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हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - 10

हिन्दुओं के मन में यदि इतर समाजों और देशों के लोगों से परहेज सा था तो इसका एक कारण शुचिता, आचार, खानपान आदि के विषय में उनका इनके मानकों पर खरा न उतरना और जीवनमूल्यों में उनका भिन्न होना। हिंसा, अस्तेय, दंभ और छलछद्म को गर्व का विषय मानने वाले समाजों को वे ओछी नजर से देखते थे । इसकी उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। इसके ब्‍यौरे में हम न जाएंगे।

उनके आदर्श को मानवीय गरिमा की पराकाष्ठा माना जा सकता है परन्तु इन मूल्यों का निर्वाह प्रकृति की कृपणता के कारण सभी क्षेत्रों के लोग नहीं कर सकते थे! इनके संपर्क में आने वाले अपनी जीवनशैली भले इतर कारणों से न बदल सकें, परन्तु वे अपने तई इसके कायल भी होते थे और इनका अनुकरण भी करते थे। ऐसा जिस सीमा तक कर पाते थे समाज में वे स्वयं अनुकरणीय बन जाते थे और इसी प्रक्रिया से वैदिक भाषा, संस्कृति, दर्शन, कौश्‍ाल , कुछ दूर तक रीति-रिवाज, वेषभूषा, सज्जा का भी अनुकरण और प्रसार हुआ था!

मैकाय ने फर्दर एक्सकेवेशन्स के दूसरे खंड में एक लम्बी तालिका, ठीक याद नहीं पर संभवतः तीस चालीस पन्नों का, उन गोचर हड़प्पन तत्वों का यूनान से ले कर मध्येशिया तक, ठीक उस क्षेत्र में हड़प्‍पा सभ्‍यता के घटकों का प्रसार दिखाया है जिसमें भारतीय आर्यभषा का प्रसार हुआ था। यदि किसी बात का ध्यान उन्हें नहीं रहा तो वह है इसे भारतीय आर्य भाषा के क्षेत्र तक विस्तृत और उसी तक सीमित कहने का जो उनके बाद किसी भारतीय पुरातत्वविद ने भी नहीं कहा!

यह दुस्साहस मुझे करना पड़ा और इसी के आधार पर दि वेदिक हड़प्पन्स में यह दावा करने का साहस हुआ कि The Vedic Culture was co-extensive and co-terminus with the Harappan civilization । इस तथ्य का उल्लेख इसलिए जरूरी है कि एक ओर वैदिक सभ्यता के अग्रदूतों से दूसरे लोग कुछ दबते हुए, यह भी अनुभव करते थे कि वे हमसे आगे बढ़े हुए हैं, हमें उनसे सीखना, उनके अनुसार बनना और वैसा होने क प्रयत्न करना चाहिए, वहीं अपने प्रति उनके वर्चस्वी रवैये के कारण उनसे दबी चिढ़ और घृणा भी अनुभव करते थेा यह हिन्दुओं के लिए उनकी भाषा में गालियों, भर्त्‍सनाओं के रूप में प्रकट हुई जो ईमान से ले कर चरित्र और कभी कदा अक्ल तक पर आक्षेप का रूप लेती है! ये गालियां भी उनकी अपनी संस्कृति की ही उपज थीं और जैसा कि हम पहले कहते रहे हैं गालियां जिसे दी जा रही है उनके चरित्र को नहीं, गालीदेने वाले के चरित्र को ही उजागर करती हैं, ये भी उनके समाज में व्‍याप्‍त विकृतियों को ही व्‍यक्‍त करती थ्‍ाीं ।

इसलिए निंदा नहीं, अनुकरण ही किसी के मूल्यांकन का आधार हो सकता है। सफल होने वाले अपने परिवार तक में दूसरों को अपनी तुलना में जो लोग हेय बना देते हैं, उनसे उस परिवार के असफल व्यक्ति अपना संबन्ध जोड़ कर अपनी छवि भी सुधारते हैं, हीनता भी अनुभव करते हैं, और उस घृणा को भी दबाने के प्रयत्न में रहते हैं जो उनकी तुलना में अपनी हीनता से उनके मन में पैदा होती है।

यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है ! महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होंने इसके बाद भी उनके जैसा बनने का प्रयत्न किया और जितना बन पाए उसी को अपना सर्वोत्कृष्ट मान कर उस पर गर्व करते रहे । ईरानी हों, स्लाव और लिथुआनी हों, या लघु एशियाई हों या उससे आगे ग्रीक, रोमन, जर्मन, केल्ट हों, उन्हें तुलना के लिए भी वैदिक भाषा और संस्कृति ही मिले थे, गर्व भी उनसे प्राप्त तत्वों पर ही था जो उनकी ग्रहण क्षमता के अनुसार यूरोप में अलग अलग थे, परन्तु सभी का जुड़ाव संस्कृत और वैदिक समाज से ही था, जाहिर है ईर्ष्‍या और घृणा के लिए भी ये ही मिले थे!

पश्चिमोत्तर से होने वाले आक्रमण भारतीय सभ्यता के लिए हड़प्पा काल से ही या सच कहें तो उससे बहुत पहले से चिन्ता का विषय रहे हैं और उनकी क्रूरता की कहानियां सदा से लोगों के मन में दहशत पैदा करती रही हैं! इसके जिस इतिहास को मैं उजागर करना चाहता हूं उसको समझाना चाहूं भी तो नहीं समझा सकता क्योंकि ग्रहणशीलता का भी एक अपेक्षित ज्ञान-स्तर होता है। उस काल पर पहुंचने पर आक्रमण घर वापसी के आन्तरिक दबाव का रूप ले लेते हैं और फिर वे अपनी संपदा का दोहन करके मालामाल होने वालों से अपनी ही अपहृत संपदा को हासिल करने का अभियान बन जाते हैं और यह समझ इतिहास की व्याख्या को एक ऐसा रूप देती है जिसके लिए केवल भारत के इतिहासकार ही नहीं पूरी दुनिया के इतिहासवेत्ताओं में कोई तैयार न होगा, क्योंकि विश्‍व इतिहास की जो समझ पैदा की गई है वह खासी उथली है, सभ्यता की परिभाषा तक लंगड़ी है और इसे मैं समय मिला तो बाद में समझाने का प्रयत्न करूंगा।

इस समय तो छोटे मुंह बड़ी बात प्रतीत होने वाली इस कथा को विराम देते हुए इतना ही निवेदन करें कि वैदिक कालीन त्रसदस्यु से ले कर शकारि (कहना चाहें तो शक्रारि कह लें), विक्रमादित्य ने जिसे इतिहासकारों ने मिथक करार दे दिया था और जिसकी स्वर्णमुद्रा की खोज के बाद वह मिथक से इतिहास में प्रवेश कर गया, उसके समय तक जिस किसी ने ऐसे आक्रमणों को निरस्त किया, वही उसकी गौरवगाथा का कारण बन गया!

इसके बाद भी जिसने भारत पर विजय पा ली वह सांस्कृतिक स्तर पर हार गया यह कहना अविवेकपूर्ण होगा, क्योंकि सांस्कृतिक ग्रहणशीलता पराजय नहीं, एक भिन्न प्रकार की विजय होती है जिसमें भौतिक विजय के बाद आत्मोत्थान का अवसर मिलता है! भले इसके प्रेरक वे हों जिन पर तुमने असंख्य अत्याचार करते हुए विजय पाई। यह उनके आत्मविस्तार और आक्रान्ताओं के आत्मोत्थान की एक ऐसी जटिल गाथा है कि इसकी कड़ियां सुलझाने चलें तो हो सकता है हमें अपने अभी प्रकट किए गए विचारों में भी संशोधन करना पड़े, क्योंकि विजय के बाद उन्‍हें शिष्यता और आत्मशुद्धि के चरणों से भी उन्हें गुजरना ही पड़ा था।

परन्तु उन्हीं उपद्रवी या आक्रमणकारी समुदायों के इस्लाम में दीक्षित हो जाने के बाद जो आक्रमण हुए उनमें विजय पाने के बाद भी उनके एकाक्षरी पांडित्य के कारण न कुछ जानने को बचा था, न सीखने को, न अपनी जीवन शैली में बदलाव का विवेक बचा था।

यह एक विचित्र तरह की मुठभेड़ थी । और इसका आरंभ उन्होंने किया जिन्हें असंख्य और कल्पनातीत अत्याचारों का बार बार सामना करने के बाद धर्मान्तरित होना पड़ा था और धर्मान्तरित होने की कुछ पुश्‍तों के बाद ही अपने को सच्चा मुसलमान साबित करने के जोम में दहशत और वहशत को सभ्यता और श्रेष्ठता का मानदंड मान कर यह जिद पालनी पड़ी थी कि जानने लायक जो कुछ है वह हमारे एकाक्षरी ग्रन्थ में है जिसका उनमें से निन्यानबे दशमलव निन्यानबे प्रतिशत ने दर्शन भी न किया होगा, जैसे वेद पुराण का नाम लेने वाले हिन्दुओं में उसी अनुपात में लोग दर्शन तक नहीं कर पाते थे, न कर पाए थे!

परीक्षा से गुजरते हुए अपने को मुस्लिम समुदाय में स्वीकार्य बनाने के लिए इस देश में भी लोगों को हिन्‍दू द्रोह के प्रमाण देने पड़े हैं और इनके कारण जितने गलत काम हुए हैं उतने गलत काम अरब भी भारत में आ कर नहीं कर सकते थे।

इकबाल हों या जिन्ना या कश्‍मीर के धर्मान्तरित हिन्दू, जिनमें से कुछ के नामों के साथ्‍ा आज भी, कुछ बदले रूप में, हिन्दू उपनाम दिखाई देते हैं, सब हिन्दू ही थे। यह मैं किसी की महिमा को कम करने के लिए नहीं कह रहा हूं अपितु सामाजिक मनोविज्ञान की एक समस्या के रूप मे इसे अध्ययन का एक क्षेत्र मान कर चिन्हित कर रहा हूं!

यदि आप राहुल जी की मध्येशिया का इतिहास ही देखें तो पता चल जाएगा कि ईरानियों को इस्लाम का विरोध करने, उससे बचे रहने के लिए कितना लंबा संघर्ष करना पड़ा था, कितना अपमानित होना पड़ा था, परन्तु लाचार कर दिए जाने के बाद उनमें अपने को असली मुसलमान साबित करने की होड़ लग गई! यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी मेरी जानकारी पर भरोसा करने वाला धोखा खाएगा, इसलिए इसे कल तक सोचने के लिए स्थगित रखते हैं।

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