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हिंदुत्व के प्रति घृणा का इतिहास- 42

जब हमारी निंदा की जाती है तब हम उसके पीछे निंदा करने वाले के इरादे तलाशते हैं. जब प्रशंसा की जाती है तो उसके पीछे काम करने वाले इरादों का पता नही लगाते. उनसे सहमत हो जाते हैं जब कि इरादे उसके पीछे भी हो सकते हैं. जिस व्यक्ति , समाज या देश के हित हमसे जुडे हैं उसके किसी कथन पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। प्रशसा या निन्दा ही नहीं उसके लिखित आश्वासन, विधानों और करारों तक की आप्तता उसकी करनी की कसौटी पर ही कसी जा सकती है, या कसी जा सकती है इस बात से कि इसमें किन बातों को छोड़ा, किनकों अनुपात से अधिक महत्व दिया और किनको अपनी ओर से जोड़ा या तोड़ा-मरोड़ा गया है।

उदारता हो या कठोरता, हमारा ध्यान उसके पीछे काम करने वाले इरादों पर होना चाहिए। अंग्रेज मिशनरियों की आलोचनाओं को पढ़ कर हम आहत होते हैं, जब कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनके द्वारा इंगित किए जाने वाले दोष काल्पनिक नहीं थे, वे हमारे समाज में थे और उनके बचाव में कुछ नहीं कहा जा सकता। यदि शिकायत की जा सकती है तो इस बात की कि उनको वे अच्छाइयां नहीं दिखाई देती थीं जो भी इस समाज में थी। उनके मन में घृणा इतनी गहरी थी कि अपने से भिन्न रूचि, प्रकृति, परिवेश, मूल्यप्रणाली को गर्हित सिद्ध करने के लिये अभद्र भाषा और व्यवहार से बाज नहीं आते थे। जिन बुराइयों को वे लक्ष्य करते थे उनके अतिरिक्त कुछ भी न देख पाने के कारण वे उस समाज में जिनमें ये बुराइयां थीं किसी समझदार और नैतिक व्यक्ति के समायोजित रहने की कल्पना नहीं कर सकते थे। इसके अभाव में वह जुनून पैदा भी नही हो सकता था जो धर्मान्तरण को धर्मयुद्ध के स्तर पर चलाने के लिए जरूरी था।

परंतु अठारहवीं शताब्दी तक उनकी आलोचनाओं की ओर कम्पनी के अंग्रेज अमलावर्ग तक ध्यान नहीं देता था। भारतीयों पर उनकी आलोचना का असर भला कैसे होता ! पहली नज़र में यह बात चकित करने वाली लगेगी कि उससे पहले के प्रशासकों में इतनी धर्मनिरपेक्षता कहाँ से आ गई थी कि उनमें से कोई भी ऐसा नहीं निकला जो धर्मप्रचार को प्रोत्साहन दे। इसके पीछे तीन कारण थे। पहला यह कि पुर्तगालियों की तरह अंग्रेज मुसलमानों के पड़ोसी नहीं थे न ही उनमें धर्मयुद्धों का वैसा जुनून था जो स्पेनियों और पुर्तगालियों में था इसलिए उन्होंने व्यापार के साथ धर्मांतरण को नही मिलाया था. उनकी कम्पनी मुनाफे के लिए बनी थी और मुनाफ़े को प्रभावित करने वाली कोई गतिविधि उन्हें सह्य न थी. दुसरा कारण था व्यापार के अतिरिक्त मुग़लों से राजस्व वसूली का ठेका पाने के बाद जितना लाभ व्यापार से नहीं होता था उससे अधिक उगाही किसानों को भुखमरी के कगार पर पहुंचा कर कम्पनी के शेयर धारकों को अधिक से अधिक लाभ दिलाने की खब्त जिससे जनता में भारी विक्षोभ था. इसमें धार्मिक मामलों में किसी तरह के हस्तक्षेप से इसे उग्र नहीं बनाना चाहते थे। परन्तु सबसे बड़ा कारण यह था कि फ्रांसीसी एक प्रतिस्पर्धी शक्ति के रूप में अपने कारोबार और क्षेत्र विस्तार के लिए प्रयत्नशील थे और कुछ नवाबों और राजाओं से उनके अच्छे सम्बन्ध थे और उनके अधीन क्षेत्र में उनका अपनी प्रजा से अच्छा सम्बन्ध था जब कि सभी राजा और नवाब अंग्रेजों के विस्तारवादी इरादों और कारनामों से आतंकित थे. ऐसे में यदि मिशनरियों के कारनामों से जनविक्षोभ उग्र होता तो पासा पलट सकता था।

इन कारणों से सांस्कृतिक स्तर पर कम्पनी के डाइरेक्टरों का रुख उतना ही उदार था जितना आर्थिक स्तर पर बेरहम। इसी के चलते भारत की भाषाओँ के विकास, प्राचीन भारतीय साहित्य के अध्ययन, उनके उज्वल पक्ष के उद्घाटन और वर्तमान हिन्दू समाज की विकृतियों को बाद कि गिरावट से जोड़कर देखा जाता रहा और इसके कारण इन प्राच्यवादियों का रुख अनेक सामाजिक तथ्यों पर मिशनरियों से इतना उलटा था कि जिसे मिशनरी देख नहीं पाते थे वे प्राच्यवादियों को दिखाई देते थे, जिनमे मिशनरी बुराइयां तलाशते थे उनमें प्राच्यवादियों को असाधारण परिपक्वता दिखाई देती थी.

इसका एक कारण यह था कि प्राच्यवादियों में सुशिक्षित, तर्कवादी दौर के खुलेपन में शिक्षित संभ्रांत पृष्ठभूमि से निकले लोगों का बाहुल्य था जब कि मिशनरियों की स्थिति इससे उलटी थी। सीताराम गोयल ने डिक कुईमान (Dick Kooiman ) के आधार पर जिन्होंने पादरियों की सामाजिक पृष्ठभूमि पर शोध किया था उद्धृत किया है की उनकी धर्म और आत्मिक उत्थान में उतनी रूचि नही होती थी. यह उनके लिए नौकरी पाने का जरिया था और अधिकांशतः वे पश्चिमी समाज के पिछड़े तबकों के होते थे और इसलिए हम मान सकते हैं की उनको अपनी झक में वैसा ही गर्व अनुभव होता था जैसा दंगों में अपनी उसी कौम के सम्मान और रक्षा के लिए छूरा और कटार लेकर मैदान में उतरने वाले दबे हुए तबकों को जब की मारे उन्ही के तबके के लोग जाते है भले उनका मजहब अलग हो.

शिक्षा, संस्कार और उन्नति के रास्तों की तलाश की इस भिन्नता के कारण भी दोनों के मूल्यांकन अक्सर उलटे होते थे. प्राच्यवादियों का मूल्यांकन भी निर्दिष्ट नीतियों के अनुरूप था परन्तु उनका तरीका तार्किक, इतिहासबोध से प्रेरित और वस्तुपरक था इसलिए जहाँ मिशनरियों को दोष दिखाई देता उसमें भी उन्हें एक उच्च सभ्यता की अधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था दिखाई देती थी. उदाहरण के लिए वर्ण व्यवस्था में मिशनरियों को सामाजिक भेदभाव दिखाई देता था तो प्राच्यवादी उन कालों के दूसरे समाजों से तुलना करने पर इसे सर्वाधिक न्यायपूर्ण मानते थे और इसे प्राचीन भारतीय सभ्यता की महिमा का प्रमाण ।

इसी तरह यदि सतीप्रथा मिशनरियों के लिए सबसे जघन्य प्रथा थी तो प्राच्यवादियों को पता था की यह कुरीति मध्येशिया से आई. ऋग्वेद में तो विधवा अपने देवर के साथ सहजीवन की अधिकारिणी थी, मिशनरियों की नज़र हिन्दू समाज में एक दायरे में बालिकावध पर थी पर प्राच्यवादियों को यह नहीं समझ में आता था की जिस मूल्यव्यवस्था में अंडा खाना भ्रूणहत्या माना जाता रहा हो, जो किसी भी कारण से अपनी रक्षा में अक्षम हो उस पर प्रहार नहीं किया जा सकता, जिसमें नारी पर प्रहार करना वर्जित था उसमें बालिका वध कैसे संभव है और इस सोच के विद्वान इसे भी मध्यशियाई कबीलेपन की देन मान सकते थे जिसमें लड़की किसी को देना अपना अपमान करना था, किसी से मांगना उस पर अपना अधिकार मानने जैसा था और जिस के कारण मुग़लों ने हरम बसाए पर उनकी किसी कन्या का विवाह तक किसी से न हो पाया, यह विकृति उनकी देन हो सकती थी।

एक की समझ में हिन्दू विश्व का सबसे गर्हित समाज था, दूसरे की नज़र में हिन्दू मूल्यमान उत्कृष्टता के शिखर थे।

दोनों में कोई पूर्णतः सही न था, पर दोनों दो मानसिकताओं के कारण भिन्न थे. दोनों के पास अपने तर्क और समाधान थे परन्तु यदि दोनों अपने विचारों में स्वतंत्र होते तो उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ होते ही पास पलट नहीं जाता।
दुर्भाग्य की बात है कि मार्क्सवादी इतिहासलेखकों ने मिशनरियों के इतिहासदर्शन को अपने इतिहासलेखन का आधार बनाया और तथाकथित राष्ट्रवादी लेखकों ने प्राच्यवादियों को महतव् दिया। जब ये इतिहासकार अपने को पेशवर इतिहासकार कह कर यह लाभ लेना चाहते हैं कि वे अधिक भरोसे के है तो मुझे उनकी आलोचनात्मक क्षमता पर सन्देह होता है , हो सकता है इसका कारण यह हो कि मैं पेशेवर इतिहासकार न होने के और हीनभावना से ग्रस्त होने के कारण ऐसा सोचता होऊँ ।

आगे की चर्चा कल.

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