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आस्था के प्रतिमान-७

#इतिहास का #पौराणिक_काव्य और #गुरु_परंपरा...

हमारी संस्कृति #auto_update_system पर है चिरकाल से।हम अपने को समयानुसार झाड़ते पोंछते रहते हैं।जहाँ तक बात शास्त्र की है तो हमारे शास्त्र २ श्रेणी के हैं....
१- #ज्ञानियों के
*२- #अज्ञानियों के

#अज्ञानी शब्द #अपरिपक्वता के अर्थ में है।
पुराण और कथा साहित्य ऐतिहासिक घटनाओं पर काव्यात्मक विमर्श हैं।
जैसे कोई कहे "ये चाँद सा रौशन चेहरा..."
अब आप इस बात पर आपत्ति ले सकते हैं कि "जिस चेहरे को चाँद बता रहे हो उस पर 'अपोलो' कब उतरा???"
अगर आप वामपंथी कचरे से लदे निरे गधे हैं तो ऐसे तर्क के लिए बिलकुल उपयुक्त हैं।

काव्य में कवि वर्णन करते हुए सीमा का अतिक्रमण करता है।वही काव्य का सौंदर्य है।
आज विडंबना है कि संस्कृत काव्य के हिंदी अनुवाद पढ़कर प्रतिक्रिया दी जा रही है।

तो पुराण तथ्यात्मक कम काव्यात्मक अधिक हैं। जनमानस में वे इसीलिये लोकप्रिय हुए।
इसी लोकप्रियता के चलते विधर्मियों द्वारा उनमें बहुत विकृतियाँ प्रक्षिप्त की गई।उनसे मुक्त करके पुराण को समझने के लिए विशेष चेतना की आवश्यकता है। #अध्यात्म_चेतना।

यदि आप परिपक्व हैं तो कृपया ज्ञानियों के शास्त्र पढ़ें।उनमें मिश्रण नहीं है।वे शुद्धतम हैं।पर वे बहुत उबाऊ हैं।सीधे सपाट स्वर में सत्य की अभिव्यक्ति।
"देखें उपनिषद्,गीता, ब्रह्म सूत्र, योगसूत्र ,तंत्रसूत्र ,शिव सूत्र। इनमें से अनेक पर आदि शंकराचार्य के भाष्य पढ़ने का प्रयास करें।"

ये सब ज्ञान निधि सुरक्षित रही क्योंकि लोकप्रिय नहीं थी।दार्शनिक विद्वानों के ही काम की थी।

पर इनका स्वतंत्र अध्ययन बहुत मुश्किल है।इसीलिये हमारे यहाँ #आचार्य_परंपरा से इनका अध्ययन अध्यापन होता रहा है।

आज भी इसके अधिकारी को ये मिलता है।और इसमें जाति का कोई बंधन नहीं है।बस दुराग्रह से मुक्त मन चाहिए।

#अज्ञेय


आस्था के प्रतिमान-८

#गुरु_परंपरा

समर्थ अवधूतों की शक्तिपात परंपरा में साधन (साधना) के लिए गुरु की तस्वीर और उसके आगे गुरुपादुका रखकर ध्यान में बैठना बताया है।

उसका भाव स्वपूजनप्रियता नहीं है। वरन् गुरुतत्व के आह्वान को सरलीकृत करने के उद्देश्य से ऐसा विधान है।

जैसे सर्वव्यापी परमेश्वर एक पाषाण प्रतिमा में प्राणप्रतिष्ठित होता है वैसे ही सद्गुरु का चित्र सर्वव्यापी गुरुतत्व से प्राणप्रतिष्ठित होता है।

इसमें बहुत से किंतुओं की गुंजाईश है जैसे, गुरु के साथ #one_to_one_contact हो किंतु उसके देह से मोह नहीं। इसीलिए हम #गुरुपादुका पूजते हैं ताकि "मुखड़े की माया" से मन दूर रहे।

किंतु, उसकी #जीवंत_गुरु_परंपरा हो अर्थात् जैसे आप उसके सानिध्य में हैं वैसे वह भी अपने गुरु की सेवा में रहा हो व उनसे #दीक्षाधिकार प्राप्त हो।
आधुनिक #दूकानदार गुरु घंटालों में कुछ तो #स्वयंसिद्ध हैं... सीधे परमात्मा से आयातित परमज्ञान संपन्न। और कुछ #भानुमति_के_वरद_पुत्र हैं। प्राचीन काल के और आधुनिक काल के सिद्ध महात्माओं की #मसालेदार_खिचड़ी को अपनी परंपरा बता देते हैं। उसमें जनरुचि के अनुरूप #साँई जैसी गंदगी भी प्रविष्ट करा देते हैं और बवाल होने पर धीरे से पहलू बदल लेते हैं। आप सम्मोहित हैं प्रश्न तो उठाने से रहे।

उसकी दीक्षा प्रक्रिया #आगम_शास्त्र सम्मत हो। अर्थात् शाक्त व शैव रहस्य ग्रंथों से अनुमोदित हो। #स्वकल्पित न हो। किंतु इसका बोध आपको तब होगा जब आप आगम शास्त्र का अध्ययन करेंगे।

उसका ध्यान #परमात्मा पर हो संस्था निर्माण हेतु #आपकी_जेब पर नहीं। एक उदासीन महात्मा ने कथित आधुनिक गुरु व्यवसायियों के बारे में कहा था, *"जिसे खुद अभी तुम्हारे धन की आवश्यकता है वो तुम्हें क्या देगा???"*

गुरु की खोज में सही गलत सबसे पाला पड़ता है... #किंतु ... गलत दिख जाए तो गधे की तरह ढोना नहीं। न उसे गाली देना। तुम गलत थे इसलिए वहाँ फँसे। उसे प्रणाम करना,कि उसने कुछ तो ज्ञान बढ़ाया ही है। और, चुपचाप सत्य की दिशा में बढ़ लेना।
सही सद्गुरु तो हमारे भीतर ही है। वही प्रेरित करता है.... *यहाँ जाओ.... यहाँ से निकलो।* उसी पर श्रद्धा रखना और.....

#चरैवेति_चरैवेति_चरैवेति

#अज्ञेय

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