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हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – 35
प्रसंगवश

मैंने यह लेखमाला राजनीतिक वायरल के प्रसार से खिन्न हो कर, रचनाकारों, विचारकों, अध्यापकों, छात्रों में बौखलाहटभरी संवादहीनता की उस व्याधि से उनको बाहर लाने के लिए आरंभ की कि राजनीति के भी चुनावपूर्व होड़ में फतवों, गालियों, अभियोगों भाषा के स्त र पर उतर कर अपने आवेग प्रकट करने की जगह अपने कार्यो, मन्तव्यों के वैचारिक आधार को सामने रखें। अपने तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करें, और उसके प्रतिवाद में या नये प्रमाणों और तथ्यों के सामने आने पर उनका समाधान करते हुए विचार प्रकिया को आगे बढ़ाएं जिससे हम उस बौद्धिक सड़ांध से बच सकें जिसकी शिकायत सभी करते हैं, पर जिससे बाहर आने की इच्छा शक्ति तक खो चुके हैं।

मार्क्स वाद से मैंने यही सीखा है, थीसिस, ऐंटीथीसिस, सिंथीसिस जो मार्क्स की अपनी देन नहीं है, यह तार्किकता के इतिहास की अनिवार्य कड़ी है जिसे उपनिषदों, ग्रीक दार्शनिकों, अरबों के कुछ सौ वर्षों के उत्थान काल के चिन्तिकों और मार्क्से से पूर्व के यूरोप के उन चिन्तंकों में भी पाया जाता है जिनको भाववादी करार दिया जाता है।

आखिर हीगेल के डायलेक्टिक्स को तो मार्क्स ने भी स्वीकारा था। मार्क्स ने किया क्या था? हीगेल को सिर के बल खड़ा कर दिया था।

मार्क्स सामने होते तो पूछता, ‘भले आदमी, बुजुर्गों से इसी तरह पेश आते है, मगर जरूरी नहीं है कि यह पूछ पाता क्योंकि मार्क्स का जवाब पहले ही जबान बन्द कर देता है, ‘बरखुरदार तुम अपने बुजुर्ग से किस तरह पेश आ रहे हो।

इस लाचारी में मैं मान लेता हूं कि यह जुमला किसी दूसरे ने गढ़ा होगा, और मार्क्स के समय और सोच को देखते हुए सही भी था।

जो कुछ ज्ञान के एक चरण पर सही होता है वह अगले चरण पर हास्यालस्प हो जाता है, परन्तु ज्ञान और विज्ञान की प्रक्रिया में यदि अपने मुकाम पर वह न होता तो इसकी प्रगति का रास्तां ही बाधित हो जाता। मार्क्स विचार को वस्तु , वस्तु गत परिस्थितियों से उत्पन्न‍ एक शक्ति मानते हैं, जब कि उससे पहले विचार से ही वस्तु जगत में परिवर्तन की मान्यता थी और इसके कारण वस्तुनगत सत्ता को अध्यास या भ्रम मानना पड़ता था। वह असाधारण तर्कवादी शंकराचार्य हों या उनसे परिचित बर्गसां। या उसकी अगली कड़ी हीगेल।

वस्तुवादियों का भी अपना लंबा इतिहास है, वह ऋग्वेद में ही परिलक्षित हो जाता है जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया गया, पर बीसवीं शताब्दी में अणुविखंडन और अणुविश्लेषण और क्वैंटम सिद्धांत ने सत और चित की परिभाषाएं ही बदल दी और उन्नीसवीं शताब्दी में हीगेल को उन्नीसवी शताब्दी के विज्ञान के आधार पर सिर के बल खडा करने वाले मार्क्स को बीसवीं शताब्दी के विज्ञान ने गलत सिद्ध कर दिया और उस विचित्र असमंजस में डाल दिया जिसमें सृष्टि का आरंभ शून्य से और सृष्टि की परिणति शून्य में होती है, परन् तु यह ऐसा शून्य है जो अपनी ही कामना या अव्यक्त माया में लिपटा हुआ है। कहो तो ब्रह्म कहो तो माया, कहो तो ब्रह्म माया वश और कहो तो माया ब्रह्म में विद्यमान कामना में, समझने चलो तो न यह न वह। वह परमशून्य जिसमें समस्त सृष्टि को कालातीत काल के बाद दिगातीत व्याप्ति के होते हुए भी ध्वस्त होना है और जिसको भी अन्त नहीं माना जा सकता। इस जटिलता को नेति नेति, न भूत न चित, चित ही भूत बन जाता है, सो अचिन्तनीय एको अहं बहु स्या म बहुधा स्याम वाली सोच को वैज्ञानिक तो नहीं कहा जा सकता है पर यह सवाल तो उठाया ही जा सकता है कि यूरोप के आधुनिक वैज्ञानिकों ने यदि विश्‍वब्रह्मांड की रहस्यमयता की खोज के प्रसंग में भारतीय चिंतन को भी ध्यान में रखा होता तो संभव है विवेचन का रूप भिन्न होता।

मुझे किसी विषय की पक्की जानकारी न होने पर भी अपनी समझ से हस्तक्षेप इसलिए करना पड़ता है कि इसी को कामन सेंस या लोकबोध कहा जाता है। विशेषज्ञता न हो तो इसी से काम चलाना पड़ता है, यह तो सच है ही, विशेषज्ञों को भी अपने संकरे गलियारे से बाहर आने पर इसी लोकबोध या आम समझ से तालमेल बिठाना और उसी पर आना होता है।

अन्तिम बात मुझे स्‍टीफेन हाकिंग्‍स की सुलभ और शिक्षाप्रद पुस्त कों को पढते हुए याद आई जिसमें वह ईसाइयत के विश्वासों को आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के सन्‍दर्भ में विचारणीय मानते हैं और उससे बाहर का रास्ता‍ निकालते हैं। ईसाइयत का विश्वबोध और वस्तुबोध बहुत अधकचरा है, परन्तु मैं इस वाग्जा ल में इसलिए फंस गया कि मैं यह याद दिलाना चाहता था कि हम, यह मेरी समझ है, सोचने से बचते हुए किन्हीं मान्यताओं में अटल विश्वास के कारण सोचना बन्द कर चुके हैं और फिर भी अपनी सोच को वैज्ञानिक करार देते हुए विज्ञान को भी विश्वाेस बनाने पर उतारू हैं और ठीक उसी से मिलते जुलते धरातल पर एक दूसरे के विरोध में तलवार ताने खड़े हैं जिसमें अपर पक्ष का दधीचि की हड्डियों से अमोघ अस्त्र बनाए जाने की जांच करने के प्रस्ताव पर हंसते है और उन्नी सवीं शताब्दी के विज्ञान, अपने प्रयोगों, उनकी विफलता के कारणों की पड़ताल करने को तैयार नहीं होते।

वैज्ञानिक दोनों में कोई नहीं, पर वह जो जांच और खोज का द्वार खुला रखता है वह दोनों विश्वािसयों में अपेक्षाकृत अधिक सुलझे दिमाग का है। पर इस वाग्विलास में मैं अपना असली सवाल ही भूल गया। वह था कि समझ संवाद के अभाव में संभव नहीं और मेरे लिखे पर मित्रों के जो प्रश्न आते हैं उनसे बचने का मुझे भी अधिकार नहीं।

मैं स्वयं अपनी अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाता। विमर्श आरंभ हो जाता है और अनेक प्रश्नों के उत्तर से समाधान निकल आते हैं यह भी अपेक्षा के अनुरूप ही है। फिर भी कुछ सवाल रह जाते हैं जिनका उत्तर मैं ही दे सकता हूं।

मेरे एक मित्र ने प्रश्न किया कि आप प्रतिस्पसर्धा को घृणा कैसे मान सकते हैं। उत्तर में मैंने कहा, यह एक लेखमाला की कड़ी है, सर्वसमाहारी लेख नहीं। अपेक्षा की कि वह प्रतीक्षा करें। परन्तु प्रतीक्षा की भी कोई सीमा तो हो।

उनकी आपत्ति सही थी। प्रतिस्‍पर्धा में दिमाग काम करता है, हम दूसरे से आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं, घृणा एक ऐसा प्रबलआवेग है जिसमें विवेक काम करता ही नहीं। यह विवेक को भी नियन्त्रि त करने लगता है। यह अन्तर हम पहले रेखांकित कर आए हैं। पर साथ ही यह भी याद दिला चुके हैं कि कैसे अपनी अयोग्य ता के कारण और अपनी आकांक्षा की प्रबलता के वशीभूत हम जिसके समकक्ष नहीं आ पाते उससे अपने अनजाने ही इतनी घृणा करने लगते हैं कि उसे मिटाने पर उतारू हो जाते हैं। अपने ही प्रतिस्पर्धी मित्र के रहते आगे न बढ़ पाने या अपनी ओर से उत्कट प्रेम करते हुए अपनी प्रमिका को अपना न बना पाने आदि जैसे मामलों में अकल्पनीय अपराध होते हैं। इन पहलुओं की ओर बार बार ध्यान दिलाना संभव नहीं है, परन्तु यदि आप के निजी निष्कर्ष के अनुरूप किसी दिन का विवेचन न जाय तो उसे पूर्वकथित और आगे कथनीय की परिधि में रख कर समझें, धैर्य धरें और फिर सटीक प्रश्न करें। प्रमाण, औचित्य और भिन्न तार्किक परिणति के अनेक बिन्दु मेरे लेखन में मिल सकते हैं और वहां आपके हस्तक्षेप से मुझे अपने लिखित को संशोधित करने में भी मदद मिलेगी और पाठकों को पुनर्विचार का अवसर ही नहीं मिलेगा, अभ्यास भी होगा जो मेरे मन्तव्य से सहमत होने से बड़ी उपलब्धि है।

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