हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-44
जो भी हो, इसी बिन्दु पर हमें राजा राममोहन राय और विद्यासागर की दूरदर्शिता का परिचय मिलता है जिन्होंने आधुनिक चेतना के लिए अंगे्रजी भाषा के ज्ञान और इस भाषा में उपलब्ध ज्ञान के महत्व को समझा और अंग्रेजी के हिमायती बने। राम मोहन राय का अंग्रेजी के समर्थन में खड़ा होना और संस्कृत के माध्यम से शिक्षा ...
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - 44
हमने जब कहा था कि अंग्रेजों को जिस व्यक्ति की तलाश थी वह सर सैयद अहमद के रूप में मिल गया और उन्होंने उनका इतनी सूझबूझ से इस्तेमाल किया कि वह इस भरम में जीते रहे कि वह स्वयं अंग्रेजों का इस्तमाल अपने ‘कौमी’ हितों के लिए कर रहे हैं। हम इस पर बाद में कुछ विस्तार से चर्चा करेंगे। यहां इतना ही कि वे चाहते थे कि भारतीयों को उनकी उसी शिक्षा तक ठहरा रहने दिया जाय जो अब तक उन्हें दी जा रही थी। इसके अलावा वे मामूली शिक्षा अंग्रेजी की देना चाहते थे जिसमें भाषा का ज्ञान तो हो पर आधुनिक विषयों की जानकारी न हो या विज्ञान और प्रौद्योगिकी से दूर रखा जा सके। वे प्रयत्नपूर्वक पुरातनपंथी सोच के दफ्तरी उपयोग की जमात पेदा करना चाहते थे इसलिए संस्कृत कालेज और मुहम्मडन कालेज की स्थापना की। न तो सस्कृत कालेज में अरबी और कुरान और हदीस की शिक्षा मिल सकती थी न ही हिन्दू छात्र मुहम्मदन कालेज में पढ़ने जा सकते थे। पर इस अलगाव का शरारत पूर्ण और विद्वेष फैलाने वाली व्याख्या अवश्य कर सकते थे। और यही स्थिति कानून के मामले में भी थी।
हम पीछे कह आए हैं कि प्राच्यज्ञान की गुणगाथा के पीछे भी सोची समझी चाल
थी। मैकनाटन के जिस कठोर वाक्य का हम हवाला दे आए हैं उसके पीछे भी यह सोच
थी कि यदि कंपनी के अधिकार क्षेत्र में ईसाइयत के प्रचार की छूट मिली तो
धीरे धीरे भारतीय यूरोपीय संस्थाओं से, लोकतन्त्र से परिचित होंगे, प्रशासन
में अपना प्रतिनिधित्व मांगेंगे और ऐसा भी दिन आ सकता है कि वे
स्वतन्त्रता की भी मांग करने लगें। इस दहशत से भी धर्मप्रचार को हतोत्साहित
किया जा रहा है, यह मैं चार्ल्स ग्रांट के उस प्रस्ताव में पाते हैं जिसका
उसने कंपनी के बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स को भारत में ईसाई धर्मप्रचार के पक्ष
मे अपना तर्क देते हुए उल्लेख किया थाः
The grand danger with which
objection alarms us is, that the communication of the Gospel and of
European light, may probably be introductive of a popular form of
government and the assertion of Independence.
इसका जो समाधान ग्रांट को सूझ रहा था वह उस धारणा के अनुरूप था जो उसने हिन्दुओं के बारे में बना रखी थीः
Upon what grounds is it inferred, that these effects must follow in any
case, especially in the most unlikely case of the Hindoos? The
establishment of Christianity in a country, does not necessarily bring
after it a free political constitution. The early Christians made no
attempts to change the forms of government; the spirit of the Gospel
does not encourage even any disposition which might lead to such
attempts. Christianity has been long the religion of many parts of
Europe, and of various protestant states, where the forms of government
is not popular. … it may subsist under different forms of government,
and in all render men happy, and even in societies flourishing, where
the Mahomedan and Hindoo systems are built upon the foundations of
political despotism, and adapted in various instances, only to the
climates that gave them the birth.
परन्तु सबसे रोचक था उसका यह दावा
कि बंगाल की जलवायु और इसके प्रभाव से भारतीयों में आजादी के लिए संघर्ष
का आवेष पैदा ही नहीं हो सकताःNor are we to expect, that Christianity is
entirely to supersede the effects of physical causes. The debilitating
nature of the climate of our eastern territories, and its unfavourable
influence upon the human constitution, have been already mentioned, and
by others represented in strong colours.
ग्रांट ने ब्रिटिश ट्रांजैक्शन्स इन हिन्दुस्तान के लेखक का हवाला देते हुए उनकी कमजोरी, मेहनत से बचने की प्रवृत्ति और खतरे उठाने से बचने की आदत आदि का हवाला दिया है जब कि वह मानता है कि दूसरे प्रान्तों के लोगों का स्वभाव इससे अलग है। 1797 तक कंपनी की बादशाहत मुख्यतः बंगाल तक सीमित थी और तब इससे बाहर तक के विस्तार और उससे उत्पन्न होने वाले खतरों और समस्याओं का अनुमान तक नहीं किया था। बंगालियों के स्वभाव और दूसरे प्रान्तों के लोगों से उनकी स्वभावगत भिन्नता से असहमत भी नहीं हुआ जा सकता। 1857 का विद्रोह बंगाल से आरंभ हुआ था परन्तु बंगालियों की उसमें कोई भागीदारी नहीं थी, यह दूसरे प्रान्तों के लोगों का, विशेषतः हिन्दी प्रदेश का विद्रोह बन कर रह गया था जिसके कारण हिन्दी प्रदेश को असुविधाओं और उपेक्षा का सामना भी करना पड़ा।
परन्तु यहां हम उस आशंका का आकलन कर रहे हैं जिसके कारण अपने शासित क्षेत्र में कंपनी ऐसी किसी भी गतिविधि से, वह धर्मप्रचार ही क्यों न हो, बचना चाहती थी जिससे जनजागृति पैदा हो और वह बढ़ती हुई स्वत्रता की मांग तक पहुंचे। इसी कारण वह भारतीय समाज को मध्यकालीन विवादों में उलझाए ही नहीं, उन्हें इतना उग्र बना कर रखना चाहती थी कि वे उससे बाहर निकल ही न सकें और उसका राज्य स्थायी बना रहे ।
ग्रांट का आकलन गलत नहीं था। ईसाइयत कहीं भी न तो समाज की समानता का उन्नायक बनी न इसने लोकतन्त्र या राष्ट्रभक्ति की भावना पैदा की। जैसा कि तब से आज तक का अनुभव रहा है, ऐंग्लोइंडियनों पारसियों ने कांग्रेस में तभी तक सक्रिय भूमिका निभाई जब तक यह सुविधाओं और अवसरों की मांग तक सीमित थी। बाद में ऐंग्लो इंडियन और ईसाई, जमींदार, रियासतदार, नवाब और रजवाडे़ सभी अंग्रेजी सत्ता के साथ और स्वतन्त्रता आन्दोलन के विरोधी रहे और ब्रितानी सत्ता के हाथों में खेलते रहे जिसके कारण या जिसे सोच कर कांग्रेस को हिन्दू संगठन सिद्ध करने और उसके अभियान में बाधा डालने के तरीके आविष्कार करते रहे और इस बिन्दु पर मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, संघ सभी की भूमिका एक जैसी थी।
जो भी हो, इसी बिन्दु पर हमें राजा राममोहन राय और विद्यासागर की दूरदर्शिता का परिचय मिलता है जिन्होंने आधुनिक चेतना के लिए अंगे्रजी भाषा के ज्ञान और इस भाषा में उपलब्ध ज्ञान के महत्व को समझा और अंग्रेजी के हिमायती बने। राम मोहन राय का अंग्रेजी के समर्थन में खड़ा होना और संस्कृत के माध्यम से शिक्षा देने का विरोध करते हुए यह कथन कि संस्कृत में शिक्षा का अर्थ है समाज को आज से दो हजार पीछे ले जाना इसी चिन्ता को प्रकट करता है।
उनकी चिन्ता भाषा से जुड़ी नहीं थी, लोकचेतना से जुड़ी थी जिसके सन्दर्भ में ही भाषा का औचित्य है। ध्यान रहे कि राजा राममोहन राय निज भाषा का विरोध नही कर रहे थे, संस्कृत के माध्यम से शिक्षा का विरोध कर रहे थे जो निज भाषा नहीं थी। प्रयत्नसाध्य और कष्टसाध्य भाषा थी। वह दो प्रयत्नसाध्य भाषाओं के बीच उसके पक्ष में थे जिसमें उपलब्ध ज्ञान के बल पर एक दूसरा समाज अपनी चतुराई के बल पर इतने बड़े भूभाग का स्वामी बन गया है, जिसके एक टुकड़े के बराबर उसका पूरा देश है।
त्याग, बलिदान, सात्विक जीवन, निस्पृहता आदि कसौटियों पर कसने पर दूसरे बहुत से नेता राय से बड़े सिद्ध होंगे, हमारे किसान नेता बाबा रामचरण दास या राघवदास भी । रोचक बात यह है कि राघवदास ने किसानों को शिक्षित करने का इतना जोरदार अभियान चलाया कि पूर्वोत्तर किसान हाई स्कूलों और कालेजों से भर गया, परन्तु वह भी इनके माध्यम से अंग्रेजी पर भी अधिकार कराना चाहते थे। उनसे पहले मेरे गांव मे मन्नन द्विवेदी गजपुरी जो हिन्दी के लिए समर्पित व्यक्ति थे अंग्रेजी माध्यम का स्कूल खोला था जो चल नहीं पाया। उनके छोटे भाई राम अवध द्विवेदी अंग्रेजी के प्रोफेसर थे।
राजा राममोहन राय को केवल उनके ज्ञान, प्रतिभा और दूरदृष्टि के आधार पर परखा जाना चाहिए। अरबी उन्होंने अपने पिता की महत्वाकांक्षा से मकतब में बैठ कर पढ़ी थी, फारसी का ज्ञान भी उसी क्रम में अर्जित किया होगा। इन भाषाओं का ज्ञान तत्कालीन प्रशासन में उच्च पद पाने के लिए जरूरी था। संस्कृत उन्होंने बनारस जा कर सीखी थी। इसके अतिरिक्त तुर्की और हिब्रू का ज्ञान उन्होंने कैसे प्राप्त किया था इसका मुझे पता नहीं। यही बात उनके अंग्रेजी ज्ञान के विषय में कही जा सकती है। वह अपने स्वभाव में असाधारण मानवतावादी थे और एक ऐसे मत के लिए चिन्तित थे, जिससे भारतीय समाज में धार्मिक कलह को दूर किया जा सके, ईसाइयत के सद्विचारों को ग्रहण किया जा सके और हिन्दू ज्ञान और मूल्य परंपरा की रक्षा की जा सके। यह मेरा आकलन है। जब तक आपको इससे असहमति है, अपनी जगह पर आप ठीक है। हम केवल इतना ही कर सकते हैं कि जिन विभूतियों के चरण स्पर्श तक ही योग्यता हममे नहीं है उनकी आलोचना करते हुए संयत और सभ्य भाषा से काम लें।
मेरा ज्ञान अपूर्ण है, और उसमें अब तक की जानकारी मे लगता है, राजा राममोहन ने दो मोर्चे संभाले, एक था शिक्षा और ज्ञान का आधुनिकीकरण और धर्म-वर्ण-निरपेक्ष प्रसार, दूसरा था ईसाइयत के आक्रमण से बचाव का तरीका जिसके दो पक्ष थे। एक था उन सामाजिक विकृतियों से मुक्ति जिनके प्रचलन से हिन्दुत्व के साथ उन्हें जोड़ लिया जाता है और दूसरा था उस लंगर की तलाश जिस पर भरोसा करके झटकों को झेलते हुए भी अपनी जमीन पर खड़ा रहा जा सके। इस अर्थ में राममोहन राय गांधी से एक शताब्दी पीछे होते हुए भी अपनी चेतना के स्तर पर उनके समकक्ष ही नहीं उनसे आगे भी थे ! उनसे अधिक समावेशी, और इसलिए उनके ईसाइयत की धज्जियां उड़ाने वाले लेखों और टिप्पणियों का असाधारण महत्व है। हम इसके ब्यौरे में नहीं जा सकते, परन्तु जैसा कि सीताराम गोयल का विचार था उनके ईसा प्रेम का ही परिणाम था कि केशवचन्द्र सेन भटक कर उसी संस्था में रहते हुए भी राजा राममोहन राय से उल्टी दिशा में चले गए। इतिहास को हम समझ सकते हैं, इसकी गति को अपने अनुसार चला नहीं सकते। आने वाली पीढ़ियों की सोच और आकांक्षा इसे इतना बदल सकती है कि इसकी पुरानी पहचान ही मिट जाए!