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हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास – 28

सर सैयद अहमद को आज तक की घटनाओं की शृंखला से जोड़ कर देखना हो तो हम कहेंगे, हिन्दु ओं और मुसलमानों को धार्मिक अलगाव से पृथक एक अलग कौम के रूप में, जिसे उनके लेखों और व्याख्यानों के अंग्रेजी अनुवादकों ने नेशन के रूप में अनूदित किया है, पेश करने के लिए जिम्मेदार मान सकते हैं। यदि उनको अपने काल में रख कर देखना चाहें तो हम उनको अपनी कौम के लिए एक युगान्तरकारी व्यक्ति कह सकते हैं जिसे समझने में हमे तुलसीदास की अपने समय की बेचैनी से कुछ मदद मिल सकती है।

कहते हैं अपने अन्तिम दिनों में अपने कई सपनों को पूरा करने के बाद भी वह निराश हो चले थे क्योंकि उनके प्रयत्नों का इच्छित परिणाम नहीं निकला था।
n the beginning of 1898 he started keeping abnormally quiet. For hours he would not utter a word to friends who visited him. Medical aid proved ineffective.
आजीवन अपनी कौम की बेहतरी के लिए काम करने वाले इस व्य‍क्ति की इस निराशा को भी कुछ दूर तक तुलसी की व्यग्रता – कबहुं न नाथ नींद भरि सोयो – से और अपने अनुपम कार्य की अपर्याप्तता के बोध – न कियो ही कहू, करिबो न कछू, कहिबो न कछू मरिबोई रह्यो है- से समझा जा सकता है।

अपने ही समुदाय के पुरातनवादी लोगों का कुछ वैसा ही विरोध और ऊपर से उर्दू को हिन्दी प्रदेश की मान्य भाषा बनाने में आने वाली रुकावटें ।

अंग्रेज अपने ‘न्याय’ के अनुसार कभी उर्दू को उभारते और उसे फारसी बोझिल बनाने की सांप्रदायिक दलील देते जैसे उस समय के एक आईसीएस अधिकारी और राजनीतिक जरूरत से भाषाविज्ञानी बने जान बीम्स कर रहे थे जिन्हों ने तीन खंडों में उसी महत्वाकांक्षा से comparative grammar of Indo-Aryan languages, लिखा था जिसकी पूर्ति काल्डंवेल ने comparative Grammar of Dravidian languages लिख कर की थी और उत्तर को दक्षिण से, दक्षिण के बीच दरारें डाल कर, श्रीलंका के निवासियों को द्रविड़ो के विरोध में उकसा कर किया था।

फैलन दूसरे पाले से खेलते हुए हिन्दुस्तानी या सर्वबोधगम्‍य भाषा का पक्ष ले रहे थे। हम फैलन की नीयत पर सन्देह नहीं कर सकते क्यों ‍कि यह हमें सही लगता है और फैलन ने आम जनता के बीच रहकर काम भी किया था, परन्तु यह खेल तो दोनों पालों से खेले जाने पर ही जारी रह सकता था।

उर्दू की मांग पर बिहार के गवर्नर ने यह घोषित कर दिया कि यह तो विदेशी भाषा है। अब उत्तर प्रदेश के गवर्नर को उस फैसले को बदल कर निचली अदालतों की भाषा उर्दू बनानी थी। मगर यह जान बीम्स की सुझाई हुई उर्दू थी जिसे हिन्दुस्तान का आम आदमी नहीं समझ सकता था और जिसकी भाषा मुगलकालीन अदालती भाषा रखी गई थी। अब यह भाषा जनता को ठगने वालों की भाषा बन कर स्वीकृति पा रही थी।

सर सैयद को भाषा की नहीं भाषा के माध्यम से भारत पर मुगलकालीन संस्कृति के वर्चस्व की चिन्ता थी और इसमें वह कोई समझौता नहीं चाहते थे। इसके लिए वह किसी सीमा तक जा सकते थे और इसकी चिन्ता उनके अन्तिम दिनों की प्रधान चिन्ता मानी जा सकती है क्यों कि अपने इन्तकाल से पहले या कहें बेहोशी की स्थिति में पहुंचने से पहले उन्होंने जो अपने जीवन का अन्तिम लेख लिखा था वह उर्दू को ले कर ही था।

हम आज के लोकतान्त्रिक मूल्‍यों को रख कर सोचें जिसमें सर्वजनग्राह्य या बहुजनग्राह्य भाषा लोकोपयोगी होती है, तो यह अत्या चार प्रतीत होगा। अत्याचार यह था भी क्यों कि जिस तुलसी की पीड़ा का हम हवाला दे आए हैं उनका मानना था कि सार्वज निक हित (सबकर हित) सर्वोपरि है और इसलिए हम यह भी मान सकते हैं कि सैयद अहमद तुलसी से ढाई तीन सौ साल बाद में और एक नए खरल में पिसने के बाद भी उससे अधकचरे रह जाते हैं जहां तुलसी एक सिद्धान्त कार के रूप में पहुंच चुके थे।

हमें तुलसी की समाजदृष्टि को तुलसी के जीवनानुभव से देखना चाहिए और सर सैयद की समाजदृष्टि को उनके जीवनानुभवों से।

सर सैयद का पालन मुगलकालीन दरबारी परंपरा में हुआ था और उनकी चिन्ता के केन्द्र में मुस्लिम समाज का केवल अभिजात वर्ग था। जमींदारों और रियासतदारों अर्थात् रईसों को ही वह उस कौम का हिस्सा मानते थे जिसकी दशा में निरन्तरर गिरावट आ रही थी। घटनाचक्र जिस तरह का मोड़ ले रहा था उसमें कल का बादशाह पर्दा बदलते ही भिखारी हो सकता था। शासकों के जिस समर्थन पर इन रईसों का दबदबा बना हुआ था उसके उठ जाने पर वे अरक्षणीय होते जा रहे थे इसलिए उनकी पहली चिन्ता इस गिरावट को रोकने की थी। यह अब लौ नसानी अब न नसैहों का एक भिन्न पाठ था। जो लुट गया वह लुट गया अब और न लुटेंगे।

इस मानसिकता को समझने के लिए किसी ढाल पर अज्ञात गहराई की ओर सरक रहे किसी व्यक्ति की घबराहट की कल्पाना करें। उसका क्या प्रयत्न होगा? अब और नीचे नहीं, जहां पहुंच गए हो वहां खूंटे की तरह जम जाओ, गिरावट से बचो, फिर ऊपर उठने की सोचो, पर नीचे एक इंच भी नहीं।

ब जो समतल धरातल पर जांचने पर पश्चगमन जैसा प्रतीत होता है, वह पुनरुत्थान का एक प्रयास बन जाएगा। सामान्य मानकों पर जो अन्यायपूर्ण प्रतीत होता है और जिनकी इससे हानि होनी थी उनके लिए तो यह घोर अत्याचार था, परन्तु 1865 में जब बनारस से यह मांग उठी कि नागरी लिपि को भी स्वीकृति मिले तो सर सैयद आतंकित हो गए। क्यों ? प्रस्ताव यह तो न था कि उर्दू लिपि को हटा कर नागरी लिपि को चालू किया जाय। दोनों का चलना सर सैयद को क्यों परेशान कर गया और इस प्रतिक्रिया पर क्षुब्ध हो कर भारतेन्दु काे उर्दू का मर्सिया लिखना पड़ा था। यह शोकगीत से अधिक एक व्यथा का उद्घाटन था।

परन्तु सर सैयद की चेतना में कहीं हंटर विद्यमान था या उनका अपना अनुभव भी इसका साक्षी रहा हो, कि फारसी को राजकाज की भाषा से हटा देने के बाद हिन्दुओं को आगे बढ़ने का ऐसा अवसर मिला कि वे सारे पदों पर काबिज हो गए। जो खो चुके वह खो चुके, अब आगे एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे, यही वह जिद थी जो उनकी, हमें प्रतीत होने वाली हठधर्मिता में परिलक्षित होती है, जिसे उनकी नजर से देखें तो आत्मरक्षा का संकल्प प्रतीत होगी।

इसे अकेले वह नहीं अनुभव कर रहे थे, हाली और दूसरे भी इसी तरह अनुभव कर रहे थे जिसका सार यह था कि बन्धुता तभी तक जब तक हिन्दू यह मानने को तैयार रहें कि हम कल तक मुसलमानों के शासन में रहे हैं, कंपनी ने मुसलमानों से सत्ता प्राप्त की थी और उसे यदि ऐसी नौबत आए तो लौटाना भी मुसलमानों को होगा। यदि वे इसमें बदलाव के लिए कृतसंकल्प है तो यह रिश्ता नहीं चल सकता।

इसे हम उस लेख के एक अंश को उद्धृत करते हुए अधिक सलीके से रख सकते हैं जो उनकी वर्षगांठ पर लिखा गया था: As early as the 1870’s Hali wrote, “The erstwhile spirit of friendship which had existed between the Hindus and Muslims no longer exists and the fact can be felt throughout India.” In 1867 the Hindus began the now well known Urdu-Hindi controversy from the city of Benaras. About this period, Sir Syed says, “One day I was talking to Mr. Shakespeare, Commissioner of Benaras, about the education of Muslims when he looked towards me in astonishment and said ‘Syed this is the first time that you talk about the welfare of Muslims alone. You had always talked of the Indians as a whole.’ In reply I said that I am sure that from now on Hindus and Muslims will not participate as one in any effort with sincerity.”
Syed went on to say that with the passage of time this difference will widen because of the relative differences in the numbers of educated people in the two communities. The Hindus who did not have any ideological animosity towards Western learning had taken up officially supported education very early on. By this time, they enjoyed a clear edge over the more hostile Muslims, who still held on to a false hope, an almost romantic dream, of a magical reversal of fortunes. “Whoever lives will see the truth of my words.” In reply, Mr. Shakespeare said, ”If your prophecy is correct, I would be very sorry.” Syed replied, “I have more pain in my heart, but I am sure about my prophecy.”
सैयद अहमद की भविष्यवाणी को उनके उत्त राधिकाारियों ने पूरा किया।
हमें यह ध्यान रखना होगा कि सर सैयद अभिजातवादी थे, जनतांत्रिक नहीं, इसलिए हिन्दी उन्हें गंवारों की, अर्थात सार्वजनिक भाषा प्रतीत होती थी और वह उन संस्कारों में पले थे जिसमें सार्वजनिकता छोटों को मुंह लगाने और कमीनों को अपनी बराबरी पर बैठाने को गर्हित माना जाता था। हिन्दू अभिजाात वर्ग इन संस्कारों से मुक्त था यह कहना पक्षपात होगा, परन्तु हिन्दी आरंभ से अपने तेवर में जनतांत्रिक थी।

इसे ही आक्रामक संस्कृति और देशज संस्कृकति का बुनियादी अंतर मान सकते हैं। भाषा पर हंटर कमीशन के सामने सर सैयद की इस भर्त्सना के बाद कि हिन्दी गंवारों की भाषा है, भारतेन्दु का यह पलट वार कि उर्दू कोठों और शोहदों की और तफरीह करने के लिए वहां पहुंचने वाले मनचले हिन्‍दुओ की जबान है, दो अतिवाद हैं जिनमें समझदारी की संभावना उन्नींसवीं शताब्दीर में ही कम हो गई थी। हां हम कह सकते हैं कि सर सैयद का हिन्दू और हिन्दीा के प्रति नफरत पहले छिपी थी, अब प्रकट हो गई पर यह मुस्लिम अवाम के प्रति भी कार्यसाधक संबंध रखती थी।

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