आक्रमण के हथियार बदल गये हैं-15
उनका बलिदान नेहरू-गांधी-समस्त कांग्रेसी त्याग की तुलना में कई लाख गुना ज्यादा था।पर एक पार्टी को श्रेय देने के लिए इन 150 सालो को स्वतंत्रता संघर्ष घोषित कर दिया गया है बाकी के पितरो का बलिदान त्याग गायब कर दिया गया है।
आक्रमण के हथियार बदल गए हैं-भाग 15
हम जिस मैदान में खेलते थे।वहां एक 80-82 साल के बुजुर्ग थे।यह 1991
की बात है।शाम को हम जैसे ही उस पार्क में पहुँचते बड़ी सी कोठी के गेट पर
खड़े होकर जोर-जोर गालियां बकते थे,बिला-वजह।ऐसी-ऐसी गालियां और अंगों के
वर्णन जो मनुष्य जाति ने पहले कभी गौर नही फरमाया होगा।हम तंग आ चुके थे।
वह एक ताकत-वर परिवार था।एक दिन उन बुजुर्ग से बात करने गया तो उनका और
सेनानी परिवार का समग्र-व्यक्तित्व सामने आ गया।वह पागल नही थे हुजूर यह वे
पूरे होशो-हवाश में बात करते थे।उन्हें अन्य कांग्रेसियो की तरह बच्चो
से,भारतीय कैटिल क्लास से सख्त नफरत थी।इतनी हिम्मत की उनके घर के
सामने,उनके अनुमोदन से बने पार्क में बच्चे खेलें!
मैं ने छान-बीन
की।स्वतंतन्त्रता संग्राम सेनानी कहे जाते थे।कागजो में वह स्वतंत्रता
संग्राम सेनानी जरूर थे लेकिन मुझे,उनके मुहल्ले वालों, उनके जानने वाले
किसी को भी,दूर-दूर तक उनके आचरण से स्वतंत्रा संग्राम सेनानी जैसा कोई
स्वरूप नहीं दिखता था।मैं ने सब से बात इसलिए की थी क्योंकि उससे पहले की
किताबो ने मेरे मन में संग्रामियों के प्रति गहरा सम्मान भरा था।उनके
समवयस्क लोग-बाग़ बताते थे कि कि कभी यह सज्जन नामी उचक्के-चोर थे।लेकिन
बड़े जुगाड़ू अंग्रेजो के समय में जेल गए और वहां कांग्रेस के कई नेताओं से
दोस्ती हो गई थी।बाद में उसके आधार पर उन्होंने संग्रामी लिस्ट में नाम
डलवा लिया था।बाकी के आचरण से समझ ही सकते हैं कि बाद के दिनों में सरकाऱी
सम्पर्क के सहारे उन्नति के उन्नति का मार्ग खुल गया।ठेके-पट्टे,नौकरिया
दिलाने का धंधा और बहुत सारे काम हासिल कर लिए।घर के आधे लोग राजनेता हो
गए।ऊपर तक पहुंच के सहारे धीरे धीरे बड़ा माल एकत्रित कर लिया।फिर तो
जगह-जगह जाकर मैं ने कई संग्रामियों का लोक-व्यवहार इकट्ठा किया।कई
कांग्रेसी घरानों का रहन-सहन जीवन शैली टटोला।निश्चित ही कई ठीक रहे
होंगे।मेरे मन में यह बात पक्की हो गई की स्वतंत्रता संघर्ष कैसा रहा
होगा।बाद में इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते मैंने हजारों किताबें पढ़ी
है।ताराचंद,सुंदरलाल,विपिन चंद्र,बीएल ग्रोवर,सुकुमार भट्टाचार्य,इएच
कार,डॉक्टर हीरालाल सिंह,एम एस जैन,एमजी रानाडे,तत्कालीन गजेटयर और भी
ढेरों किताबें केवल उत्सुकतावश जो भी नाम सामने आ गया वह सब मैंने
पढ़ी।मेरा माथा ठनक गया,दूर-दूर तक के प्रमाणों के मिलान करने पर अद्भुत से
आंकड़े सामने आए।जिस पर किसी ने नहीं लिखा था।यहां विस्तार से नहीं
लिखूंगा।पार्क में मेरे सामने जो घटता था वह भी चित्र-वत प्रमाण था।
कांग्रेस शासको के पाठ्यक्रमो से हमारे अंदर इस कदर अंदर घुसा दिया कि
बहुत सारी अपनी चीजो का श्रेय भी उनके वंश को देने को लगते हैं।उनके लेखन
और प्रस्तुति का ही तरीका है कि बहुत से लोग 'गुलामी, को भी जस्टिफाई कर
लेते है।अंग्रेजो से स्वातंत्र्य समर था..चलो मान लिया इन 150 सालो में
केवल कांग्रेस ने ही अंग्रेजो से स्वतंत्रता संघर्ष किया था।और किसी
संगठन,व्यक्ति,विचार ने जरा भी सहयोग नही दिया विश्वास कर लिया,परन्तु
अंग्रेजो से पहले के 6 सौ साल का संघर्ष क्या था???
उन 6 सौ सालों
में 300 करोड़ से अधिक लोगों के कत्ल,लूट,बलात्कार,जबरन
धर्म-परिवर्तन,बच्चो,महिलाओं (माँ-बहिनों,बेटियों)की लूट,धर्म-स्थल तोड़े
गये वो सब गुलामी का अंश नही था।एक राष्ट्र का जो दुःख प्रताड़ना,सैकड़ो सालो
के व्यक्तिगत पीडाएं सब की मान्यता दे बैठते हैं।एक ऐसा दर्द जो बहुत
सालता है।जिसमे मवाद रिसता रहता है।अतीत का ऐसा नासूर जिस भी पुराने शहर
जाओ।पूर्वजो की कराहती आत्माएँ भग्नावशेषों से निकल-निकल हमसे प्रश्न करती
हैं।हमारे टूटे विशाल पूजा-स्थलो के टूटे चिन्ह देख अतिशय पीड़ा होने लगती
है।प्रमाण सामने दिखता है।
सन् 1840 में काबुल के युद्ध में 8 हजार
पठान मिलकर भी 12 सौ सिखों का मुकाबला 1 घंटे भी नही कर पाये।इतिहासकारों
का कहना है कि चित्तौड़ की तीसरी लड़ाई जो 8 हजार राजपूतों और 60 हजार
मुगलों से हुई थी।वहां अगर राजपूत 15 हजार राजपूत सैनिक और होते तो अकबर आज
जिन्दा नहीं होता।इस युद्ध में 48 हजार मुगल सैनिक मारे गए थे।गिरि सुमेल
की लड़ाई में 15 हजारराजपूत 80 हजार तुर्को से लडे थे।इस पर घबराकर "शेरशाह
सूरी ने कहा था "मुट्टी भर बाजरे(मारवाड़) की खातिर हिन्दुस्तान की सल्लनत
खो बैठता।ऐसे युद्द २५ हजार से अधिक है,यह सब स्वतंत्रता संघर्ष ही तो
था।इस देश के इतिहासकारों ने और स्कूल कॉलेजों की किताबों में आजतक सिर्फ
वही लडाइया/युद्द पढाई है जिसमें हम कमजोर दिख रहे है।राणा सांगा,वीर
शिवाजी छत्रसाल,बाजीराव जैसे योद्धाओं का नाम तक सुनकर विदेशी शासको की
औरतों के गर्भ गिर जाया करते थे।रत्न सिंह चुंडावत की रानी हाडा का
त्याग,महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर,महाराणा प्रताप,महाराजा रामशाह सिंह
तोमर,वीर राजे शिवाजी, बापु राजा विक्रमाद्तिया,हमीर देव चौहान,भंजिदल
जडेजा,राव चंद्रसेन,वीरमदेव मेड़ता,बाप्पा रावल,राणा सांगा,राणा
कुम्भा,रानी दुर्गावती,रानी पद्मनी,रानी कर्मावती,भक्तिमति मीरा
मेड़तनी,वीर जयमल मेड़तिया,कुँवर शालिवाहन सिंह तोमर,वीर छत्रशाल
बुंदेला,दुर्गादास राठौर,कुँवर बलभद्र,सिंह तोमर,मालदेव राठौर,महाराणा
राजसिंह,विरमदेव सोनिगरा,सुहेलदेव बैस, राजा हर्षवर्धन
बैस,बन्दा-बहादुर,बन्दा वैरागी,लाखो-ज्ञात-अज्ञात अनाम सभी आजादी के लिए
प्राण दे रहे महान क्रांतिकारी ही तो थे।अंग्रेजो के पहले का स्वतंत्रता
संघर्ष पूर्णतः गायब ही कर दिया गया।बडी कमीनगी से उन्हें विद्रोही/बगावती
लिखा गया है। इन 6 सौ सालो में 300 करोड़ लोगो का मारा जाना,उनके जान की कोई
कीमत ही नही थी?पुरखो पर हुआ अत्याचार,मंदिरों का गिराया जाना,पूजा स्थलों
का गिराया जाना,सनातन समाज का विभाजन, पुस्तकालयो-पुरानी वास्तुविद्या की
इमारतों का तबाह होना,पुरखो का संघर्ष,शौर्य,बच्चो-स्त्रियो का गुलाम बनाया
जाना सब बेकार ही गया???
अंग्रेजो के शासन से भी अधिक घनघोर अत्याचार गुलामी के उन वर्षों में हुए।मुस्लिम शासन काल मे साधु-साधको-बाबाओं,नागाओं,ज्ञानियों,संतो,सन्यासियों,पुजारियों,ब्रम्हतेजियो,योगियों, को तरह-तरह से यातना देकर मारा गया।उनका बलिदान नेहरू-गांधी-समस्त कांग्रेसी त्याग की तुलना में कई लाख गुना ज्यादा था।पर एक पार्टी को श्रेय देने के लिए इन 150 सालो को स्वतंत्रता संघर्ष घोषित कर दिया गया है बाकी के पितरो का बलिदान त्याग गायब कर दिया गया है।सेखुलरिज्म की यह भयानक कीमत हमारे पुरखो का बलिदान चुका रहा है।
अंग्रेजो के 175 साल और मुसलमानों के 6 सालो के जान-माल और नुक्सान का आनुपातिक आंकलन कीजिये तो अंग्रेज देवता लगने लगेंगे।क्योकि उनकी देन ज्यादा है।वे न्य्यायिक और मनुष्यता से भरे दीखते है.
अंग्रेजों ने न्याय व्यवस्था
दी,अंग्रेजों ने कानून व्यवस्था दी,पुलिस व्यवस्था दी, डाक-तार-सड़के-रेल
दिए,कानून का शासन स्थापित की,दीवानी स्थापित की, पूरे देश में उन्होंने
बिजली पानी और कानून की नई परिभाषाएं बनाई।मैं आपको और आश्चर्यजनक बात
बताता हूं 1793 ईसवी के चार्टर एक्ट में इंग्लैंड और अन्य इसाई मिशनरियों
को भारत आने की अनुमति नहीं थी। वह यहां चोरी छुपे आते थे।अंग्रेजों ने
उन्हें 1813 कई शर्तो के साथ आगमन की छूट दी।1833 ईस्वी के पश्चात उन्हें
भारत आकर बसने की अनुमति दी गई।ईस्वी 1835 के बाद ही ईसाई मिशनरियां जड़
जमा सकी थी। साफ-साफ समझा जा सकता है कि 1813 से पहले अंग्रेजो की
रणनीतियां भारत में मिशनरियो से अलग थी।उन्हें शासन के अलावा बिजनेस भी
करना था,कही जबाब देह होना-होता था,वे मानवीय दीखते हैं।अब जरा 2 सौ साल
पहले का इतिहास देखिए लगान वसूला जाता,हमारे खून से बड़े-बड़े हरम और महल
बनाए जाते,अय्याशी के साधन,मकबरे,मस्जिद और धर्मातरण
एक भी उदाहरण
सार्वजनिक सेक्टर का दे दीजिए कि उन्होंने बनाया हो।कुछ देन,निर्माणक तो
दूर रहा 6 सालो की लूट,अय्याशी के बाद युग-युगीन हिन्दुभूमि को बाँट
लिया,अफगान,पाकिस्तान,बांग्लादेश के रूप में।पुरूखों की धरती पराई हो
गई।उनके धार्मिक किताब ने जैसा लिखा था,हुक्म दिया था कमोबेश पालन किया।,सब
कुछ दारुल-ए-इस्लाम के लिए,अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए लिए ऐसा किया
जाता था। वह पूरी तरह से जन-विरोधी था,बल्कि समाज को लूट आधारित शासन चलाते
थे। जिसमें दूसरों के लिए काफिर शब्द का था।हिंदुओं के लिए लगान देने वाला
कहा गया है।काफिरों और दूसरी पूजा-पद्दतियों के लिए उनकी रणनीति या उनके
नियम कोई 'क्षणिक आवेश, के परिणाम नहीं है बल्कि एक निश्चित विचारधारा का
अंग है।उसके लिए उन्होंने कुछ नियम अपनी 'किताब,से लिए हैं वह किताब
काफिरों,मूर्तिपूजक को एक निश्चित धारणाओं, निश्चित नियम के तहत रहने की
अनुमति देता है।पूरे आठ सौ साल तक हमने इसे भुगता भी है।जरा देखिए उसके
क्या-कुछ नियम है!मध्यकाल में सुल्तान "यामीन-उल-खिलाफत नासिरी
अमीर-उल-मुल्क अलाउद्दीन खिलजी,,ने हिन्दुओ के बारे में काजियो से लिखित
सलाह ली थी।वही लम्बे समय तक शासकीय नीति थी..उसमे थोड़ा सा बदलाव अकबर ने
किया था पर उसके बाद फिर वही नीतियां लागू कर दी गयी थी।...(अभी भी वह गजट
में मौजूद है।कोई पढ़ना चाहे तो पढ़े)
अनुवाद पढिये।''काफिरों के लिए
हुक्म है वे मृत्यु या इस्लाम में से एक का वरण करें उनके लिए तीसरा नियम
हैं उनको अपनी पूजा पद्धति से जीने के लिए "जजिया, देना होगा।"शरा में
काफिरो और बुत-परस्तो को ख़राज-गुजर(कर देने वाला) कहा गया है,जब कोई माल का
अफसर उनसे चांदी मांगे तो उनका कर्तव्य है कि बिना पूछताछ किये बड़ी
नम्रता के साथ उसे सोना दे, और यदि शरीयत का कोई अफसर उनके मुंह पर धूल
फेंके तो उसे लेने के लिए बिना हिचकिचाहट उन्हें अपने मुंह खोल देने
चाहिए।,,'जिम्मी इस्लाम, के प्रति अपनी आज्ञापालन की भावना का प्रदर्शन
करता है और इसी से धर्म का यश बढ़ता है ईश्वर ने स्वयं उन्हें अपमानित करने
की आज्ञा दी है पैगंबर ने हमें उन का वध करने उन्हें लूटने तथा बंदी बनाने
का आदेश दिया है... 600 सालों तक वैसे ही चलाते रहे।उन मानवीय लोगो के
खिलाफ स्वतंत्रता संघर्ष और उससे पहले का संघर्ष बगावत??कौन सी परिभाषा
अपनाए हो भाई!किसे बेवकूफ बना रहे हो,कांग्रेसियो-कम्युनिष्टों-मुस्लिम
इतिहासकारो ने कदम-कदम पर मेनुपुलेशन किये पर कही भी सफल नही हो पाए।लोग सच
जानते हैं।
आप को जहां तक शासन दिखेगा,जनता के लिए सुविधाएं दिखेंगी, जनता के लिए सरकार का काम दिखेगा अंग्रेजो की शुरुआत दिखेगी। अंग्रेज विदेशी थे पर वह इस देश के लिए सिस्टम बना रहे थे और जो लुटेरे थे वह इस देश को लूट कर के केवल खा रहे थे।दुश्मन दोनों थे पर एक ज्यादा मानवीय था।लेकिन स्वातंत्र संघर्ष इन 150 सालों को बताते रहे हैं। कोर्स की किताबों में, तमाम इतिहास की किताबों में आप जरा उलट कर देखें भौचक रह जाएंगे।इतिहास के कुल 1780 किताबों में 1510 पुस्तके आधुनिक स्वतंत्रता संघर्ष की हैं।सब मिलकर एक ही चीज सिखा/जता/बता रही हैं कि स्वतंत्रता संघर्ष केवल यही 150 साल रहा जिसे कांग्रेस ने किया।पितरों का इतिहास भूल गए, वह बलिदान भूल गए, जिन्हें ज्यादा सताया गया,नाखून उखाड़ने का दर्द,उनकी आत्मा का तिरोहण,उनके त्याग के स्तर पर उतर कर जरा देखिए तो क्या होता है है जान-देना।वह ज्यादा बड़ा बलिदान देखेगा, वह ज्यादा बड़ा भी है क्योंकि उसमें कुछ पाने का भाव नहीं छुपा हुआ है,उसमें उनको कुछ लेना-देना भी नहीं था।वह उन्होंने हमारे लिए किया था जिससे हम पवन ही रहे पवनुद्दीन न बने। वह हमारे महान पुरखे,मुस्लिम शासन में प्राण दे रहे थे, कोई भी आशा की किरण नहीं दिख रही थी उनको पता था कि यहां केवल मौत ही चुनना है,भविष्य कुछ नहीं है बस त्याग है लेकिन वे जान दे रहे थे, सनातन संस्कृति के लिए,अपने पूर्वजों के लिए।वह भी चाहते तो मुसलमान बन कर जान बचा लेते।बहुत सारे मतान्तरण करके बच भी गये कायरो की तरह। गई एक आध बिल्डिंग मिल गई होंगी,सुख की कुछ संसाध्नाये मिल गइ होंगी ढेर सारे शादिया भी,सत्य-धर्म,ज्ञान की कीमत के रूप में ।लेकिन बलिदानियों को मालुम था अमरता का संदेश पुनर्जन्म का संदेश,अमरत्व की धारणा,उनके दिल-दिमाग आत्मा में बसी थी वह उसे छोड़ नहीं सकते।उन्होंने मतांतरण नहीं किया और उन्होंने इस भूमि,संस्कति,जन,भाषा पर जान दिया।लिस्ट ज्यादा बड़ी है खुद बनाइये...देश का कोई प्रांत,राज्य,शहर,गाँव,गली,मुहल्ला,जाति,समुदाय,वर्ग,नस्ल,सम्प्रदाय, ऐसा नही है जहां ऐसे त्याग-बलिदान न हुए हों।यह बलिदान ज्यादा बड़े उद्देश्यों से किये गए थे।कांग्रेसियों और इन वर्तमान स्वतंत्रता संग्रामियो से कहीं ज्यादा बड़े उद्देश्यों से अपनी जान दे दी गई गयी थी सहज और अनाम।यह ज्यादा बढ़ा त्याग था लेकिन हमने उसको भुला दिया।क्योंकि कांग्रेसी-शासक भुलाना चाहते थे।इन 70 सालों में कांग्रेसी राज्य यही चाहता था।
यह धूर्तता है।यह धूर्तता उन्होंने छोटे बच्चो के पाठ्यक्रमों से,शिक्षा से,साहित्य की किताबों से,लेखन से, हमारे बीच आकर लगातार भाषणों से,तमाम कार्यक्रमों से,दिवसों से उन्होंने भुला दिया।इन चीजों को बतौर इम्पोजीटर मशीन इस्तेमाल किया गया,एक हथियार की तरह।वह दिल-दिमाग घुसा देना चाहते थे कि केवल इन्ही 150 सालों में ही स्वतंत्रता संघर्ष हुआ है। उससे पहले कोई स्वतंत्रता-संघर्ष था ही नही।उन्होंने लेखन से यह भी साबित करने की कोशिश की कि वह तो गुलामी ही नही थी।उन्होंने सड़कों-बांधो के नाम से,सरकारी परियोजनाओं के नामों से हमारे अंदर घुसेड़ दिया और भुला दिया। यह भुलाना ज्यादा खतरनाक था उन त्यागियों का बलिदान जिन्होंने 650 सालों में गुलामी के मुस्लिम शासन में संघर्ष किए थे। यह सबसे बडी और घातक साजिश थी अपने ही पितरों के साथ।इस पर हमने सोचने की जरूरत ही नहीं समझी??हमें केवल रोटी,कपड़ा,मकान,गाडी,बैंक-बैलेंस,अपनी स्वार्थ-पूर्ति चाहिए था जिनकी वजह से हम है उनके प्रति कृतज्ञता नही।कांग्रेसियो की वजह से हम दुनियां का सबसे कृतघ्न समाज बन गए हम।इस पर डूब का देखिये गजब चीज सामने आएगी।
बाकियो के लिए जंग-भूमि,(दारुले-इ-हरब क्रूसेड भूमि)विस्तार भूभाग है।उन्होंने हर चीज पर वार करना शुरु किया, क्योंकि देश बांटकर के 30 परसेंट हिस्सा जिन्होंने ले लिया था।फिर भी वह यहीं रह गए थे।जस्टिफाई करना था और यह जस्टिफाई बहुत घातक रूप में सामने आया।इतिहास पर षड्यंत्र के रूप में,आधुनिक इतिहास उसी की देन है।यह साहित्य,फिल्म,सिनेमा,मीडिया, लेखन,कलाकृतियां,मूर्तिकला जितनी भी डॉक्यूमेंट्री,एडवरटाइजिंग उस विषय पर जितना कुछ कम्युनिकेशन किया गया है सब एक साजिश के तौर पर ही समझिये।आपके भेजे,दिमाग का शिकार होने लगा।वाया ब्रेन-वाश।उसने सोचने का मौका ही नहीं दिया कि हुआ क्या।उन्होंने पिछले डेढ़ सौ साल में जड़े जमा ली थी,गहरे उतर कर वह ओपीनियन मेकर कंडीशन्ड में थे।अर्थव्यवस्था,कारोबार,वाणिज्य,प्रशासन,वतावस्था,हर चीज को परिभाषित कर रहे थे,सभी विषयों को नए सिद्धांत के तौर पर पेश किया गया और पुरानी सारी, की सारी मिटानी शुरू कर दी गई।उनके द्वारा घुसाया यह जेहनी हथियार पहचानना सबसे दुरूह है इसके दूरगामी उद्देश्य और घातक परिणाम होंगे।आपका सबकुछ बदल रहा है,बदल चुका होगा जिसके लिए आपके करोड़ो ज्ञात-अज्ञात-अनाम पुरखो ने त्याग-बलिदान किये है।बेसिकली स्वतंत्रता संघर्ष की किताब इस तरह होनी चाहिए सन 1192 से 1914 हिन्दू-स्वातंत्र्य संघर्ष।पर सेकुलरिया सोच हमे इसे लिखने और पाठ्यक्रम में नही डालने से रोक देती है।लेकिन परवर्ती शासको ने आधुनिक इतिहास-लेखन-पाठ्यक्रम को सनातन संस्कृति के खिलाफ,हिन्दुराष्ट्र के खिलाफ एक हथियार के रूप में अपनाया।
मूलभूत रूप में सारे तत्थ्यो को जब आपस में जोड़कर डूबकर देखेंगे तो यह साजिश समझ में आएगी।एक चीज पाएंगे यह उस सिद्धांत को ही गायब करने में लगे है कि भारत राष्ट्र किसका है,कौन इसके निर्माता रहे हैं,किसकी आस्था का केंद्र है।वे उस आधार को हिलाने में लगे है।यह साजिश कोई छोटे-मोटे चीज के रूप में नहीं आती है। यह साजिश कोई छोटी सी बात नहीं है यह बेस पर आघात है।अपनी इन साजिशो से वे आक्रान्ताओ को लाजिकल बनाने में लगे हैं।उनके साहित्यकार,इतिहासकार और उनके सिद्धांतकार गजब तरीके से वार करते हैं। बेसिकली 1947 में देश के बांटने के बाद,एक बड़ा हिस्सा हड़पने के बाद भी एक समुदाय यही था।अंग्रेज बाहरी थे आये,शासन किये चले गए।पर यही के लोग जो मतांतरित थे अब दूसरे राष्ट्र के रूप में थे।जमीन देकर भी उनका दूसरा राष्ट्र होना हमसे झुठलाना था।उसको नया वैचारिक जामा पहनाया गया।यह एक नए सिद्धांत के तौर पर पेश किया गया।उसका एक ही तरीका बचता था पुराने बहुत सारे इतिहास को मिटा दो,खत्म कर दो। केवल उनको ही ना मिटा दो उसके आधार को ही मिटा दो।उन्होंने राष्ट्र के मूल-भूत तत्त्वों को ही झुठलाना शुरू कर दिया जन,भूमि संस्कृति,भाषा,सिद्धांतों पर प्रहार करना शुरू किया। यह बताना शुरू कर दिया कि सब कुछ बाहरियों के साथ आया।जैसे शक,हूण, मुरुंड,कुषाण,चीनी,तिब्बती,मंगोल आदि-आदि आए थे वैसे ही इस्लाम आया और अंग्रेज भी आए और हां आर्य भी ऐसे ही बाहर से आए थे यानी तुम भी हिंदू!सनातनी! तुम भी बाहर से आए थे।पर वह भूल गए कि शहर,नदियां,जमीन,पहाड़,संस्कृति के अंग हैं उनकी पूजा होती है और वह अंगभूत घटक के रूप में हैं।हिंदू समाज की आत्मा के रुप में यह यह भारत भूमि उनके लिए पुण्य भूमि है।
1757-से 1947 तक का इतिहास ही हम ग़लत-भ्रमित
पढ़ रहे हैं...!हालांकि उसमे प्राण-गंवाने वाले संग्रामियो के
देशभक्ति,त्याग और शौर्य पर कोई संदेह नही किया जा सकता हैं लेकिन धूर्तो
ने उसे भी भुना ही लिया।विशेषकर कांग्रेस के स्वतंत्रता विषयक अध्याय बस और
कुछ नही।1857-से 1947 तक वाला इतिहास का भाग और बाते तो महज साजिश ही
दीखता है।यह सम्पूर्ण इतिहास प्रकरण "कुछ लोगो को ""संप्रभु नेतृत्व रूप,,
में भारतीय समाज पर ""स्थापित,, करने का स्पष्ट षडयंत्र है।इस इतिहास को
पढाने का एक मात्र उद्देश्य पूरे स्वतंत्रता आन्दोलन को "कुछ घरानो और
पार्टी,, के इर्द-गिर्द समेटना था।अंग्रेजो ने भी 'सत्ता और संप्रभुता,,
इन्ही पिट्ठुओ के हाथ में सौंपी थी।अंग्रेजो ने लोकतंत्र की आड़ में
घरानावादी राजतंत्र की स्थापना की थी जिसे हम प्रजातांत्रिक राजशाही कह
सकते हैं।वही आज भी पुष्पित-पल्लवित हो रहा है।आज भी सब कुछ उन्ही 18 सौ
फैमिलियों के हाथ में है।लगभग सभी राजनितिक पार्टियों में वे मौजूद है
बल्कि नियंत्रक स्थिति में है।मार्क टुली एक पत्रकार हैं उन्होंने नो
फुलस्टाप इन इंडिया लिखी है इसपर,पढने लायक है
......और स्वतंत्रता
आन्दोलन!ये तो कांग्रेसी,वामी,सेकुलर,मुस्लिम कांसेप्ट है।जो भारत की जनता
को ओढ़ा दिया गया।जो जनता के खोपड़े में योजनाबद्द ढंग से इन 70 सालों में
घुसाया गया।स्थायी सत्ता की प्राप्ति के लिए यह सुनियोजित तरीके से किया
गया है।बहुत सी चीजें अंग्रेजो की योजनानुसार ही हो रही थीं।उन्होंने विश्व
की अर्थ-रचना बना कर प्लानड तरीके से अपनों को सत्ता सौपी गयी थी।अंग्रेज
उन 10 सालो में 1947 से 1962 तक बाकी के देश जो अंग्रेजो के गुलाम थे,उनको
बिना किसी स्वतंत्रता आन्दोलन के छोड़ कर क्यों गये???यह सब
कांग्रेसी,वामी,मुस्लिम इतिहासकारों का मिलाजुला उपक्रम था।कोर्ष में डालकर
सब कुछ का श्रेय खुद को दें रहे थे।एक तीर से सात निशाने।मै 1757--1947 की
बात स्वीकारने का सीधा-सीधा मतलब होता है।यह मानना हम केवल अंग्रेज के
गुलाम थे।उससे पहले तो इसी देश का शासन था।फिर देश क्यों बंटा ही क्यों
था??
मामला केवल वही तक नही रुका., त्याग पर भी कब्जा हो सकता
है।कैसे? लीजिये जान लीजिये।तिलक,गोपाल कृष्ण गोखले,मालवीय
जी,बोस,बनर्जी,आजाद,भगत सिंह,लाला लाजपत राय,लाल,बाल,पाल सब स्वतंत्रता
सेनानी थे,बडे त्याग-तपस्या व् संघर्ष करते रहे।उन सबके त्याग पर अंग्रेजो
द्वारा ट्रेंड "घरानों, ने "कब्जा,कर लिया।अंग्रेजो को तो जाना ही था।यहाँ
का शासन काफी खर्चीला,रिस्की और जिम्मेदारियो से भरा साबित हो रहा था। भारत
में सरकार चलाना उनके लिए घाटे और रिस्क का सौदा हो गया था उनके 1.45 हजार
से अधिक नागरिक इस देश में फंसे थे।अमेरिका की आजादी युद्द और भारत में
1857 के म्युटिनी के उदाहरण से उनमे गहरा डर था। इस में बड़ी संख्या में लोग
मारे गये थे।1946 से 54 तक उन्होंने (बिना किसी भी प्रकार के
संघर्ष-प्रतिकार के )88 देश स्वतंत्र कर दिए। इनमें से कई देशो ने तो
स्वतंत्रता की मांग भी नही की थी।बल्कि कई
वेस्ट-इंडीज,जिम्बाव्वे,सोमालिया,नाइजीरिया तो इस पर बगावत में उतर आये की
अंग्रेज उनको छोड़कर न जाएँ।
दरअसल अंग्रेज बिजनेस प्रकृति वाला समुदाय है।ईष्ट इण्डिया कम्पनी के अलावा"132,बहुराष्ट्र्रीय कम्पनियाँ थी।उन सबका रजिस्ट्रेशन आज भी इंग्लैण्ड या युरोपियन देशो में है।केवल 5 ही वापस गयी,कुछ बंद हो गयी।बाकी सब अभी भी इस देश से एक मोटी रकम ले जाती हैं।यह सरकारी "राजस्व, यानी तत्कालीन लगान से कई सौ गुना ज्यादा थी।आज भी उनकी कमाई जारी है. सभी सरकारे उनके लिहाज से ही पालिसियां भी बनाती है।शेष बात समझनी और आसान है।अंग्रेजो ने आजादी के बाद की स्पष्ट और दीर्घ-कालीन प्लान बना कर कई भारतीय घरानों को ब्रिटेन में पढाया लिखाया था।अंग्रेजो की ही सत्ता और मीडिया ने उन्हें इस देश में लाकर नेतृत्व के रूप में स्टैब्लिश किया।सामान्य जन अपने संसाधनों के सहारे लंदन पढ़ाई करने नही जा सकता था।उनकी पूर्व अंकपत्रों का अध्ययन करिये वे औसत दर्जे के भी नही थे।नेता जी सुभास बोस-मालवीय जी-तिलक योग्यता के सहारे वहां गए थे।इसलिये किसी भी तरह स्वीकर न किया।यहाँ तक की अध्यक्ष बनने के बाद जब वे अंग्रेज गवर्नर से वार्ता का समय मांगते तो उन्हें नही मिलता था।वे वेटेज ही न देते।कारण राष्ट्रवादी नेता देशहित-राष्ट्र और वास्तविक आजादी की बात करते।अंग्रेजी एजेंडे को 'प्रशिक्षित,नेतृत्व आगे बढ़ा सकता था सो वार्ता वगैरह भी उन्ही से करके अपने लोगो का'कद, बढ़ाया जाता। यह एक ऐसी राजनीति थी जिसे हम नूरा-कुश्ती का नाम दे सकते है।उन्ही को 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता कहकर "संप्रभुता, ट्रांसफर किया गया।उन सम्प्रभओ में एक भी नान-इंग्लैण्ड(लंदन) शिक्षित नही था।शेष "राजवंश,को हिस्सेदारी देकर यही इसी देश में लूटती रही।सुना तो यह भी है की इंग्लैण्ड की स्थायी नागरिकता देकर उन कम्पनियों के निदेशक मंडल में भी कई "वंश,निदेशक मंडल में शामिल कर लिए गये हिस्सेदारी के साथ।
सब-कुछ जानते समझते हुए भी ग़लत पढ़ाए-फैलाए गये हम इतिहास नही बदल सकते?दुनियां के सभी देशो को देखिये इतिहास से उत्पन्न समस्त गुलामी के चिन्ह मिटाए गये।अतीत के दर्द पर मलहम लगाया गया।इतिहास के दुःख मिटाए गये। तुर्की का इतिहास पढ़िये उन्होंने अरबी साम्राज्य को अपने कोर्स में पढाया क्या ?नहीं!खोज-खोज कर नष्ट कर दिया जबकि वे भी मुस्लिम थे,काहें को परकीय संस्कृति ढोना, इसी लिए विकसित देश हो सके।अमेरिकन स्वततंत्र संघर्ष उन यूरोपियन के खिलाफ था जिसके वे वंसज है उन्होंने उनके खिलाफ तथ्य-सत्य छिपाए नही बल्कि पूरी तरह लिखे है,उनके सारे प्रतीक अमेरिकन ने मिटा दिए,किन्तु हमारे कांग्रेसी शासको का खेल ही गजब था।वे गुलामी को ही जस्टिफाई करने में लग गए भारत को छोड़कर।कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र,..स्वतंत्रता पाते ही सबसे पहला काम ""गुलामी के सभी प्रतीको,, को नष्ट करता देता रहा है।इंग्लैंड ने रोमन साम्राज्य की गुलामी के एक-एक व्यक्ति,कलाएं और वास्तु तक नष्ट कर दी थी।1789 में अमेरिका ने भी तत्काल यही किया था।महज कुछ साल मुस्लिमो के कब्जे के बाद स्पेन को सारे यूरोप ने सोलहवी शताब्दी मे मिलकर स्वतंत्र कराया सभी को मार दिया,सारी इमारतों के साथ सभी मस्जिद भी तोड़ दिए और भविष्य में मस्जिदों त्तथा इस्लाम पर पूर्णरूपेण रोक लगा दिया।अपनी गुलामी का कोई चिन्ह नही रहने दिया।अब जाकर रहने की अनुमति दी है।अमेरिका,इटली,फ्रांस,आष्ट्रिया,तुर्की,रूस,मिश्र तक लगभग सबने यही किया....सबसे कट्टर और लेटेष्ट कम्युनिष्ट लोगो का उदाहरण मौजूद है उन्होंने जार शाही के बड़े-बड़े चिन्ह मिटा दिए थे कई हजार साल पुराने भी,चीन ने तो मंचूरियन,मंगोलियन वास्तु और इमारतों का क्या कहिए आदमी और वंश तक नष्ट कर दिए जिससे कि आने वाली पीढियां काम्प्लेक्स में न जियें।माओवादी चीन ने।हम अपने सीने पर देश के 3 हजार से अधिक उपासना स्थलों को केवल ध्वंस किया हुआ ही नही बल्कि दूसरो के कब्जे में रोज देखते है,ऊपर से सविधानविद एवं इतिहासकार बताते हैं आजादी मिल गई है,मुझे यह साफ़-साफ़ कहने में कोई संकोच नही हो रहा है।इस मामले में हमारा "नेतृत्त्व बेइमान,,था।आप का स्वाभिमान अगर राष्ट्र का स्वाभिमान नही बनता तो राष्ट्र सदैव ख़तरे में रहता है.फिर कभी भी शक्तिमान.रूप में सामने नही आ सकता।हमने आज़ादी के किसी भी स्वरूप को अपने देश मे महसूस नही किया।क्योकि इतिहास हमारी गुलामी हमे नित्य दिखाता रहता है भले तुम लाख झूठा इतिहास पढ़ाओ।यह सबसे आघाती हथियार है जो पितरो पर वार कर रहा था।जो हमारे नित्य अस्तित्व को ध्वंस करता है,जाग जाओ,जागते रहो।
(आगे पीढ़िये हथियार बदल गए है-भाग-16)