हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-2
भारतीय और विश्व यथार्थ एक दुर्भाग्यपूर्ण नतीजे पर पहुंचने को बाध्य करता है। मुसलमान जहां भी रहेगा, चैन से नहीं रह सकता और उससे लल्लो-चप्पो के आधार पर भाववादी संबन्ध बनाना, उसके खतरे उठाना मूर्खता है और सदाशयता का विस्तार इतना न हो जाय कि आप नई दासता को आमन्त्रित कर
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - 2
मैंने आज दो बार अपने आलेख लिखे और दोनों बार वे मिट या धुुल गए । दिन अपनी प्रकाश्य पुस्तक के अंतिम प्रूफ देख्ाने में गुजारे थे। तिहरी मार। पर फिर भी मैं आज के दिन को खाली नहीं जाने देना चाहता इसलिए कुछ सूत्रवाक्य ही सही:
1. हम कहांं है, क्या जानते हैं, हमारे ज्ञान का स्रोत क्या है, हम उसके पीछे भी कुछ देख पाते हैं या नहीं, देखते हैं तो अपनी ज्ञानव्यवस्था को पुन: दुरुस्त करते हैं या नहीं, ये कुछ सवाल हैंं जिनसे बच कर हम निकलना चाहें तो एक नई जहालत में ही दाखिल होंगे, हमें अपने आप से पूछते हुए और इसलिए जो पढ़ते हैं उससे जिरह करते हुए पढ़ना चाहिए ।
2. हमने कल कुछ उद्धरण एक लेख से प्रस्तु त करते हुए कहा हम इस पर कल विचार करेंगे । विचार तो इरेज हो गया, फिर भी यह याद दिलाना जरूरी है कि इनमें से कोई भी ऐसी सचाई नहीं है, जिसे हम पहले सेे जानते न रहे हों, या जिनसेे क्षुब्ध अनुभव न किया हो, परन्तु फिर भी हमें यह पता न था, न ही इस क्रूर सत्य का पता था कि हिन्दुओं को इस्लामी धर्मद्र्रोहियों के हाथों जितनी यातनाएं भोगनी वे विश्व इतिहास में किसी को न भुगतनी पड़ी। परन्तु वह आठ सौ साल मे घटित घटनाआं को एक बिन्दु पर पहुंचा कर इसका आकलन करता है और हो सकता है परेाक्ष रूप में इस बात के लिए उकसाता भी रहा हो कि कायराेे, कब तक चुप रहोगेे।
3. लेख ठीक उस वर्ष में प्रकाशित हुआ था जब भाजपा सरकार भारी बहुमत से सत्ता में आई थी अौर प्रकाशित एक ऐसी पत्रिका में हुआ था जिसे मुस्लिम द्रोही कहा जा सकता है। अााप उसे अपना मित्र भी मान सकते हैं क्योंकि शत्रु का शत्रु अपना मित्र होता है और यह भूल भी सकते हैं कि इसके फरेब में हमने मुहम्मद गोरी और बाबर को अाामन्त्रित किया था और अपनी गुलामी की बेडि़यांं पहनी और फिर मजबूत की थीं।
इसलिए समझ यह होनाी चाहिए कि शत्रु के शत्रुअों में अधिक चालाक कौन है और कौन किनका उपयोग कर रहा है। इस मामले में क्षोभ दोनों का बराबर रहा हो पर जयचन्द्र अाौर राणा सांंगा की भूमिका अधिक भिन्न न थी और इन दोनों का हमारे ऊपर विदेशी शासन लागू करने या हमारी दासता का विस्तार करने में भी कुछ योगदान है।
4. भारतीय और विश्व यथार्थ एक दुर्भाग्यपूर्ण नतीजे पर पहुंचने को बाध्य करता है। मुसलमान जहां भी रहेगा, चैन से नहीं रह सकता और उससे लल्लो-चप्पो के आधार पर भाववादी संबन्ध बनाना, उसके खतरे उठाना मूर्खता है और सदाशयता का विस्तार इतना न हो जाय कि आप नई दासता को आमन्त्रित करते मिलें।
5. हमें उकसाने वाला उन्हीं सूचनाओं को हमारी चेतना मे, जो पर्याप्त कारणों से पहले से ही विक्षुब्ध है, उकेरने वाला अपना कौन सा व्यक्तिगत अथवा सामुदायिक स्वार्थ साध्ा रहा है कि हमारे आंसू तो रूमाल तक नहीं भिगो पाते पर उसके आंसू जलप्लावन लाने पर उतारू हैं।
इस समय इन प्रश्नों पर विचार करते हुए कल की पोस्ट दुबारा पढ़े, कल हम पूरी तैयारी के साथ उस पर बात कर सकेंगे।