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झप्पी, hug या गले लगने-लगाने के पश्चात उत्पन्न केमिकल लोचा अत्यंत सुंदर प्रभाव लिये होता है. इस प्रक्रिया में होने वाली रासायनिक क्रियाओं के बारे में तो कोई जानकार ही बता सकता है, पर पडने वाला प्रभाव अथवा असर, हर किसी के लिए एक अलग अनुभव होता है! ह्रदयंगत भावनाओं के निशब्द संप्रेषण का सबसे शक्तिशाली व प्रभावशाली तरीका है, गले लगना-लगाना या झप्पी....

"ए....किती उत्कृष्ट अभिनय केलंस ग तू!! आणि दिसतेस किती सुंदर!!! (क्या शानदार अभिनय किया तुमने!! और कितनी सुंदर हो तुम!!!)"

लगभग इन्हीं शब्दों के साथ सब प्रशंसा कर रहे थे उसकी. वह दिख भी सुंदर रही थी. गौर वर्ण उसपर गहरी भूरी आंखें, चार चाँद लगा रहे थे उसकी खूबसूरती में! उपस्थित कुछ छात्राओं ने तो गले लगाकर प्रशंसा की....

मेरे शहर के S.A. Arts College की मराठी एकांकिका, "एक होता औरंगजेब!", इस वर्ष की उनकी प्रविष्टि थी स्पर्धा की. हम लोग अपनी हिंदी एकांकी, "अटैंशन प्लीज" के प्रयोग की प्रतीक्षा में, नागपुर के वसंतराव बूटी हॉल के मंच की विंग्ज में खडे थे. इस मराठी नाटक के बाद ही नंबर था हमारा. एक ही शहर से होने के कारण जानते थे सबको. इस लड़की ने मुमताज़ का रोल किया था. पूरे नाटक में एक भी संवाद न था उसका, पर अपनी खूबसूरती और बेहतरीन अदाओं से दिल जीत लिया था उसने सबका! जब भी कोई लड़की झप्पी देती, वह अपनी आंखों में शरारत लिये, हमारी ओर देख लेती. जो दो चार मौके ऐसे आए, हर बार सीने में दिल उछल पड़ता हमारा!

"अबे, ये लड़कियाँ भी न....लड़कों को बधाई देते नानी याद आती है....यहाँ देखो! इसको हटाओ यार इधर से...."

एक बोला हममें से....मन में सभी के यही था. दो मित्र आगे बढे;

"चलो, हो गई बधाई-प्रशंसा? शायद अब कोई नहीं रहा, चलो अब. स्टेज भी तो खाली करना है...", एक ने कहा तो वह मुस्कुराने लगी!

निकलने को ही थी कि सामने की विंग से, प्राध्यापिका गोखले को आतीं देख, ठिठक गई. ये महोदया स्पर्धा की जज थीं. बडी खुश थीं, मुमताज़ के अभिनय की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए, बडे प्रेम से उसे पास बुलाती हुयीं बोलीं;

"ये....अशी, जवळ ये जरा...(आओ....जरा पास आओ मेरे..)", लड़की के चेहरे पर असमंजस के भाव थे....

करीब था कि वे अंक में भर लेतीं उसे कि.......

"मैम, माफ करना.....पर वो क्या है न कि.... मैं लड़का हूँ, .....नंदू बिसेन नाम है मेरा!"

मैम चिंहुक पडीं. उनकी मुखमुद्रा पर दुनिया भर का आश्चर्य था. अपनी झेंप मिटाने के लिए उन्होंने फिर कसीदे पढ़े नंदू की अभिनय कुशलता के, और चल दीं....किंतु इस बार उनकी चाल पहले सी सहज नहीं थी!

हम लोगों का बुरा हाल था हँसी के मारे....हँसते-हँसते ही हममें से एक ने पूछ लिया;

"क्यों बे....लडकियों से तो बडे मजे में गले लगा, अब क्या हुआ? साले, डर के मारे जान गले में अटक गई थी न हम सबकी!"

"नहीं यार....शरारत की मेरी सीमा थी. मैम के साथ कैसे लांघ सकता था इसे मैं? माना कि हमारी कॉलेज की नहीं हैं, पर हैं तो गुरु! अनुचित होता यह...."

"हाँ क्यों नहीं? यहाँ तो पुरस्कार दांव पर था न...."

सचमुच! प्राध्यापिका गोखले ने उस वर्ष का अभिनय का उत्तेजनार्थ पुरस्कार, नंदू के नाम घोषित किया तो कईयों के आश्चर्य की सीमा न थी. अनेकों को अब भी विश्वास न हो रहा था कि मुमताज़, एक लड़की न होकर कोई लड़का था!

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