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Left ने किया क्या हसीं सितम ..... हम रहे न हम ।

जहां पर मैं पला-बढ़ा वहाँ न केवल संस्कृतिक लूट हो चुकी थी, बल्कि - और यही होता है, क्योंकि हमारे पास जो निकष बचे हों उनपर ही हम किसी बात का मोल समझ सकते हैं - हुआ यह था कि लोगों ने अपनी संस्कृति को हेय समझना शुरू किया था । उर्दू को कुछ इज्जत दी जाती थी, हालांकि उसे सीखने की तो कोई कोशिश नहीं कर रहा था; लेकिन संस्कृत का खुलकर मज़ाक उड़ाया जाता था और उसका तिरस्कार किया जाता रहा । यूं समझ लीजिये कि जैसे उसे सुनना ही कोई घटिया बात हो । अगर व्यक्ति के नाम बहुत संस्कृतनिष्ठ होते तो लोग उनसे दूर हटते, उन्हें अपने से निम्न वर्ग से जोड़ते । किसी का नाम 'नरिंदर' होता तो कहा जाता कि क्या ड्राईवर के लायक नाम रखा है । अरमान, झइरा, अलाया ऐसे नामों को वरीयता मिलने लगी। स्कूल के संस्कृत के शिक्षक हंसी के लिए योग्य पात्र समझे जाते और दूँ स्कूल जैसे बड़े स्कूल में शिक्षित लोग गर्व से कहते कि उनको कुछ भी संस्कृत नहीं आती, बस पादने को लेकर एक मज़ाकिया रचना याद है ।

और भी दुर्भाग्य की स्थिति यह थी कि दुनिया के बहुत कम लोगों को संस्कृत एक साहित्यिक भाषा लगती । संस्कृत, जो राज काज तथा साहित्य में अपना स्थान प्राप्त कर चुकी थी, हाशिये पर धकेली गयी और केवल पूजापाठ की भाषा बनकर रह गई । कोई संभ्रांत वर्ग की नारी बेहिचक कह देती कि "ओह, मुझे तो उस chanting-shanting से नफरत होती है ।"

संस्कृत निम्नस्तरीय बना दी गयी, उसका ज्ञान होना लज्जा का विषय हो गया। हमारे इंग्लिश बोलनेवाली दुनिया में उसकी अवस्था मुझे VS Naipul की एक कथा का संस्मरण कराती है । बेलिज़ की मय संस्कृति के खंडहरों में मिला एक छोटा लड़का । उसे जब उस खंडहर के बारे में कुछ पूछा तो वो अपना मुंह ढँककर खिसियानी सी हंसी हँसता रहा। शर्मिंदा सा लग रहा था। मानो कह रहा हो कि भूतकाल में जो भी कुछ बेवकूफियाँ हुई हो उनके लिए मुझे दोषी न माना जाये, माफ कर दीजिये ।

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