हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-5
.. एक संगीतकार को धोखे से कोई ऐसा द्रव्य पिला दिया गया कि उसका गला बैठ जाय, या उसकी हत्या कर दी कि वह प्रतिस्पर्धा से हट जाय तो उसके लिए सबसे अच्छा गायक बनने का अवसर मिल जाय। दो प्रतिभाशाली और आपस में मित्र छात्रों में से एक ने दूसरे की हत्या कर दी इस ईर्ष्या से कि वह उससे अच्छा क्यों है !
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-5
इस पोस्ट में हम कुछ अवधारणाओं को स्पष्ट करते हुए अपनी बात पर आएंगे। इससे आप को थकान हो सकती है पर इनका स्पष्ट होना जरूरी है।
आप ने सुना होगा, एक संगीतकार को धोखे से कोई ऐसा द्रव्य पिला दिया गया कि उसका गला बैठ जाय, या उसकी हत्या कर दी कि वह प्रतिस्पर्धा से हट जाय तो उसके लिए सबसे अच्छा गायक बनने का अवसर मिल जाय। दो प्रतिभाशाली और आपस में मित्र छात्रों में से एक ने दूसरे की हत्या कर दी इस ईर्ष्या से कि वह उससे अच्छा क्यों है ! अपनी महत्वाकांक्षा और उसके पूरा होने में बाधक दूसरे की श्रेष्ठता प्रेम को घृणा में बदल देती है और यह भर्त्सना का रूप ले लेती है । घृणा के दूसरे भी कारण हैं, परन्तु एक कारण यह कि यह प्रायः हीनभावना की क्षतिपूर्ति होती है और इसकी परिणति वाचिक भर्त्सना में होती है!
यदि अग्रणी समाज स्वयं भी अपने श्रेष्ठताबोध के कारण दमित या प्रभावित समाज के लिए अपने व्यवहार या भाषा में तिरस्कार प्रकट करता है तो इस तिरस्कार की प्रतिक्रिया में असहाय समाज दबे होने के कारण अपने प्रकट व्यवहार में आदर प्रकट करता है और निजी जीवन में क्षतिपूर्ति के रूप में उससे घृणा भी करता है और उस जैसा बनने का प्रयत्न भी करता है । घृणा गालियों, भर्त्सनाओं या निन्दा की दूसरी संकेत प्रणालियों का रूप लेती है और हीनताबोध उसकी नकल के प्रयत्न में परिणत होता है।
इसे अपने
आसन्न इतिहास में अंग्रेजों के भारतीयों के प्रति व्यवहार और भारतीयों के
मन में उनके प्रति कटुता और घृणा को और उसके साथ ही उन जैसा बनने की चेष्टा
में देखा जा सकता है। वे हमें काला और नेटिव कह कर गाली देते थे और भारत
का अवाम उन्हें सफेद बंदर के रंग का मान कर उन्हें बन्दर, फिरंगी आदि कह कर
अपना बदला लेता था। इस समय एक लोकगीत की याद आती है जिसमें अपने समाज में
जागरूकता पैदा करने का आग्रह भी है और उस हीनभाव की क्षतिपूर्ति भी:
नैया बीचे नदिया डूबल जाय हे मन अइसा देखा ।
एक अचरज हम ऐसा देखा बानर दूहे गाय
दूध दूहि के पियत जात बा , घिउआ भेजे चलान। हे मन अइसा देखा।
इसमें अपनी विवशता का बोध भी है, एक छोटा सा देश, इतने बड़े देश को अपने काबू में किये हुए है यह विस्मय की बात है। सामान्य नियम यह कि नौका डूबती है तो नदी में, यहां नदी ही नौका में डूब रही है । वे यहां के शासक बन कर ऊंचे वेतन लेते हुए दोहन तो करते ही हैं, यहां की संपदा और धन को विदेश भी ले जाते हैं !
परन्तु इसमें रोचक है अंग्रेजों की तुलना बानर से करना और भारत को गाय के रूप में प्रस्तुत करना।
ये दोनों शर्ते प्राचीनतम भारत से पूरी होती हैं, जिसके लिए उसी तरह भारत का प्रयोग उतना ही गलत है जितना भारतवासियों के लिए हिन्दू का और फिर भी इसका संबंध हिन्द और हिन्दू से बहुत दूर भी नहीं है।
यहां मैं आपको एक ऐसा इतिहास बताने जा रहा हूं जिसे इससे पहले किसी ने नहीं लिखा, परन्तु इसके साक्ष्य इतने प्रबल हैं कि इसे देखा और समझा जा सकता है । इसका एक सिरा उस सेमिनार से भी जुड़ता है जिसमें मैंने खास तौर से अपने पश्चिमी अध्येताओं को लानत भरे स्वर में यह सन्देश दिया था कि इतिहास को तुमने इतिहास नहीं रहने दिया है जिस रूप में ही यह हमारी वर्तमान व्याधियों के निदान और इन व्याधियों के उपचार में समर्थ हो सकता था । तुमने इतिहास में ही मिलावट करके, इसके तथ्यों को जानते हुए भी कूटनीतिक जरूरतों के कारण छिपा कर, व्याधियों को अधिक उग्र बनाया है। समग्र मानवता के विकास की दृष्टि से देखें तो सभ्यता से बर्बरता पैदा की है जिसके भुक्तभोगी तुम भी होने जा रहे हो। इसलिए इसे सदा सदा के लिए बन्द किया जाना चाहिए और निजी जानकारी और सार्वजनिक प्रचार का भेद मिटना चाहिए। उसकी प्रतिक्रिया में जो वाक्य निकला वह यह कि यह तो खेल का हिस्सा है, इससे हमें कोई परेशानी नहीं, यह तो चलता रहेगा ।
हमारे पास न तो अच्छे पुस्तकालय हैं, न उन पुस्तकालयों का सही उपयोग है, और हमारे भूगोल, भूसंपदा, समाज, इतिहास, संस्कृति, भाषा, कला, साहित्य, नृतत्व, पुरातत्व सभी क्षेत्रों में अनुसंधान, काल निर्धारण, भौगोलिक विवेचन और व्यस्था का काम उन्होंने ही किया। इंडिया पहले से था इसके सर्वे का काम उन्होंने किया। किया हमारे हित के लिए नहीं, अपने लाभ, नियंत्रण और वर्चस्व के लिए। भारतीय अध्येता जब उन विषयों का अध्ययन करने का प्रयत्न करते थे और उनसे भिन्न नतीजों पर पहुंचते थे जो उन्होंने अपने इन्द्रजाल में हमें समझाने के लिए तय कर दिया था, तो उसको देश भक्ति या राष्ट्रप्रेम से प्रेरित कह कर नकारते भी थे। ये ही गालियां उनके उत्तराधिकारियों के द्वारा आज भी दुहराई जाती हैं। और कुछ सोचने की चिन्ता न थी तो गालियां तो नई गढ़ लेते । खैर।
वे अपनी मान्यताओं से असहमति को हतोत्साहित भी करते थे, और यह दबाव भी बनाते थे कि भारतीय अध्येता उनकी मान्यताओं के भीतर रह कर ही जोड़तोड़ करें और इस प्रतिबन्ध का निर्वाह करने पर ही वे प्रतिभाशाली लोगों को स्वीकृति, समर्थन और पद प्रदान करते थे।
अतः हमारे पास ज्ञान के स्रोत के रूप में या तो उनका लिखा उपलब्ध है अथवा उनकी योजना के अनुरूप या उससे मामूली कतर ब्यौंत करने वाली भारतीय विद्वानों की स्थापनाएं उपलब्ध हैं जो तथ्यों से शून्य तो हो ही नहीं सकतीं, परन्तु जिनकी योजना अलग है। तथ्य वे ही हों, और उनका संयोजन बदल दिया जाय तो निष्कर्ष किस हद तक बदल जाते हैं इसे हम गणित के अंकों की योजना से समझ सकते हैं । तथ्य के रूप में हमारे पास 1 और 2 हैं परन्तु इनका संयोजन बदलते हुए इनके मान 12, 21, 1/2, 2/1, 1.2, 2.1 आदि हो सकते हैं। आंकड़ों के घालमेल किए जाने पर या किन्हीं कारणों से हो जाने पर निष्कर्ष इतने भिन्न हो सकते हैं कि हम बावले हो जायं !
कहें, किसी समाज को उसके ही इतिहास या वर्तमान के आप्त आंकड़ों या अकाट्य तथ्यों का संयोजन गलत ढंग से करके उसे बावला बनाया जा सकता है, गुलाम बनाया जा सकता है, विक्षोभ पैदा किया जा सकता है अथवा सौहार्द का वातावरण तैयार किया जा सकता है।
राजनीतिज्ञ या कूटविद के लिए यह जोड़ तोड़ ही जानना जरूरी होता है और इसको ही वह जानने समझने का प्रयत्न करता है कि उन तथ्यों से क्या क्या बनाया या क्या पैदा किया जा सकता है और कब, किस तरह संयोजन बदल कर क्या समझाया जा सकता है । कहें, आपका, अपने लिए उपयोग करने वाले के लिए उन्हीं तथ्यों का क्या क्या किया जा सकता है, यह अधिक महत्वपूर्ण है।
इसके ठीक विपरीत जिसको अपना लेखा जोखा समझना है, घर संभालना है, अपनी बीमारी से मुक्ति पानी है उसके लिए जिस क्रम में वे आंकड़े थे ठीक उसका और केवल उसका ज्ञान चाहिए। यह इतिहास है, यही निदान है, यही समाधान में सहायक है।
प्रश्न यह है कि जहां जानबूझ कर आंकड़ों को इधर से उधर करके मनमाने नतीजे निकाले गए हैं, और जरूरत पड़ने पर उन्हें ही नए ढंग से संयोजित या कुयोजित करके पहले नतीजे में फेर बदल करते हुए नये दावे किए जाते हैं, उनसे बचते हुए उन्हीं घालमेलित आंकड़ों को क्या उस रूप में संयोजित किया जा सकता है कि वे वास्तविकता का परिचय दे सकें ।
कहें, क्या राजनीतिक कारणों से तोड़-मरोड़, छोड़ और गढ़ कर विकृत प्रस्तुति को जो इतिहास नहीं है अपितु ऐतिहासिक तथ्यों का कूटनीतिक उपयोग है उनके नये संयोजन से हम सही इतिहास तक पहुंच सकते हैं?
उत्तर है हां । इसे आप जिगसा पजल या जोड़ो-मिलाओ पहेली से समझ सकते हैं । इसमें बहुत से संयोजन काफी दूर तक सही लगते हैं, परन्तु एक दो ब्लाक ठीक बैठ नहीं पाते । बार बार बहुत कुछ सही लगने का भ्रम पैदा करते हुए अन्त में कुछ बेमेल मिलता है। ये सभी अधूरे समाधान हैं जिनमें कुछ खानों को छोड़ कर सही होने का भ्रम पैदा करते हुए तरह तरह के दावे किए जाते और अपने प्रयोजन से इतिहास के तथ्यों का उपयोग तो किया ही जाता है, हमारी व्याधि को ऐसा करने वालों की योजना के अनुसार सह्य और उग्र बनाया जाता है ।
झूठ के असंख्य संस्करण होते हैं, जिसमें सभी खंडों के विभिन्न कुयोजन होते हैं, सत्य केवल एक होता है आैर उस तक एक ही संयोजन से पहुंचा जाता है। उस पर पहुंच कर विसंगतियां समाप्त हो जाती है।
सत्य तक, अपने वास्तविक इतिहास तक, पहुंचने का यही उपाय है । इस बात पर ध्यान देना कि क्या क्या छोड़ कर यह नतीजा निकाला गया है, और जो कुछ चुना गया है वह भी एक दूसरे से मेल खाता है या अनमेल है । अनमेल है तो जितने भी बड़े विद्वान द्वारा प्रस्तुत किया गया है, वह गलत है, एक षड्यन्त्र का हिस्सा है और इस पर भरोसा करने पर हमारी समस्यायें अधिक जटिल होती चली जाएंगी!
हमने अब तक यही किया या होने दिया है, क्योंकि गुलाम मानसिकता का एक लक्षण आलस्य है और दूसरा अल्पतम से अधिकतम की साधना और ऐयाशी है जिसमें हमारा बौद्धिकवर्ग लिप्त रहा है ।
अब
मैं उस सूत्र की चर्चा करूंगा जिसका हवाला देते हुए मैंने यह आरोप लगाया था
कि आप जानते सब कुछ हो, आपस में आप एक दूसरे से अपने विचार साझा भी कर
लेते हो, परन्तु हमें एक दूसरा पाठ पढ़ाते हो और इसे जानने वाले और हमारे
हमदर्द बनने वाले भी इसे हमसे छिपाए रहना चाहते हैं ! फिर वे हमारे सच्चे
हमदर्द हैं, या हमसे विश्वासघात करने वाले? जिन तथ्यों की ओर मैं यहां
संकेत कर रहा हूं वे माइकेल विट्जेल की उस किताब से है जिसे उन्होंने आर्य
आक्रमण की मान्यता के खंडन के बाद उसे पुनः प्रतिपादित करने के लिए लिखा था
और जिसके तथ्य निम्न प्रकार हैंः
1. भारत पर आक्रमण करने वाले आर्य
मध्येशिया के सिन्तास्ता से आए थे। वहां आज भी सिन्दोइ नाम से जाने जाते
हैं। उन्होंने वहां की नदियों के नाम सिंध की सहायिकाओं के नाम पर रखे थे।
एक वोल्गा की सहायक नदी का नाम कुभा रखा था ।
2. इससे सटा अन्द्रानोवो
का क्षेत्र है, जो उसका अंगभूत भी है । एक अन्य विद्वाना ऐस्को पार्पोला
आर्यों को इस क्षेत्र से भारत मे आते हुए चित्रित करते रहे हैं।
3. आन्द्रोनोवो का मेरी समझ से अर्थ हुआ नव आन्ध्र या अन्ध्र ( सिन्तास्ता का सिन्ध देश, सिन्त - सिन्ध, स्ता - स्तान/स्थान)।
4. अब भारत पर/में आर्यों का आक्रमण या आव्रजन हुआ था, या आन्ध्रों का, या
सिन्धियों का और जिस प्राचीनतम कृति को आधार बना कर यह कहानी रची गई है उस
ऋग्वेद में आन्ध्र या सिन्धी जनों का नाम क्यों नहीं मिलता?
5. जाहिर है यह पूरी मान्यता प्रस्तुत आंकड़ों के बेमेल होने के कारण गलत है, परन्तु इसके तथ्य सही हैं।
इतिहास क्या है, वास्तविक स्थिति क्या है इस पर हम कल विचार करेंगे । परन्तु जिस सिन्दोइ या सिन्धी या हिन्दी/ हिन्दू के इतिहास पर हम विचार कर रहे हैं वह आज से कम से कम पांच हजार साल पीछे जाता है, और विदेश में सिन्तास्ता बसाने वाले सिन्धदेश या ईरानी उच्चारण में हिन्द के और मध्येशिया से आगे के देश्ाों के लिए इंद के निवासी थे, यह अनुमान से हम कह सकते हैं ।