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हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास- 12

''देखो इतिहास के भी कई रूप होते हैं और पुराणों के भी कई रूप होते हैं। हम जिस आधुनिक पुराण को इतिहास के नाम पर पढ़ते हैं उसमें सद्भावनावश तथ्‍यों को तोड़ मरोड़ और छोड़ कर यह विश्‍वास दिलाने का प्रयास किया जाता रहा है कि भारत में धर्मान्‍तरित होने वाले जनों में अधिकांश वे थे जिन्‍होंने वर्ण व्यवस्था के अपमान से तंग आकर इस्‍लाम कबूल कर लिया था।

''वर्णव्‍यवस्‍था की अपनी कमियां हैं जिनका समर्थन नहींं किया जा सकता। हाल के दिनों में इसकी इतनी भर्त्‍सना की गई है, और योजनाबद्ध रूप में ईसाइयत के प्रचार और प्रसार के उद्देश्‍य से की गई है, कि हम इसका उल्‍लेख आते ही शर्म से डूब मरने के लिए पानी की तलाश करने लगते हैं - चुल्‍लू भर ही सही, मिले तो कहीं। परन्‍तु उससे मुक्ति की चेतना और यह मूल्‍यांकन कि दूसरा मत समानता प्रदान करेगा चेतना और ज्ञान के जिस स्‍तर की अपेक्षा रखता है, वह दलित समाजों में था, यह सोचने में अच्‍छा लगता है, पड़ताल में निराशा हाथ लगती है।

''सामाजिति न्‍याय के उत्‍साह में इसका ध्‍यान नहीं रखा गया और मैं स्‍वयं भी इसी सोच का कायल था कि ऐसा हुआ हो सकता है।

''परन्‍तु दो बातों ने मुझे इस पर पुनर्विचार के लिए बाध्‍य किया । पहली यह कि जो सचमुच दलित जातियां थीं, जैसे डोम, चमार, पासी, निषाद, धोबी, धरिकार आदि उनमें कोई धर्मान्‍तरित नहीं हुआ। दूसरी यह कि मेरे परिचित क्षेेत्र में हीन कर्म से जुड़ा कोई मुसलमान मिला तो वह था हेल्‍ला जिसका नाम ही इसकाे यूनानियों से ईरानियों में प्रचलित और उनसे भारत में आया हुआ हो सकता है, बाकी चुडि़हार, मनिहार, जुलाहे या बुनकर और दरजी थे अन्‍यथा कुछ दूरी पर नटों की जमात जो अपनी मातृसत्‍ताक कबीलाई जीवनशैली में रहता, पहलवानी और बाजीगरी करता और आल्‍हा गायन करता और उनकी पत्नियां गोदना गोदने का काम करतीं। इनसे अलग थे पीलवान या हस्तिप। भिखारियों में जोगी थे जो अपना लंबा गुदडे का कंधे से पांव तक लटकता धोकरा ले कर आते और सारंगी बजाते भरथरी का गीत गाते हुए भीख मांगते। उनके गेरुआ वस्‍त्र से उनकी पहचान अलग हो जाती। उनके विषय में दबी अफवाह यह थी कि वे एकांत में किसी छोटे बच्‍चे को पा लें तो उसे जड़ी सुंघाकर धोकरे में डाल लेते हैं और ले जा कर जोगी बना देते हैं। बच्‍चों को डराने के लिए माताएं धोकरहा पकड़ लेगा कह कर डरातीं । पास का गांव था जिसका आधा क्षत्रिय आधा खान, सभी भूस्‍वामी अत: उन‍का वर्ण व्यवस्था से सताए हुओं से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता !

''मुसलमानों के नाम पर मैं इन्हें जानता था और वयस्क होने पर गोरखपुर में अवध से आकर बसे भोजपुरी क्षेत्र के बीच अवधी बोलने वाले परिवारों को जान सका जो अवध के नवाब के गोरखपुर में इमामबाड़े की स्थापना, अवध के साथ आए इमाम, और उनके परिवार से सीधा नाता रखने का दावा करने वाले मध्यवित परिवार थे जिनमें से इमाम अपनी अभारतीय पैतृकता का दावा कर सकते थे। इन मुसलमानों में कुछ छोटी हैसियत के रिक्‍शा चलाने वाले या हेल्ला कहे जाने वाले मुसलमान हिन्दू डोमों और मुसलमान भंगियों को जो युद्धबन्‍दी राजपूतों को अमानवीय यातना और अभाव में रख्‍ा कर और गम गलत करने के लिए सस्‍ते नशे का आदी बना कर जघन्‍य कार्यो के लिए विवश किए गए थे ।

''उस समय की गोरखपुर कमिश्‍नरी में अकेले आजमगढ़ था जहां कुछ मुसलमान जमींदार थे अन्यथा बलिया, देवरिया, पुराने गोरखपुर के बंटने से बने चार जिलों में से किसी में जमींदार मुसलमान न थे । आजमगढ़ में मऊ जो अब अलग जिला है, और बस्ती में खलीलाबाद जुलाहों की बस्तियां थी जिनमें कुछ सूत और बुने कपड़े के व्यापार में लगे होने के कारण काफी समृद्ध थे। यह था वह परिदृश्‍य और इनसे प्राप्त थी वह आधार सामग्री या आंकड़ा जिसमें मुझे हिन्दुओं के इस्लामीकरण की प्रक्रिया को नए सिर से समझना पड़ा।''

वह सुनता रहा हुआ मुस्कराता रहा, जैसे इससे उसका मनोविनोद हो रहा हो !
‘‘इसकी बहुत सारी स्थापनाएं मैं पहले भी एक पोस्ट में दे आया हूं फिर भी यहां इसे दुहराना जरूरी समझता हूं! इस प्रक्रिया को समझने में हमे सबसे अधिक मदद मध्यकाल के विद्रोही कवि तुलसीदास से मिलती है जो दो अन्य विद्रोही स्वरों के तीखे विरोध में खड़े दिखाई देते हैं।’’

मैं आगे कुछ कहता कि उसने ठहाका लगाया, ‘‘तुलसीदास और विद्रोही ! जपमाला छापा तिलक, तीर्थ, व्रत, सबका समर्थन करने वाला, वर्णव्यवस्था का समर्थन करने वाला पुरातनपन्थी तुम्हें विद्रोही दिखाई देता है तो आंख के किसी डाक्टर की सलाह क्यों नहीं लेते?’’

मैं विचलित नहीं हुआ, ‘‘तुम्हारे रहते उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी। मैं यह भी नहीं कहूंगा कि तुम अपने दिमाग को सही रखने के लिए सुबह शाम शीर्षासन किया करो । मैं तुम्हें अपनी ही एक पुरानी पोस्ट की याद दिलाऊं जिसमें ईसाइयत पर विचार करते हुए दकियानूसी ईसाइयों की भूमिका को प्रगतिशील और पोपतन्त्र के कारिंदा कैथोलिकों को प्रतिक्रियावादी बताया था और यह याद दिलाया था कि दास प्रथा का विरोध हो या लातिन अमेरिका में सैनिक तानाशाही का विरोध इन दकियानूस ईसाइयों की भूमिका प्रगतिशील और किंचित क्रान्तिकारी रही है। उस समय मुझे यह ध्‍यान भी नहीं था कि कभी इस तर्क का उपयोग मुझे तुलसी के लिए भी करना पड़ेगा।’’

‘‘बात किसी तन्त्र से जुड़े प्रचारकों की नहीं एक नई सोच से जुड़े और खतरा उठाने वाले आन्दोलनकारियों की है। ‘तुमने जाग मछन्दर गोरख आया’ यह पद कभी सुना है?’’

क्या जवाब देता ऐसे सवाल का? हंसने लगा, और हंसते हुए ही कहा, ‘‘सुना है भाई, सुना है !’’

‘‘इसका अर्थ भी जानते हो ? नहीं जानते होगे, यह मैं कहता हूं! तुम्हारी सोच के दायरे में यह बात आ ही नहीं सकती। मैं बताता हूं इसका अर्थ! बौद्ध मत तंत्र का हिस्सा बन कर पंचमकार तक सिमट गया था। मत्येन्द्रनाथ, उसी के प्रतीक हैं। यह गोरखनाथ है जो उसे वर्णव्यवस्था और कर्मकांड के विरुद्ध नये सिद्ध आन्दोलन में बदलते हैं। जाग मछन्दर गोरख आया इसी का सूत्र रूप है! और कबीर के बारे में तो कुछ कहना नहीं। तुलसी गोरखपन्थ का भी विरोध करते हैं, कबीर पन्थ का भी विरोध करते हैं, और सच कहो तो रैदास की वर्ण व्‍यवस्‍था की आलोचना का भी विरोध करते हैं। नितान्त प्रतिक्रियावादी है यह कवि, प्रतिभा का जवाब नहीं, पर बाभन का बाभन रहा, दूजा भया न कुच्छ ! यह मोटी बात तुम्हारी समझ में नहीं आती। लोग यह जान कर कि तुमसे मेरी दोस्ती है, लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगे यह सोचता हूं तो शर्म से डूब मरने का जी होता है !’’

‘‘तुम्हारे मन में जिन्दगी में पहली बार एक सही विचार पैदा हुआ । डूब मरने का। देर नहीं हुई है, मुहावरे में डूबने के लिए चुल्लूभर पानी ही जरूरी होता है, उसका प्रबन्ध मैं कर सकता हूं, पर मेरे भी तो मित्र हैं, वे मेरे बारे में इसी तर्क से क्या सोचते होंगे, यह भी तो सोचा होता ।

''तुलसी सामाजिक क्षरण और गिरावट के उस दौर का वह क्रान्तदर्शी कवि है जो पूरे मध्ययुग में अपने समय के प्रमुख द्वन्द्व को देखता, उसे समझता और उसका ऐसा निदान निकालता है जिसे अपने को क्रान्तिवीर समझने वाले कबीरपन्थी, नाथपंथी तो समझ ही नहीं सकते थे, इतनी शताब्दियों के बाद तुम लोग भी नहीं समझ सके।’’

उसने कोई उत्तर नहीं दिया, ऐसी मुस्कराहट बिखेरता रहा जिसमें व्यंग्य भी था और परेशानी भी थी, कुछ घबराहट भी ! यह मेरे स्वर की दृढ़ता के कारण रहा होगा, तर्क तो मैंने दिया ही नहीं था।

‘‘मैं तुम्हें मार्क्‍सवादी मीमांसा के सहारे समझाता हूं। प्रत्येक युग का एक प्रधान अन्तर्विरोध होता है, मेन कांट्रैडिक्‍शन, उसे जो समझ पाता है वह युगद्रष्टा होता है, बाकी तो छोटे मोटे उत्तेजक सवाल होते हैं। जो इनमें उलझ गया वह अपने युग की समस्याओं का सामना नहीं कर सकता।’’

‘‘तुम समझते हो वर्णभेद, धर्मभेद से उत्पन्न सामाजिक विभेद मध्यकाल की मुख्य समस्या नहीं थी और जपमालाछापातिलक संकट मे पड़ गया है, इसकी रक्षा करना सबसे जरूरी कार्यभार है, यह सही समझ थी ?’’

‘‘तुम ठीक समझते हो। तुलसी अकेले ऐसे क्रान्तदर्शी चिन्तक थे जो समझते थे कि असंख्य समस्याओं के बीच सबसे विकट समस्या क्या है और उससे निपटने का क्या उपाय है। वर्णव्यवस्था एक बहुत पेचीदा समस्या थी, लंबी लड़ाई पहले से चल रही थी। तुलसी समझते थे कि आज की प्रधान समस्या हिन्दुत्व की सीमारेखाओं की सुरक्षा की है अन्‍यथा पूरे देश का इस्‍लामीकरण हो जाएगा और उसी तरह की अमानवीयता और स्‍वच्‍छन्‍दता और इकहरी समझ विवेक पर हावी हाे जाएगी जो इस्‍लाम की पहचान बन चुकी है।''

''समझा नहीं तुम्‍हारी पहेली को ।''

''गौण समस्याओं को केन्द्रीय समस्या बना देने का परिणाम होगा पूरे देश का हिन्दुत्व से उच्चाटन, विचलन और देर या सवेर या तो इस्लामीकरण अथवा इस्लामी मूल्यों को अपनाते हुए सबका भिन्न नामों से इस्लाम का अनुसरण। उनका अनुमान गलत नहीं था, योगियों के साथ तो यही हुआ, कबीरपन्थियों में भी अधिकांश इस्लाम में दाखिल हो गए और उन्हें पता भी नहीं चला।’’

‘‘हो गई बात पूरी या कुछ और कहना है ?’’

‘‘पूरी कैसे होगी यार, मैं बताने तो यह चला था कि इस्‍लाम कबूल करने वाले विभिन्न समुदायों के इस्लामीकरण की प्रक्रिया क्या है और बहक गया एक ऐसे टेढ़े सवाल की ओर जिसके निहितार्थ को ग्रहण करने के लिए बुद्धि की जो परिपक्वता होनी चाहिए वह तुममे है ही नहीं।’’

उसने महफिल बर्खाश्‍त वाले स्वर में कहा, ‘‘जब तक ऐसी समझ नहीं पैदा हुई है तभी तक बचा हूं, नहीं तो तुम मुझे भी ले कर डूब मरोगे!

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