हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-36
यहां उनका उद्देश्य पश्चिमी जगत की सफलता से अभिभूत होकर, उनकी सामाजिक विकृतियों को भी श्लाय मान कर उसे अपनाने से नई पीढ़ी को बचाना था। मुसलमानों के प्रति वे लगभग उदासीन थे..
हिन्दु्त्वन के प्रति घृणा का इतिहास – 36
(तब की तब देखी जाएगी)
मुझे इस बात का क्षीण बोध है कि मैं सर सैयद पर लगातार बात करते हुए अपने मित्रों की उदासीनता को बढ़ा रहा हूं परन्तु हमारी समस्याओं के मूल में उनकी बेचैनी और उस बेचैनी में लिए गए निर्णय हैं जिनकी परिणतियों से बाद का घटनाक्रम प्रभावित हुआ। उसे समझने के लिए उनके ऐसे पक्षों का पुनरीक्षण जरूरी है जिनके भिन्न विकल्पा संभव थे। उनकी ओर ध्यान न जा पाना उनके कद को भी प्रभावित करता है। इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि उन्नीसवीं भारत के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास में उससे अधिक तीखा मोड़ है जिसे हम स्वाधीनता के अवसर पर पाते हैं। उसके सभी पक्षों के विस्तर में जाने की योग्यता मुझमें नहीं हैं। भारतीय दृष्टि से देखें तो इस शताब्दी की सोच संप्रदाय सापेक्ष थी और सभी समुदायों में एक प्रतिरक्षा युक्ति (डिफेंस मैकेनिज्मस) काम कर रही थी। इसके अन्य कारणों में एक कारण यह भी था कि उनकी आवाज अपने समुदाय के भीतर ही सुनी जा सकती थी।
राजा राममोहन राय और उनका ब्रह्म समाज हो या स्वासमी दयानन्द का आर्य समाज सभी में अपने समुदाय को बचाने की चिन्ता व्याप्त थी। परतु ब्रह्म समाज और आर्यसमाज को मुसलमानों से कोई शिकायत न थी। उनमें ईसाइयत के दबाव और पश्चिम की एक उन्नत और आधुनिक सोच और तकनीकी से लैस संस्कृित के दबाव से हिन्दू समाज और भारतीय मूल्यों को बचाने की चिन्ता प्रधान थी। उनकी चिन्ता अपने भीतर वह लोच और ग्रहणशीलता पैदा करने की थी जिसमें आत्म निरीक्षण, पुनर्मूल्याकन संभव हो सके। उन्हें एक ऐसे सांस्कृतिक आधार की तलाश थी जो समाज को बहकने से और अपनी पहचान खोने से बचाए रख सके। एक ओर तो वे अपने समाज की विकृतियों – सतीप्रथा, बालविवाह, अनमेलविवाह, परदाप्रथा, सामाजिक भेदभाव को दूर करने के लिए प्रयत्नशील थे, दूसरी ओर उपनिषद और वेद के उज्वल पक्ष को उभारते हुए अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता में विश्वास जगाना चाहते थे और तीसरी ओर अंग्रेजी शिक्षा को अपनाते हुए इस समीक्षा में लगे थे कि वे कौन से गुण हैं जिनके कारण अंग्रेज हमसे आगे निकल चुके हैं।
यहां उनका उद्देश्य पश्चिमी जगत की सफलता से अभिभूत होकर, उनकी सामाजिक विकृतियों को भी श्लाय मान कर उसे अपनाने से नई पीढ़ी को बचाना था। मुसलमानों के प्रति वे लगभग उदासीन थे, क्योंकि शिक्षा को छोड़ दूसरी समस्याायें उनके अपने समाज तक सीमित थीं, और अनेक स्तरों पर , अनेक रूपों में फारसी का चलन अब भी बना था, जिसमें मुसलमान उनसे आगे थे, अत: उन पर उनकी पहल का प्रभाव नहीं पड़ सकता था।
स्वामी दयानन्द के विषय में यह अवश्य कहा जा सकता है कि वह ब्राह्मणवादी और वर्णवादी हिन्दुत्व्, जैन मत, ईसाइयत और इस्लाम सभी की सीमाओं और बुराइयों की आलोचना करते हुए एक नये समाज की स्थापना करना चाहते थे जो अधिक संगठित हो और अपने दृष्टिकोण में अधिक प्रगतिशील हो। यह अकारण नहीं है कि दयानन्द सरस्वती के प्रभाव क्षेत्र में क्रान्तिकारी पहल या साम्यवादी आन्दोलनों से आकर्षित होने वाले हिन्दू युवक आर्यसमाजी पृष्ठ भूमि के परिवारों से आए थे ।
हम सर सैयद को आज की अपेक्षाओं या उनसे बाद के परिणामों से मापना चाहें तो यह अन्याय होगा, परन्तु वह अपने समय के दूसरे नेताओं से प्रेरणा क्यों नहीं ग्रहण कर सके, यह अवश्य उनके मूल्यांकन को प्रभावित करता है।
इसका एक कारण तो यह लगता है कि उनको सीधी चुनौती ईसाइयत से नहीं अनुभव हो रही थी। मुसलमानों के धर्मान्तरण पर ईसाइयों का अधिक जोर भी नहीं था, क्योंकि एक ही किताब से निकली किताबों से जुड़ाव के कारण उनका अलग कोई वैचारिक टकराव न मूल्यों को ले कर था, न विश्वास या जीवनदृष्टि को लेकर। अत: अपने समाज की विकृतियों की ओर उनका ध्यान नहीं गया, गो इस ओर ध्यान गया कि अपनी किताबी जकड़बन्दी को तोड़ कर वे ज्ञान-विज्ञान में इतनी प्रगति कर गए हैं। जाे काम वे कर सके वह हमसे भी हो सकता है। वह यह समझाना चाहते थे कि मूल किताब जिसमें ही दिमाग को बंद करके विश्वास को अन्ध विश्वास तक पहुंचाने वाले जो तत्व विद्यमान हैं उनकी उपेक्षा की जानी चाहिए। उन्हें मार्टिन लूथर हस्तक्षेप का पता रहा होगा और इसलिए वह कुरान की सर्वबोधगम्य नई व्याख्या करते हुए यह समझाना चाहते थे कुरान के विधान और विज्ञान की स्थापनाओं के बीच विरोध नहीं देखना चाहिए और पुरानी अनमेल बातों को छोड़ कर अपने ज्ञान का विस्तार करना चाहिए। मुस्लिम समाज जिस जाहिलिया से मुक्त होने के भ्रम में सचमुच जाहिलिया में कैद है उसमें उनका विरोध होना ही था और हुआ भी।
सच कहें तो यूरोप के रेनेसां के चरित्र को समझने में हमसे चूक होती आई है और उस रहस्यमय सूत्र को समझने में भी चूक होती है जिनमें ऐसे तारकिक विचारों, व्यवहारों और मूल्यों को, जिनका पहले दमन या तिरस्कार किया जाता था, व्यक्त करने का साहस पैदा होता है। मेरी अपनी समझ यह है कि आधुनिक यूरोप धर्मयुद्धों से मिले अपमान के बाद पराजय के कारणों की छानबीन और अरबों की विशेषताओं को अपनाने के प्रयास से पैदा हुआ।
अकारण नहीं
है कि यूरोप के नई सोच वालों का इतिहास पता करें तो उनको अरब
शिक्षाकेन्द्रों से शिक्षा ग्रहण करते पाते हैं, यूरोप के नए विज्ञानों
में अल् पूर्वपद वाले शब्द मिलते हैं, अलकेमी, अलकोहल, अलजब्रा, अल के घिसे
रूप ला ले आदि। जिस स्पेन पर अरब प्रभाव सबसे गहन था उससे और उसके पड़ोसी
पुर्तगाल में नौवहन का वह जुनून पैदा होता है कि कोलंबस और वास्को डि
गामा यूरोप के सपनों के देश भारत तक पहुंचने के लिए अरबों की दरिंदगी से
बचते हुए नए रास्तों की खोज में निकल पड़ते हैं और मध्यकालीन दुनिया से
आधुनिक विश्व का हिरण्यगर्भ पैदा होता है जिसके विस्फोट से कई चीजें पैदा
होती है।
ध्यन रहे कि रोमन साम्राज्य और उसके आपूर्ति तन्त्र के नष्ट
हो जाने के बाद यूरोपीय देशों के लिए भारत तक पहुंचने का रास्ता अरबों
द्वारा नियंत्रित क्षेत्र से गुजरता था और उसमें उनकी शर्तें लागू होती थीं
जिसके कई परिणाम हुए । भूमध्य सागर के यातायात पर भी अरबों का अधिकार, लाल
सागर को जोड़ने वाले भाग पर जिसे समाप्त करने के लिए बाद में स्वेज नहर
बनानी पड़ी, अरबों का अधिकार, और उसके बाद के चीन तक के तटीय क्षेत्र पर
अरबों के अड्डे। अर्थात् व्यापार तंत्र पूरी तरह अरबों के हाथ मे आ गया था
और इस मनचाहे लाभ से पैदा हुई वह आर्थिक सम्पन्नता जिसमें राग रंग, जुआ,
मुनाफाखोरी आम हो गई और इन बुराइयों में अपना होश गवां रहे अरबों के बीच एक
निग्रहवादी विचारधारा पैदा हुई जिसे हम इस्लाम कहते हैं। तुम नाचोगे
नहीं, गाओगे नहीं, बजाओगे नहीं, नशे से या दिमाग को भटकाने वाली चीजों से
परहेज करोगे । किसी इंसान की इबादत नहीं करोगे, उसके आगे झुकोगे नही, अपनी
मूर्ति नहीं बनाओगे और मूर्ति में आस्था नहीं रखोगे, आदि। कुछ एकेश्ववाद का
प्रभाव भी था।
मैं यह याद दिलाना चाहता हूं कि अपने समय को देखते हुए न
तो सर सैयद यह देख सकते थे कि विचारों का भी एक आर्थिक आधार होता है, न
उन्हों ने देखा। वह समझते थे कि व्याख्या से यह काम भी पूरा हो जाएगा। वह
अपने उत्साह में शायद अपने प्रवर्तित धर्म की सीमाओं को नहीं समझ पाए या
भिन्न्न रूप में समझा जिसे मैं समझ नहीं पा रहा ।
इन कारणों से उनको अपना सबसे बड़ा शत्रु बंगाल का हिन्दू समाज लग रहा था जिसने ऐसे सारे सरकारी पदों पर अधिकार कर रखा था और पांच दशक आगे बढ़ चुका था। उससे आगे बढ़ने का एक ही तरीका था, विविध उपायों, कार्यो और वक्तव्यों से अंग्रेजी सरकार को खुश और अपने समाज को शिक्षित करना ताकि वे उच्चतम पदों पर जल्द से जल्द पहुंच सकें। तब की तब देखी जाएगी। सर सैयद ने अपनी संस्था बनाने या अपना कालेज स्थापित करने में अंग्रेजों से कोई िवशेष अनुदान नहीं लिया। शिक्षा के बिना अवसर मिल नहीं सकता था अत: यह काम वह उनके सहयोग के बिना, उनके मार्गदर्शन के बिना भी कर सकते थे। जितनी आवश्यकता वह मुसलमानों की दशा सुधारने की अनुभव कर रहे थे, उतनी ही बेताबी से अंग्रेज प्रशासनिक संतुलन के लिए मुसलमानों को भी साथ ले कर चलना चाहते थे। उन्होंने सरसैयद की उत्कंट लालसा का लाभ स्वयं उठाया और वह उनके हाथ में मुहरा बन कर खेलते रहे, जिससे बचा जा सकता था। तात्कालिक व्याग्रता और संयम के अभाव का लाभ अंग्रेजों ने अपने कूटनीतिक लाभ के लिए उठाया और इस सिरे से देखने पर वह अपने समय के हिन्दू नेताओं से पीछे दिखाई देते हैं। उनका अधिमूल्यन हुआ मूल्याकन न हो सका।