की रक्षा के
लिए चिन्तित दीखने वाले लोग कर पा रहे हैं, इस पर मुझे सन्देह है। भले ऐसा
प्रतिक्रिया के कारण
हो रहा हा।
भारतीय समाज कबीलाई सममुदायों की
तरह कभी एकाश्म नहीं रहा। इसमें वर्चस्व और हितों का टकराव आदि काल से
रहा है परन्तु इसने एक ऐसे तन्त्र का विकास आज से चार पांच हजार साल पहले
कर लिया था जिसमें सामाजिक स्तर पर विचार और परहेज ने हिंसा को
अव्यवहार्य बना दिया था और किसी व्यक्ति या अवध्य प्राणियों की हत्या
हो जाने पर व्यक्ति को हत्यारी लग जाती थी और वह मृत्युदंड से भी अधिक
यातनापूर्ण प्रायश्चित करना होता था। हिंसा केवल सत्ता या सामरिक
स्थितियों तक सीमित थी जो जमीन जायजाद को लेकर छोटे पैमाने पर भी हुआ करती
थी और इन स्थितियों में किसी के हाथों प्राण जाने पर प्रायश्ति का विधान
कुछ सह्य या आर्थिक हो जाता था। राजा युद्ध के बाद यज्ञ आदि के द्वारा
पापमुक्त होते थे और साधारण लोग भोज और दान आदि दे कर । परन्तु इस विधान
के कारण समाज में सौमनस्य स्थापित हो जाता था, जब कि इस्लाम के प्रवेश
के बाद स्थिति बदल गई।
पहली नजर में ऐसा लगता है कि भारत में हिन्दू
मुसलिम संबंध कभी अच्छे नहीं रहे परन्तु कुछ और ध्यान देने पर पता चलता
है कि अहम प्रश्न का अध्ययन भी उतने ही सतहीपन से किया गया जैसे
वर्ण्व्यवस्था का। इसमें कोई सन्देह नहीं कि विश्व इतिहास में क्रूरता
और पाश्वविकता की हदों को पार करने वाली संवेदनशून्यता का जैसा उदाहरण
भारतीय इतिहास में देखने में आता है वह न इससे पहले कभी देखने में आया था न
कहीं अन्यत्र इतने लंबे समय तक देखने में आया था। उनका आचरण इतना गर्हित
था जिसकी कल्पना कभी भारती पुराधकथाओंमें राक्षसों के विषय में भी नहीं की
गई थी।
परन्तु कामचलाऊ रुख के कारण इतिहासकारों ने इसे बहुत सलीके से
पेश नहीं किया। इसमें शक नहीं कि जितनी भारी कीमत भारत को चुकानी पड़ी
जितना रक्तपात इस्लाम के नाम पर भारत में हुआ, जितनी क्रूरता और घृणा से
इसे अंजाम दिया गया उसके सामने हिटलर ही नहीं आज के बहुप्रचारित आइएसआई की
क्रूरताएं भी तुच्छ लगेंगी। इसे सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है
सिवाय उन इतिहासकारों के जिनको ठेके पर इतिहास की पाठ्यपुस्तकें लिखने के
काम पर लगाया गया था, और जिन्होंने उस क्रूरता की हिमायत में, उधर से
ध्यान हटाने के लिए वैदिक जनों को आक्रमणकारी आर्यों की पहचान दे कर उसी
रंग में रंग कर उन पाठ्पुस्तकों में भी दिखाने का प्रयास किया।
इतिहासकारों में से कुछ के विचार अभी हाल में मैं एक यहूदी सरोकारों से
निकाले गए एक पत्र में प्रकाशित लेख में देख रहा था । लेख का शीर्षक था
Islamic India: The biggest holocaust in World History… whitewashed from
history books और यह 31, 2014 BY ADMININ MIDDLE EAST & WORLD में
प्रकाशित था। इसके कुछ अंशों को हम पहले बिना किसी टिप्पणी के रखना
चाहेंगे:
The genocide suffered by the Hindus of India at the hands
of Arab, Turkish, Mughal and Afghan occupying forces for a period of 800
years is as yet formally unrecognised by the World.
….
The only similar genocide in the recent past was that of the Jewish people at the hands of the Nazis.
The holocaust of the Hindus in India was of even greater proportions,
the only difference was that it continued for 800 years, till the brutal
regimes were effectively overpowered in a life and death struggle by
the Sikhs in the Panjab and the Hindu Maratha armies in other parts of
India in the late 1700’s.
Will Durant argued in his 1935 book “The Story of Civilisation: Our Oriental Heritage” (page 459):
“The Mohammedan conquest of India is probably the bloodiest story in
history. The Islamic historians and scholars have recorded with great
glee and pride the slaughters of Hindus, forced conversions, abduction
of Hindu women and children to slave markets and the destruction of
temples carried out by the warriors of Islam during 800 AD to 1700 AD.
Millions of Hindus were converted to Islam by sword during this period.”
Francois Gautier in his book ‘Rewriting Indian History’ (1996) wrote:
“The massacres perpetuated by Muslims in India are unparalleled in
history, bigger than the Holocaust of the Jews by the Nazis; or the
massacre of the Armenians by the Turks; more extensive even than the
slaughter of the South American native populations by the invading
Spanish and Portuguese.”
Writer Fernand Braudel wrote in A History of Civilisations (1995), that Islamic rule in India as a
“colonial experiment” was “extremely violent”, and “the Muslims could
not rule the country except by systematic terror. Cruelty was the norm –
burnings, summary executions, crucifixions or impalements, inventive
tortures. Hindu temples were destroyed to make way for mosques. On
occasion there were forced conversions. If ever there were an uprising,
it was instantly and savagely repressed: houses were burned, the
countryside was laid waste, men were slaughtered and women were taken as
slaves.”
Alain Danielou in his book, Histoire de l’ Inde writes:
“From the time Muslims started arriving, around 632 AD, the history of
India becomes a long, monotonous series of murders, massacres,
spoliations, and destructions. It is, as usual, in the name of ‘a holy
war’ of their faith, of their sole God, that the barbarians have
destroyed civilizations, wiped out entire races.”
Irfan Husain in his article “Demons from the Past” observes:
“While historical events should be judged in the context of their
times, it cannot be denied that even in that bloody period of history,
no mercy was shown to the Hindus unfortunate enough to be in the path of
either the Arab conquerors of Sindh and south Punjab, or the Central
Asians who swept in from Afghanistan…The Muslim heroes who figure larger
than life in our history books committed some dreadful crimes. Mahmud
of Ghazni, Qutb-ud-Din Aibak, Balban, Mohammed bin Qasim, and Sultan
Mohammad Tughlak, all have blood-stained hands that the passage of years
has not cleansed..Seen through Hindu eyes, the Muslim invasion of their
homeland was an unmitigated disaster.
इस पर अपनी समझ और योग्यता के अनुसार कल समझेंगे।