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#SLB_Padmavati समझते हैं सफर कलम की जिहाद से फिल्म की जिहाद तक

अनारकली का असली चित्र तो कहीं मौजूद नहीं लेकिन लोगों के मनों में मधुबाला ही फिट है । अगर असली अनारकली की तसवीर कहीं मिल भी जाये तो भी तुलना मधुबाला से होगी और अगर बीस भी नहीं, कम से कम उन्नीस के सामने पच्चीस नहीं होगी तो उसे फर्जी भी घोषित कर देंगे लोग । लोगों के मनों में मधुबाला ही अनारकली है और रहेगी ।

ये इस माध्यम की ताकत है । मुग़ल ए आजम एक ताकतवर फिल्म थी । अगर और संसाधन होते और पूरी फिल्म टेक्निकलर में तब बनती तो हॉलीवुड के बराबरी की होती । महलों के सेट्स छोड़िए, युद्ध की शूटिंग भी अफलातून है । बरसों बाद चोपड़ा की महाभारत में युद्ध - खेल लगते थे, यहाँ असली ।

इतिहास की समस्या यह है कि उसे मानते सब हैं, जानते कितने हैं ? जानने में कठिनाई यह है कि काफी क्लिष्ट विषय होता है, और तारीख, वार, तिथि काफी कुछ देखना होता है, जांच परखना होता है । बात समझ में न आए तो बता दूँ, अगर किसी लड़ाई का आँखों देखा वर्णन मिले तो देखना होगा तारीख क्या है । तब अङ्ग्रेज़ी तारीख न चलती थी, शक थे, वह भी जानना होगा कि लिखनेवाला कौनसा शक फॉलो कर रहा है । दिन के आठ प्रहर होते थे, 24 घंटे अङ्ग्रेज़ी सत्ता के बाद आए । इस्लामी कालमापन भी अलग अलग था, लिखने को विषय बहुत लंबा खींचेगा और बात बोरिंग होगी ।

यही बात है - बात बोरिंग होगी - इसलिए इतिहास के जानकार अभ्यासक कम होते हैं । अपने यहाँ वो इतनी rewarding career भी नहीं है यह कम से कम मेरे लिए तो बहुत बड़े दुख की बात है क्यूंकी जब इतिहास को बांया मोड़ा जाता है तो इस विषय के निष्पक्ष ज्ञाता का महत्व समझ में आता है ।

खैर, अनारकली या मधुबाला का जिक्र इसलिए किया कि वो कब थी, कहाँ उसे मारा गया, वो तारीख क्या थी, मारा गया भी या नहीं, दीवार में दबाया गया या बतौर फिल्म, भगाया गया, अनारकली थी भी या केवल एक काल्पनिक कथानक है इसपर हमारे पास आधिकारिक जानकारी कम है लेकिन उसने लता जी के आवाज में प्यार किया तो डरना क्या और ये जिंदगी उसी की है ये दोनों गाने जरूर गाये होंगे यह माननेवाले मिले तो आश्चर्य नहीं । कम से कम वो मौजूद थी इस पर तो हर भारतीय धर्म निरपेक्षता से सहमत होगा । जानकारी जरूरी नहीं ।

महाभारत या रामायण के कई प्रसंग हम सभी को कम ज्यादा स्मरण होंगे लेकिन महाभारत या रामायण कितनों ने संस्कृत में पढ़ी है ? कितनों के संस्मरण उपन्यासों से या काव्यों के निकलेंगे? और वे क्यों याद रहे आप को?

क्योंकि वे पढ़ने में रोचक थे । रुचिपूर्ण बनाकर परोसे गए थे । गैरंटी से कहता हूँ कि आप के मन में वे ही प्रसंग जिंदा और सत्य होंगे और हो सकता है आप ने उनको प्रमाण मानकर मित्रों से बहस भी की होगी कभी । ये कलम की ताकत थी । आज वही ताकत फिल्म की है ।

जरूरी है इसलिए बात को जरा भटकाता हूँ । एक अङ्ग्रेज़ी फिल्म थी Spartacus । Kirk Douglas नायक था, और भी कई दिग्गज थे । कई अवार्ड जीते थे, और बहुत बेहतरीन फिल्म थी । एक ही ऐसी फिल्म होगी जिसे मैंने दस से अधिक बार उतने ही चाव से देखा हो । हर बार मुट्ठियाँ भींची, आँसू भी बहे । यह बात इसलिए बता रहा हूँ कि यह Spartacus नाम के उपन्यास पर आधारित थी । लेखक थे Howard Fast और फिल्म की पटकथा भी उन्होने लिखी थी । इन बातों पर मैं ध्यान नहीं देता अधिक, बस फिल्म एंजॉय करता हूँ इसलिए देखा नहीं था ।

हाल में पता चला कि वे एक नामचीन वामी थे । पूरे रईसी से जिये यशस्वी होने पर, कोई त्याग वगैरा नहीं किया था, लेकिन उनकी कलाकृतियाँ जनता को उकसाने के लिए वस्तूपाठ हैं । वही कन्हैया कुमार का आइफोन 6 लेकर माँ के तीन हजारीपन का RR जैसा ही कुछ समझिए । एक एक प्रसंग याद आया स्पार्टाकस का, कहाँ मुट्ठियाँ भींची थी, कहाँ आँसू निकले थे और इस वक़्त उस प्रसंग का कथानक में संयोजन और प्रयोजन भी समझ में आया । फिर एक बार Spartacus देखी लेकिन बतौर फिल्म नहीं - इस वक्त उसका propaganda tool के हिसाब से अभ्यास किया । अब फिर कभी देखूंगा तो पता नहीं किस नजर से देखूंगा, लेकिन अब वो पहलेवाला नजरिया तो पक्का नहीं रह पाएगा ।

हिन्दू वीरों पर कितनी हिन्दी फिल्में बनी हैं ? सिकंदर भी ग्रीक था, मुसलमान नहीं, सो विषय सेफ था । मनोज कुमार याद है आप को ? भारत कुमार नाम से उपहास उड़ाया जाता है उनका । हाँ, उनकी फिल्में कुछ खास नहीं थी, जरा लाउड ही थी, लेकिन किसी और काबिल निर्माता दिग्दर्शक ने वो genre में हाथ ही नहीं डाला ।

अगर कहूँ कि बॉलीवुड में हिन्दू वीरों पर हिन्दी फिल्में बनती तो उसमें उनकी वीरता ज़्यादातर किसके सामने दिखाई जाती ? तो क्या हमारे वीरों की कहानियाँ कॉंग्रेस सरकार के ज़बरदस्ती के थोपे सांप्रदायिक सद्भाव की बलि चढ़ गई हैं ? मुगलों को महान कहना आसान था, इतिहास भी वही पढ़ाया जा रहा था और जहां तक किसी हिन्दू वीर का अपमान या पराभव न दिखाओ तब कोई आपत्ती नहीं थी । रोमांस तो रोमांस है, सब को मजा आता है ।

चार तरह के जिहाद गिनाए गए हैं, मजहब को फैलाने के लिए । कलम की जिहाद उनमें एक है । आज कलम की जगह अगर तुकबंदी करनी है तो फिलम की जिहाद कह लीजिये । कितने फिल्मों में पंडित पोंगा होता है, साधु ढ़ोंगी होता है लेकिन आज तक कोई फकीर बदमाश दिखाया किसी ने ? अच्छा भजन नई फिल्मों में सुनाई नहीं देता लेकिन मौला मौला कितने फिल्मों में है?

बात अनारकली की नहीं, बात हमारे इतिहास को फिलम जिहाद के हाथों हलाल करने की है । अब भंसाली महारानी पद्मिनी पर फिल्म बनाएँगे । जिनके बारे में मान्यता यह है कि उनके अद्वितीय सौन्दर्य के लिए अल्लाउद्दीन खिलजी पागल हुआ । रानी न मानी और जब आन पर बात आई तो उस क्षत्राणी ने जोहर किया ।

आज फिल्मों में पैसे किसके लगते हैं यह खुला राज है । जो पैसे देगा वो तय करेगा कि गाना कैसा होगा । रानी पद्मिनी की कव्वाली तो नहीं लिखेंगे भंसाली ? सेक्युलर जीव हैं, इसपर ढेर सारे अवार्ड भी पा सकते हैं, दुबई में फंक्शन कराकर, क्या नहीं?

दंगल, फैन, रईस की तरह इस फिल्म जिहाद को सिर्फ फ्लॉप करने से काम नहीं चलेगा । क्यूंकी अगर फिल्म बनेगी तो रेकॉर्ड में तो दर्ज ही होगी । फिर हैदर जैसे इंटरनेशनल अवार्ड भी दिये जाएँगे, जान बूझकर ऑस्कर भी दिया जाएगा और आनेवाली पीढ़ियों के लिए रानी पद्मिनी का कैरक्टर कुछ अलग ढंग का इतिहास बनकर प्रस्तुत होगा । अब से ही वे जल कर मरने की बात हो रही है । टेकनिकली सही है, लेकिन क्या जोहर सिर्फ जल कर मरना होता है? इसलिए इस फिल्म का ऐसे भाड़े के सेक्युलरों के हाथों बनना ही गलत होगा । ये तो कल शिवाजी महाराज को अफजल खान को अपने हाथों से बिरयानी खिलाते भी दिखा सकते हैं ।

रण छेड़ना होगा इस फिल्म जिहाद के खिलाफ । भंसाली शूट तो करेगा लोकेशन पर ही ना ?

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