हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-39
हिन्दूफोबिया .... सर सैयद ने यदि अपने विवेक से काम लिया होता तो वे पूरे भारत के नेता बनकर उन क्षेत्रो में शिक्षा के विस्तार का आग्रह करते और उस एकता में एक नई जान फूँक सकते थे जो १८ ५७ में ऐतिहासिक कारणों से पैदा हुई थी और जिससे आतंकित होकर अंग्रेज उसे तोडना चाहते थे...
हिंदुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - ३९
हिन्दूफोबिया
सर सैयद ने यदि अपने विवेक से काम लिया होता तो वे पूरे भारत के नेता बनकर उन क्षेत्रो में शिक्षा के विस्तार का आग्रह करते और उस एकता में एक नई जान फूँक सकते थे जो १८ ५७ में ऐतिहासिक कारणों से पैदा हुई थी और जिससे आतंकित होकर अंग्रेज उसे तोडना चाहते थे. राजद्रोह के जिस अभियोग से वह बचना चाहते थे उससे भी बचे रहते. इससे उन्हें केवल उत्तर भारत के हिंदुओं का ही नही, पूरे भारत के सभी वर्गों का समर्थन मिलता. यह उनकी उस समझ के भी अनुरूप था कि हिन्दू और मुसलमान एक सुन्दरी की दो ऑंखें हैं, कि दोनों की भलाई आपसी मेलजोल में है, और यह चिंता पूरे हिंदुस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों के विषय में होती.
हमारी समझ से किसी को क्या करना चाहिए था इसके आधार पर हम उसका मूल्यांकन नहीं कर सकते .
परन्तु यदि परिथितियाँ और साक्ष्य ऐसे हों जिनसे यह सोचा जा सके कि उसने ऐसा क्यों किया या क्यों नहीँ किया तो यह समझा जा सकता है कि उन परिस्थितियों का निर्माण करने वाले का अपना संकट क्या था जिसे उसने किसी अन्य पर डाल दिया और उस अन्य का चुनाव उसने कैसे किया और अपनी योजना को किस तरह लागू किया कि उसे संदेह न हुआ कि उसका उपयोग किया जा रहा है.
इस तरह के सवाल बहुत जटिल होते हैं जिनमे आदि अंत में और अंत आदि में समाया रहता है. अंडा पहले या मुर्गी की तरह. देखना यह होगा कि दहशत में कौन था और उससे उबरने की चिंता किसे अधिक थी और मौके की तलाश में कौन था, जिस की पहचान करके उसने उसका उपयोग इतनी चालाकी से किया कि वह इस भ्रम में रहा कि वह अपनी चातुरी से अपना उपयोग करने वाले का उपयोग कर रहा है.
सैयद अहमद कम्पनी सरकार के वफादार मुलाजिम थे. उनमे मानवीयता भी कम न थी. १८५७ को जिस भी नाम से याद किया जाय, उसमे उन्होंने अपनी निष्ठां और व्यक्तिगत गरिमा के अनुरूप व्यवहार किया और आपदाग्रस्त अंग्रेज़ परिवारों को शरण दी और बाद में अंग्रेजों ने जो उससे भी जघन्य बदले की कार्रवाई की उसको भी देखा और उसकी कहानियां सुनी. उन्होंने इन्हें सुनकर कितने आंसू बहाये यह न तो किसी ने देखा न उन्होंने दर्ज किया पर जब इसके कारण बताने वाली व्याख्याएं आईं और सारा दोष हिंदुस्तानियों पर और खासकर मुसलामानों पर डाल कर इसे एक शाजिस बताया गया तो वे आंसू आक्रोश बनकर उनकी वाणी में प्रकट हुए जिसे लिपिबद्ध करने के बाद उन्होंने अपने पैसे से इसकी पांच सौ प्रतियाँ प्रकाशित कीं और उन्हें वाइसरॉय और ब्रिटिश सांसदों को भेज दी. उनके एक हिन्दू मित्र थे, नाम याद नही आ रहा पर वह इसकी प्रतियां अंग्रेज़ों को भेजने से बरजते रहे और जब वह फिर भी अड़े रहे तो उनका अंजाम सोचकर रोने लगे.
सैयद अहमद जानते थे कि उनके आरोप और बचाव दोनों सशक्त हैं. उनकी इस पुस्तक, असबाबे बग़ावतें हिन्द को उन्हें समझने की कुंजी माना जा सकता है. परिणाम उनकी आकांक्षा के अनुरूप रहे. उनका क़द बढ़ा, आफत नहीं आई .
जिस समय सैयद अहमद ने अपनी पुस्तक लिखी उस समय उनके मन में आक्रोश था, भय नहीं. हिंदुओं और मुसलमानो के साथ जो बुरा से बुरा हो सकता था वह हो चुका था. वह प्रतिशोध नहीं अतिशोध था जिससे सिद्ध होता था कि वे जिन मध्यकालीन क्रूरताओं की याद दिलाते हुए अपने को उनसे बेहतर शासक सिद्ध कर रहे थे अब नहीं कर सकते.
उन्होंने अपराधियों को दण्डित नहीं किया था निरपराध जनता पर अत्याचार किया. इसे अत्याचार मानते हुए ब्रिटिश संसद ने कम्पनी के शासन का अंत कर दिया था. यह संसद का फैसला था पर ब्रिटिश अमला वर्ग तो वही था. उसकी समस्या उग्र हो गई थी. तलवार ने अपना जवाब दे दिया था. यदि मुसलामानों के शासन के प्रति जिन्होंने गुरुओं के साथ जघन्य अत्याचार किये थे सिखों की दुश्मनी न होती जिसके कारण उन्होंने कम्पनी का साथ दिया, तो अंग्रेजों का सफाया निश्चित था.
अन्यायी सत्ता तलवार के बल पर टिकी होती है इसलिए उसे तलवार से तब तक डर नहीं लगता जब तक तलवार उसके हाथ में है, पर विचारों से डर लगता है. विचार तलवारों की धार भोथरी भी कर सकते हैं, और तलवार बनाने और तलवार उठाने की ताक़त भी पैदा कर सकते है.
यह खतरा पहले से पैदा हो चुका था जिसे प्रतिबंधों से दबाया जा रहा था. यह उन हिंदुओं की और से पैदा हुआ था जिन्होंने नए यथार्थ के अनुरूप अपने को ढालते हुए अपने प्रयत्न से अंग्रेजी सीख कर मैकाले के भारत आने से पहले ही अंग्रेजी में दक्ष एक शिक्षित मध्यवर्ग, नए अवसरों का लाभ उठाने के लिए, पैदा कर लिया था और अंग्रेजी संस्थाओं से परिचित हो चुके थे और उन अधिकारों की मांग कर रहे थे जो मध्यकाल में न तो मांगी गईं, न मांगी जा सकती थीं, पर वे अंग्रेज़ी ज्ञान के बल पर उनकी मांग कर थे. यह थी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जिसके जनक राममोहन रॉय थे.
उस खलबली का तो उन्हें पता ही न चला जिसका १८ ५७ में सामना करना पड़ा और हिन्दू मुस्लिम भेद के कारण सिखों की मदद और बंगालियों की तटस्थत के कारण और समय रहते ब्रिटिश सहायता मिलने हे कारण जो निर्ममता से कुचल दिया गया. पर बदले की कार्रवाई के बाद भी पहली बार भीतर से अँगरेज़ डरे हुए थे,
इससे उन्होंने आत्मालोचन करने पर तीन औज़ार निकाले.
१- सूचना तंत्रा का विकास जिससे हिन्दुस्तनियों के बीच क्या चल रहां है उसका पता चल सके .
२- सिखों और मूसलमानो की दबी कटुता का विस्तार करते हुए साम्प्रदायिक वैमनष्य को बढ़ाना और उन्हें लड़ने मरने के लिए छोड़ देना,
३. इसके लिए सही भारतीय का चुनाव करना और उस के निर्णयों को इस ठंडेपन से प्रभावित करना कि उसे लगे वह जो कुछ कर रहा है अपने निर्णय के अनुसार कर रहां है और उसकी साख बाढाने का प्रयत्न करना.
इस के लिए बंगालियों को पटाना मुश्किल था अन्यत्र परयावरण क्षुब्ध था.
इसी बीच उन्हें अपने क्षोभ को मुखर करने वाले सैयद अहमद मिल गए जो अपनी
उसी पुस्तक में बता रहे थे कि मुअलमान अंग्रेजों के प्रति जिहाद कर ही
नहीं सकता, वह वर्जित है, हां हिंदुओं के खिलाफ जिहाद गलत नहीं था.
The preaching of jehad in India… against the British Government was
opposed to the doctrine of the Mohammadan religion, and from the same
cause, its practice on the other side of the Indus provinces , i.e.
against the Sikhs was held lawful.
यहीं उन्हें लगा कि उन्हें अपने काम का बन्दा मिल गया. इसका आगे पीछे का व्योरा कल.