हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-31
जिसका मजहब ही खुदा को छोड़कर किसी दूसरे की वन्दना न करने पर, किसी अन्य को वन्दनीय न मानने पर टिका हो उससे वन्दे मातरम् कहने की अपेक्षा करना, इसके लिए आग्रही होना, ऐसा न करने पर उसकी राष्ट्रनिष्ठा पर सवाल खड़े करना हमे अधिक उदार सिद्ध करता है या अधिक कठमुल्ला।
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - 31
सर सैयद बहुत खुद्दार थे। आगरा के कलेक्टर सिंपसन ने एक नुमायश के साथ दरबार का आयोजन किया तो वह उसकी प्रबन्ध समिति में थे और बहुत उत्साह से उसके आयोजन में भाग लिया था। आयोजन खुले मैदान में था जिसमें बैठने की दो तरह की व्यवस्था थी। एक ऊंचाई पर अंग्रेजो के लिए जिस पर शामियाना लगा था, दूसरा कुछ नीचा हिन्दुस्तानियों के लिए खुले आसमान के नीचे।
प्रबन्ध समिति में होते हुए भी सर सैयद को इस व्यवस्था की खबर न थी। एक अन्य सज्जन उस ऊंचाई वाले भाग में किसी कुर्सी पर बैठ गए तो चौकसी रखने वाले ने आ कर समझाया कि यह केवल अंग्रेजों के लिए है, आप पीछे लगी किसी सीट पर बैठें। इस अपमानजनक व्यवहार की सूचना उन्होंने सर सैयद को दी तो सर सैयद स्वयं जा कर उस पंडाल की एक कुर्सी पर बैठ गए। उनके साथ भी वही व्यवहार हुआ तो उन्होंने कलक्टर से अपनी आपत्ति प्रकट की। उसी समय थार्नहिल नामक एक दूसरा अंग्रेज अधिकारी वहां पहुंचा और उसने उनकी बात सुनकर झिड़की दी “What mischief you Indians did not perpetrate on us in the Mutiny. Now you wish to sit side by side with our women । सर सैयद ने पलट कर जवाब दिया, गदर आप लोगों के इसी अहंकार और भारतीयों के प्रति अपमानजक व्यवहार के कारण हुआ था और अभी तक आप लोगों ने अपना तरीका नहीं बदला। इस पर वह और भड़क उठा। सर सैयद अपने आवास पर लौट आए। गवर्नर को पता चला तो उनका आदेश हुआ कि महिलाओं के बैठने का अलग इंतजाम होगा, बाकी जगहों पर गोरे काले, मालिक और खादिम का भेद छोड़ कर सभी के साथ बैठेंगे का प्रबन्ध हो। इसके लिए स्थनीय अधिकारी जो, जाहिर है, अंग्रेज ही थे, और शेष गोरी बिरादरी तैयार न थी। हार मान कर गवर्नर को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। इससे सर सैयद इतने आहत हुए कि उन्होंने प्रबन्ध समिति से त्यागपत्र दे दिया और आगरा छोड़ कर अलीगढ़ के लिए रवाना हो गए। इस दरबार के अवसर पर सर सैयद को विशष सम्मान दिया जाने वाला था और भारतीय मूल के पुलिस अफसरों को कुछ सुविधाएं दी जाने वाली थीं। इसकी चिन्ता किए बिना सर सैयद अपना विरोध प्रकट करने के लिए स्वागत समिति से त्यागपत्र दिया और वहां से रवाना हो गए। जब यह सरकारी सूचना का अंग बना तो तहलका मच गया। उनको मनाने के लिए कमिश्नर को वह मेडल उनको पहुंचाने को भेजा गया! वह उनसे मिल पाते तब तक वह अलीगढ़ स्टेशन पहुंच चुके थे। उसने उनसे कहा:“You know I have not the least desire to present you this medal and would not have done so were it not for the orders.”सर अहमद ने तुर्की ब तुर्की जवाद दिया , “I too have no wish to receive it from you; I am as equally constrained in this action as you are.”जाहिर है, उन्होंने वह तमगा वापस कर दिया। इस बेअदबी पर उनके पूरे आचरण को ले कर उनसे जवाब तलब किया गया तो उन्होंने कहा, मुझे बिना सूचना और अनुमति के आगरा से चले आने का खेद है, पर त्यागपत्र को ले कर कोई अफसोस नहीं!
परन्तु अपनी कौम के भले के लिए उनको सबसे मुष्किल काम
उसे समझा कर सरकार का वफादार बनाने और अपने पुराने आग्रहों को छोड़कर आधुनिक
षिक्षा, विषेषतः अंग्रेजी सीख कर आगे बढ़ने के लिए तैयार करना था। यह रोचक
है कि एक मौके पर तीन हजार मौलवियों और मुल्लों सरकार को इस आषय का एक
ज्ञापन दिया था कि उन्हें अंग्रेजी भाषा और फिरंगी तालीम ;विज्ञानद्ध न
दिया जाय। इसके लिए उन्हें अपने समाज को जो जाहिर है तैयार करने के लिए और
यह समझाने में कि उनकी किसी भी गतिविधि से सरकार के मन में यह सन्देह पैदा
नहीं होना चाहिए कि वे ब्रिटिष सत्ता के अन्धभक्त नहीं है, सबसे अधिक
संघर्ष करना पड़ रहा था। किसी तरह की राजनीतिक रियायत को भी वह हिन्दुओं की
शरारत बता कर एक ओर तो अपने समुदाय को इससे बचाने का प्रयत्न कर रहे थे
दूसरे सरकार को यह दिखा कर कि हिन्दू आपके राजकाज में अड़ंगा डालने वाले हैं
और मुसलमान ही आपके भरोसे के हो सकते हैं, हिन्दुओं को अधिक अवसर मिलने का
रास्ता कठिन और मुसलमानों के लिए योग्यता होने पर अधिक उदारता में ऐसे
पदों पर नियुक्त करने का रास्ता तैयार करना चाहते थे। मेरी अपनी समझ में जब
आप अपने समुदाय के हित की चिन्ता करते हैं तो यह एक सराहनीय समाजसेवा का
काम होता है, भले वह आपके समुदाय तक ही सीमित क्यों न हों। परन्तु जब इसके
साथ दूसरे समुदायों के हितों में अवराध पैदा करते हुए अपना हित साधना चाहते
हैं, तो यह एक सांप्रदायिक सोच बन जाता है और ऐसे व्यक्ति को सेक्युलर
कहना सदाषयता को मूर्खता के पाले में पहुंचाने जैसा है। परन्तु इसमें
हिन्दू द्वेष से अधिक हिन्दुओं से उनकी जातीय प्रतिस्पर्धा का हाथ था। उनके
षिक्षा के सरोकार केवल मुसलमानों को आगे बढ़ाने से जुड़े थे, परन्तु उनको
उत्तरप्रदेष के हिन्दुओं से जो भी मुसलमानों की तरह ही षिक्षा में पिछड़े
हुए थे, उससे प्रतिस्पर्धा नहीं थी। प्रतिस्पर्धा बंगाली हिन्दुओं से थी
क्योंकि केवल वे बहुत आगे बढ़ गए थे और उनका यह आगे बढ़ना उनके मन में दहषत
पैदा करता था इसलिए उनके विरोध के लिए वह उत्तर प्रदेष के हिन्दुओं को भी
अपने साथ लेकर बंगाली हिन्दुओं का विरोध करना चाहते थे और कांगेस को बंगाली
हिन्दुओं की संस्था बता कर उनको भी उससे अलग करके एक प्रभावषाली प्रतिरोध
कायम करना चाहते थे, इसलिए उनके एक ही काम को एक नजर से देखने वाले
सांप्रदायिक कहेंगे दूसरी नजर से देखने वाले सेक्युलर । हिन्दुओं के साथ
अवैर या अपनेपन का एक और कारण था कि वह अपने अनुभवों जानते थे कि अंग्रेजों
की नजर में भी वे हिन्दुस्तानी हैं और भारत से बाहर किसी भी देष में
जिनमें मुस्लिम देष भी सम्मिलित थे, उनको मुसलमान बाद में और हिन्दू/हिन्दी
पहले समझा जाता है और उसी तरह बरताव किया जाता है।
“Remember that the
words Hindu and Muslim are only meant for religious distinction:
otherwise all persons who reside in this country belong to one and the
same nation.”
"we may call ourselves Hindus or Muslims here in India
but in foreign countries we are all known as Indian natives. This is
why the insult of a Hindu is an insult of the Muslims and the
humiliation of a Muslim is a matter of shame for the Hindus"
उन्होंने जिस विष्वविद्यालय का स्वप्न देखा था वह भी मुसलमानों के लिए था
और इसकी जो योजना उनके मन में थी वह बहुत स्पष्ट थी। विष्वविद्यालय
मुस्लिमों के लिए था, परन्तु इसमें किसी अन्य धर्म के छात्र को पढ़ने पर रोक
न थी न उसके लिए उन पाबन्दियों का निर्वाह करना जरूरी थाःI may appear to
be dreaming and talking like Shaikh Chilli, but we aim to turn this MAO
College into a University similar to that of Oxford or Cambridge. Like
the churches of Oxford and Cambridge, there will be mosques attached to
each College... The College will have a dispensary with a Doctor and a
compounder, besides a UnaniHakim. It will be mandatory on boys in
residence to join the congregational prayers (namaz) at all the five
times. Students of other religions will be exempted from this religious
observance. Muslim students will have a uniform consisting of a black
alpaca, half-sleeved chugha and a red Fez cap... Bad and abusive words
which boys generally pick up and get used to, will be strictly
prohibited. Even such a word as a "liar" will be treated as an abuse to
be prohibited. They will have food either on tables of European style or
on chaukis in the manner of the Arabs... Smoking of cigarette or huqqa
and the chewing of betels shall be strictly prohibited. No corporal
punishment or any such punishment as is likely to injure a student's
self-respect will be permissible... It will be strictly enforced that
Shia and Sunni boys shall not discuss their religious differences in the
College or in the boarding house. At present it is like a day dream. I
pray to God that this dream may come true."
हम यदि अपने को हिन्दू
होने के नाते ही सचमुच अधिक सेक्युलर मानते हैं, तो क्या हम इस मामले में
सर सैयद से आगे हैं या पीछे! यहां तक कि कट्टर मुस्लिम देषों की तुलना में
भी हम पिछड़े सिद्ध हो सकते हैं जिनमें केवल मुसलमानों के लिए कुछ
पाबन्दियां जिनसे दूसरे धर्मों के लोगों को छूट मिली है। जिसका मजहब ही
खुदा को छोड़कर किसी दूसरे की वन्दना न करने पर, किसी अन्य को वन्दनीय न
मानने पर टिका हो उससे वन्दे मातरम् कहने की अपेक्षा करना, इसके लिए आग्रही
होना, ऐसा न करने पर उसकी राष्टनिष्ठा पर सवाल खड़े करना हमे अधिक उदार
सिद्ध करता है या अधिक कठमुल्ला। यदि बात भारत माता को सलाम कहने का हो तो
उसे, यदि उसमें समझ है, तो आपत्ति न होगी, क्योंकि सलाम क्या फरसी सलाम तक
बजाने को वह षिष्टाचार का हिस्सा मानता है और किसी पोषिका को मां कहने से
भी उसे आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इसके उलट राष्टगान के समय किसी भी मुसलमान
का खड़े होने से इन्कार करना इस बात का सबूत है कि अस्मिता के नाम पर
तबलीगी मुहिम के चलते मुस्लिम समुदाय को जहालत के किस मुकाम तक पहुंचा दिया
गया है कि वे इस पर गर्व कर सकें!
जहालत का ऐसा ही नमूना हमारे कुछ
दृढ़मति मित्रों ने भी पेष किया जिन्होंने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर
आमंत्रित अतिथि के द्वारा राष्टगान के अवसर पर सलामी की मुद्रा न अपनाने
को उनके द्वारा राष्ट का अपमान मान लिया। राष्टगान के समय केवल खड़ा होना
होता है। यदि उस समय सलामी गारद, जैसा कि स्वतंत्रता दिवस के परेड के अवसर
पर होता है, सामने हो तो वह सलामी राष्टपति को दी जाती है, उनके साथ जो
भी शामिल हों उन पर रोक नहीं है, इसलिए अतिथि का व्यवहार मर्यादा के अनुरूप
था, हमारे उन मित्रों का वाचिक आचार और उसमें निहित भाव हिन्दू समाज को
मुसलमानों से अच्छा सिद्ध नहीं कर पाते।
सभी लोगों को मुझसे असहमत होने
का अधिकार है, /यूं यदि यह अधिकार न दूं तो भी उनको असहमत होने से रोक तो
सकता नहीं!/ क्योंकि सभी इतने सही हैं कि आत्मनिरीक्षण से भी घबराते हैं और
दूसरों को किसी बात में सही पाते ही नहीं। अपने सिवा दूसरे सभी को गलत ही
नहीं मान लेते, इतना गर्हित मान लेते हैं कि उसके लिए सही संबोधन का प्रयोग
तक नहीं कर पाते। गालियों में एक दूसरे का सामना एक दूसरे से आंख मिलाए
बिना होता है, वार्ता ‘जा तोसें नाहिं बोलूं’ वाले अन्दाज में होता है,
जिसमे साजना या बालमा जो कुछ भी लगा करता था उसकी जगह ‘जालिमां और वह भी
‘जालिमों’ वाले अन्दाज में!
भगवान ही बचाए इस देष को अगर मेरे लिखने
की और उससे जुड़े नाम की लाज रखनी है, तो। पर हम दोषदर्षन की जगह आत्मदर्षन
नहीं कर सकते जिस तक पहुंचने का लक्ष्य सभी दर्षनों का होता है।
कल फिर यही बखेड़ा!