आस्था के प्रतिमान, ९-१०
९) गुरु परंपरा विहीन समाज के विरोधाभास ... देखिए एक तरफ शरीर की नश्वरता और संसार माया के गीत...। १०) नागा, संन्यासी योद्धा .... सिंहस्थ का माहौल है..
आस्था के प्रतिमान - ९
#गुरु_परंपरा_विहीन_समाज_के_विरोधाभास
देखिए एक तरफ शरीर की नश्वरता और संसार माया के गीत...।
दूसरी ओर १००० वर्ष की दासता...।ये हिंदुओं का विरोधाभास समझने जैसा है।
दरअसल जिन्होंने ये आत्मा परमात्मा और माया के अनुभव शब्दों से कहे वे कोई और ही लोग थे।
वे सिद्धत्व को उपलब्ध लोग इस देह और इस संसार से परे,बहुत परे किसी अत्यंत विराट सत्य को अनुभव कर रहे थे।
उसे शब्दों में बाँध पाने की असमर्थता के बावजूद उन्होंने उस शब्दातीत को शब्द देने के प्रयास किए। फिर 'नेति नेति' भी कहा।ये बताने के लिए कि हम जो भी कहे हैं वो उतना ही नहीं है जो हम जाने हैं।
कारण था इन शब्दों को सुनकर अधिकारी साधक शिष्य होगा और शब्दों से परे मौन में उस सत्य को समझेगा।
जब तक गुरू परंपरा जीवित रही आत्महीनता समाज में नहीं आ सकी।जहाँ #आत्मवान लोग हों वहाँ #आत्महीनता कैसे आए???
किंतु लगातार विधर्मी आक्रमण, शासन और दमन के चलते योग ध्यान के कई आचार्य गोपनीयता के आवरण में चले गए।
गुरुकुल साधना की अपेक्षा अध्ययन मात्र पर केंद्रित रह गए।
अब मात्र शब्द रह गए जिन्हें सहेजना आवश्यक हो गया कि कभी फिर वो आत्मवान सिद्ध समाज को ध्यान में प्रशिक्षित करने आएं तो उनके पहले के लोगों द्वारा किया गया हजारों वर्षों का श्रम आधार बने।
अब इस शास्त्र सहेजने की प्रक्रिया में गड़बड़ ये हो गई कि इनके चौकीदार अपने को स्वामी समझ बैठे। आत्मानुभव से रहित पंडित लोग पुस्तकीय ज्ञान को ही ज्ञान समझ बैठे और उसका रौब डालने लगे।
इस समय में #बाबा_मत्स्येन्द्रनाथ का आगमन हुआ ।
उन्होंने #बाबा_गोरखनाथ जैसा शिष्य तैयार किया और फिर से सिद्ध समाज के संपर्क में आए।
परंतु अब कुछ बदल भी गया था।कुछ ब्राह्मण उनके समक्ष समर्पित नहीं हो सके(अधिकांश हुए)। इन कुछ लोगों के पास शास्त्र परंपरा और मठों की शक्ति थी।
स्थिति को समझते हुए गोरखनाथ ने उस ज्ञान को सामान्य वर्ग की भाषा में सभी जातियों के अधिकार संपन्न शिष्यों को दिया।
#मध्ययुगीन_विराट_संत आंदोलन इसी महामानव की देन है।
फिर शाखाओं प्रशाखाओं से रामानंद,कबीर, दादू ,नानक और अनंत संत आए।विधर्मी शासन काल में इनके ही कारण सनातन सुरक्षित रहा।
किंतु एक दमित लुटे पिटे समाज में वो #अहंब्रह्मास्मि का सिंहनाद संभव नहीं था।
संतों में दो शाखाएं प्रमुख हो गई।
#ज्ञानमार्गी जो साधना और ध्यान को प्रमुखता देते और अपने भीतर विद्यमान ईश्वर की उपासना करते।
#भक्तिमार्गी जो भाव प्रवण थे।गीत संगीत द्वारा समर्पित होने का मार्ग दिखाते थे।
ज्ञानमार्गी सम्मानित तो बहुत हुए पर भक्ति आंदोलन जनमानस को छू गया। सब तरफ से मार खा रहे लोगों को एक आश्वासन कि "निर्बल के बल राम" अधिक अपना सा लगा... #शिवोहं कहने की न सामर्थ्य थी न परिस्थिति।
तप्त मरुथल में एक ठंडे पानी की सुराही जैसा था भक्ति आंदोलन।
फिर वे संत भी धीरे धीरे लुप्त होते गए।उनके भी मठ हो गए जहाँ उनके शब्दों को सहेज कर बैठे आत्महीन लोग उसी गलतफहमी के शिकार हो गए जिसके ऋषियों के उत्तराधिकारी ब्राह्मण हुए थे।
अब ये सब आत्मानुभव विहीन लोग उन अनुभूति संपन्न सिद्धों के शब्दों की व्याख्याएँ कर रहे हैं।संकीर्तन के नाम पर #भांडगिरी चल रही है।
जनमानस में एक पलायनवादी मानसिकता दृढ़ बैठ गई है कि "दायित्व सदा किसी और का है।"
कोई नहीं मिला तो भगवान ही सही।जिसका वस्तुतः कोई अतापता ही नहीं है।
"मृत्यु बहुत निकटतम घटना है।अमरत्व के उद्घोष टनाटन भंडारा जीमने के बाद निकली साँडनुमा अभिजात्य डकार सी लगती है।"
यदि आत्मा की अमरता को सच ही समझने जाएंगे तो पहले कदम पर यही विचार आएगा कि "ऐसा सचमुच कुछ है भी???"
इसलिए फिर कहता हूँ.... *"विराट स्तर पर वैचारिक जागरण की अनिवार्यता समझें।अपने धर्म को नचैयों ,गवैयों,भांडों और टोटकाचार्यों से मुक्त करें।"*
#अज्ञेय
आस्था के प्रतिमान -१०
#नागा, #संन्यासी_योद्धा
सिंहस्थ का माहौल है....
सनातन का साधु समाज अपनी अनूठी परंपराओं के साथ समाज के बीच प्रकट हुआ है , 4 कुंभ स्थलों में से हरेक पर 12 साल के बाद।
*इसका सबसे बड़ा आकर्षण हैं नागा साधु।*
अब जब आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से अल्प शिक्षित सनातन का व्यक्ति इनके पहली बार दर्शन पाता है तो कुछ उलझे हुए सवाल लेकर लौटता है क्योंकि नागाओं का आचरण उसके इधर उधर से खुरचे हुए उधार ज्ञान के साथ तालमेल नहीं रख पाता।
धकाधक चिलम खींचते, लाल दम आँखों से घूरते, बात बेबात छूट गालियां देते और चिमटा उठाकर धुनाई को तैयार नंग धड़ंग भस्म और जटाधारी व्यक्ति उसकी संग्रहीत सूचनाओं के हिसाब से कहीं से संत नहीं लगता।
इस सामान्य सनातनी के संत निर्णय के स्रोतों पर भी दृष्टि डाली जाए........
फिल्में व सीरियल , जिनमें अधकचरे या वामपंथी रुझान के लेखक एक निश्चित फ्रेम में संत का चरित्र गढ़ते हैं।बार बार.... अलग अलग।
किताबें, जो शास्त्र नहीं हैं।उनकी ही तरह अल्प धार्मिक समझ युक्त लोगों की लिखी होती हैं।
भांड कथाकार, जो संत का ऐसा चित्र खींचते हैं कि सामने बैठे अल्पज्ञ को कल्पना करते ही सबसे प्रथम वही भांड संत दिखाई देता है।
इसके अतिरिक्त आपसी बातचीत से भी हम संत का आकार प्रकार निर्धारित कर लेते हैं जो ऐसा ही है कि "अंधा अंधे को राह दिखाए।"
नतीजा, वही होता है जो हम नागाओं से मिलकर आए महानुभावों के मुख से या उनके द्वारा प्रेषित अखबार के संपादक के नाम पत्र, या अब सोशल मीडिया पर पढ़ते सुनते हैं।मीडिया की "आग में घी युक्त" टिप्पणियों सहित।
"ये कैसे संत ??? प्याज लहसुन खाते हैं।"
"ये कैसे संत??? गाड़ी में घूमते हैं।"
"ये कैसे संत??? गाली गलौज मारपीट करते हैं।"
"ये कैसे संत....????.... हमारी टुच्ची फ्रेम में फिट नहीं बैठते।"
ऐसे अनंत बेअक्ल सवाल हमारे स्वघोषित बुद्धिमान लोग उठाते हैं बिना किसी परंपरा को समझे।
"नागा संन्यासी परंपरा बहुत प्राचीन है। शंकराचार्य से भी प्राचीन।"
विष्णु के अवतार #भगवान_दत्तात्रेय की #अवधूत_संन्यास परंपरा।भगवान दत्त #रसायन_विज्ञान के महान आचार्य थे, उन्हें #रससिद्ध भी कहा जाता है। अवधूत के इस प्रयोगधर्मी पथ की मूल अवधारणा है, "#जीवनमुक्ति मात्र जन्म मरण से मुक्ति नहीं है, जैसा कि वेदांत मतानुकूल है। जीवन मुक्ति है जीवन पर #स्वामित्व। जीवन मुक्त वो है जो चाहे तो देह त्यागे, न चाहे तो कोई बाध्यता नहीं है।"
रस विज्ञान में नशीले पदार्थों और विष के प्रयोग से इस नश्वर देह को मृत्यु पाश से मुक्त करना सिखाया जाता है। पारद या पारा सिद्ध होने पर उस योगी का देह अजर अमर हो जाता है।भूख प्यास निवृत्त हो जाती है तथा अलौकिक सिद्धियाँ आ जाती हैं।
दत्त गुरु के अवधूत सदियों तक गहन वनों गिरि कंदराओं में ये प्रयोग करते रहे। #भूटान से #ईरान तक।
आज इस्लाम के सूफी इनके ही बिछड़े बच्चे हैं।
#चिलम इसका प्रमाण है।
पर्वत को संस्कृत में #नग भी कहते हैं।इसीलिए पर्वतों का वासी अवधूत #नाग हुआ जो कालांतर में #नागा हो गया।
इसका #नग्नता से सीधा संबंध नहीं है।नग्नता एक सुविधा भी है और मानसिक तप भी। समय बचाने और भीड़ से बचाव के लिए नग्नता धारण की गई। वैसे अखाड़े के साधु इसे गंभीरता से लेते भी नहीं, जैन मुनियों की तरह। वे कभी कपड़ा डाल भी लेते हैं। *दिगंबरत्व उनका आनंद है आरोपित बाध्यता नहीं।*
कालक्रम से भगवान दत्त का रासायन संप्रदाय भंग हुआ। अवधूत व्यक्तिगत निष्ठा से छोटे छोटे दलों में विभाजित होकर साधना में लीन हो गए।
फिर एक समय ऐसा आया जब शैव वैष्णव द्वेष चरम पर आया। नवोदित वैष्णव पंथ ने चुन चुन कर शिव मंदिरों और शैव मठों व साधुओं को निशाना बनाना शुरू किया। दत्त भगवान के गुरु #भगवान_दक्षिणामूर्ति शिव के स्वरूप हैं। अवधूतों को इसके प्रतिकार में शस्त्र सज्जित होना पड़ा।
शंकराचार्य के आगमन से शैव वैष्णव द्वेष जरा ठंडा हुआ ही था कि #मुस्लिम_आक्रमण आरंभ हो गए।
अब शंकराचार्य के मार्गदर्शन में 7 #शैव_अखंड (अखाड़े) स्थापित किए गए।इसी प्रकार 6 #वैष्णव_अखंड बने।
इनमें आने वाले साधु शास्त्र और शस्त्र में पारंगत होने के लिए ही जीवन दान कर देते थे।
ये सनातन धर्म के सैनिक हैं। कड़क मिजाज, भोले, अनुशासित और धर्म के लिए प्राण लेने और देने में क्षण की देर न करने वाले।
*ये आपके भांड प्रवचनकार या फिल्मी संत नहीं हैं।इनका अपना संविधान है।वही इनका आचरण तय करता है।*
आज जो इतने पाखंडी सनातन को खोखला कर रहे हैं इन पर कभी नागाओं का भय होता था।
जब कहीं कोई भगवाधारी दिखता ये पड़ताल करते कि परंपरा से है या नहीं। न होने की दशा में या तो परंपरा से भगवा धारण करना होता था या प्राण देने होते थे।
#आज_करते_ढोंगी_हैं_भरते_संत_हैं।
औरंगज़ेब को प्रयाग में #जूना_अखाड़े ने घुटने के बल बैठाया था और जहाँगीर को #महानिर्वाणी_अखाड़े ने हरिद्वार से उल्टे पैर भगाया था।
सभी अखाड़ों के लाखों साधु अबतक #रामजन्मभूमि के लिए #आत्मोत्सर्ग कर चुके हैं।
1857 की क्रांति के पहले बंगाल में #संन्यासी_विप्लव हुआ था जिसमें चिमटों,तलवारों,त्रिशूलों व भालों से ईस्ट इंडिया कंपनी के तोपखाने को बिखेर दिया था नागाओं ने।उसी पर #बंकिमदा की कालजयी रचना #आनंदमठ है।
आज भी ये सेना सक्षम है।सबल है।इसका सम्मान करें।
#अज्ञेय