हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-32
यह सर सैयद अहमद की नई सोच नहीं थी। भाषा की समस्या पर उठे विवाद और उसमें एक ही भाषाक्षेत्र में दो भाषाएं चल ही नहीं सकतीं उसी का विस्तार था, इसलिए वह हिन्दी को किसी भी सूरत में स्वीकृति के लिए तैयार नहीं थे।
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - 32
जिसको भी देखना हो कई बार देखना, हर आदमी में होते हैं दो चार आदमी ! और इन्ही दो चार से दो चार हाथ करते हुए हम किसी व्यक्ति के सामाजिक चरित्र को समझ पाते हैं, उसकी निजता का बहुत कुछ फिर भी छिपा रह जाता है, जिसमें भी एक स्थायी और प्रतिद्वन्द्वी सक्रिय रहता है! इन भिन्नताओं कारण हम एक साथ अपने बहुरूपियापन को बचाए जीते हैं और फिर भी जो चाहते हैं वह हो नहीं पाते हैं- कभी अपनी सीमाओं के कारण, कभी बाहरी परिस्थितियों के कारण, और कभी अपने ही इरादों या मन में आए बदलाव के कारण।
बहुत कम लोग होते हैं जिनके जीवन में एकरूपता का निर्वाह हुआ हो; जहां ऐसा आभास होता है वहां भी अधिक बड़ी भूमिका हमारे अपने सीमित ज्ञान की होती है। सामाजिक सरोकारों से जुड़े व्यक्तियों में यह विविधता असाध्य अन्तर्विरोधो का रूप भी ले लेती है जिससे हम ऐसे किसी व्यक्ति के कथन पर भरोसा न करके उसके कार्य और उसकी परिणतियों पर ही ध्यान दें तो अधिक अच्छा हो।
सर सैयद का एक रूप वह है जिसमें वह कहते हैंः
“If we hate the culture and lifestyle of different societies, however
pristine they may be because of sheer prejudice or because of age old
traditions, then what vision and hope do we have for our own development
and progress?”
और दूसरा रूप वह जिसमें वह हिन्दी को गंवारों की
भाषा मानते हैं और उर्दू को शिष्ट जनों की जबान। वह अपनी जबान बोल रहे थे,
या जान बीम्स की यह तय करना भी कठिन है । बीम्स खुद भी बहुत अन्तर्विरोधी
बातें करते हैं। अपने तुलनात्मक व्याकरण में वह बंगला को इसलिए पिछड़ी भाषा
करार देते हैं कि यह तत्समबहुल है, इसका देशज आधार नहीं है और
हिन्दुस्तानी को इसलिए विकसित भाषा बताते हैं कि इसमें तद्भव प्रयोग मिलते
हैं, यह आम आदमी की जबान है।
परन्तु जब राजनीति करने की बात आती है तो
वह इंडियन स्टडीज: पास्ट ऐंड प्रेजेंट में प्रकाशित 'आउट लाइन्स आफ इंडियन
फिलालोजी', में ठीक उल्टी बात करते हुए फारसी गर्भित हिन्दुस्तानी की
हिमायत करते है और उसे धर्म से जोड़ कर मुसलमानों की भावनाओं को भड़काने का
प्रयत्न यह कहते हुए करते हैं कि गो हिन्दी क्षेत्र के हिन्दू मुसलमान
बोलते एक ही जबान हैं, फिर भी यदि अनपढ़ मुसलमान हो और उसे भी फारसी का कोई
शब्द सुनने में आ जाय तो वह अर्थ न जानते हुए भी उस पर मुग्ध हो जाता है।
हम यहां उसके दूसरे तर्कों को जो उतने ही लचर हैं नहीं ले रहे हैं क्योंकि हमारे सामने सांप्रदायिक भेद रेखा और उसके नतीजों को समझने की समस्या है, जिसने प्रतिद्वन्द्विता को पारस्परिक घृणा में बदला या कहें जो पहले से चली आ रही भेदरेखा थी उसे अधिक गहन किया।
सर सैयद अपनी इंग्लैंड यात्रा में इस सीख के साथ लौटे थे कि कोई देश सभ्य तभी हो सकता है जब सभी कलाएं और विज्ञान उसकी अपनी भाषा में सुलभ हों, परन्तु अपनी भाषा उनकी नजर में जनसाधारण द्वारा बोली और उस क्षेत्र के सभी लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा ही हो सकती थी, इसलिए हिन्दी का कोई विकल्प नहीं था।
इसे मान लेने के बाद जैसा कि हम कह आए हैं मुसलमानों के हाथ से वे ओहदे भी छिन जाते जो उनके पास थे। यह एक ऐसी स्थिति थी जिसमें उनके अपने समुदाय के हित या लाभ का टकराव समाज के हित से था, इसलिए वह समाज हित के प्रतिकूल, अपनी जानकारी में भी केवल रईसों के घरों में बोली जाने वाली भाषा को सर्वमान्य बनाने का आग्रह कर रहे थे और सर्वजनग्राह्य लिपि और भाषा का विरोध कर रहे थे।
परन्तु यह बोध हमारा है, इक्कीसवीं शताब्दी का जिसमें भी अभी हिन्दी बचाओ के जंग में ऐसी बोलियों को दबाने का जंग जारी है जो भाषाएं मानी जाती रही हैं । ब्रज के साथ तो भाषा पद भी जुड़ा था, तुलसी के लिए बोलचाल की जबान ही भाषा थी। हम हिन्दी के हित और बर्चस्व से चिन्तित, उसे राजभाषा बनाने को उत्सुक होने के कारण, यदि आज भी भाषाओं को एक ऐसी भाषा को भाषा मनवाने पर आग्रहशील है, जिसे शिक्षा प्राप्त करने के बाद, पढ़े लिखे लोग ही बोल और लिख सकते हैं, तो उन्नीसवीं शताब्दी में सर सैयद अहमद को उनके विचारों के लिए हम गलत नहीं कह सकते।
स्वहित और समुदायहित से जुड़ी बातें गलत होने पर भी सही प्रतीत होती हैं। ये ही वे स्थितियां होती हैं जिनमे जो गलत है वह भी सही लगता है और उसे सही सिद्ध करने के लिए दलीलें दी जा सकती हैं, इसे आप हिन्दी बचाओ मंच पर जा कर देख सकते हैं, पर खटका बना रहता है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है.
हिन्दी की मांग करने
वालों ने उर्दू को हटाने का प्रस्ताव नहीं रखा था, स्वीकृति दिलाने या, तब
के सन्दर्भ में कहें तो, ऐच्छिक भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था और इसके लिए
ही संघर्ष कर रहे थे, परन्तु इसकी परिणति क्या होगी इसे सर सैयद किसी से
अच्छी तरह जानते थे और उसी से वह आतंकित थे।
इसे उनके एक दूसरे सन्दर्भ में व्यक्त उद्गार से समझा जा सकता है।
कांग्रेस से दूर रहने, राजनीतिक गतिविधि में भाग न लेने और अपनी अनन्य
निष्ठा ब्रिटिश सरकार में व्यक्त करने के पक्ष में उन्होंने अपने मेरठ के
भाषण में यह दलील दी थी कि मान लो ऐसी नौबत आ जाती है कि अंग्रेजों को इस
देश को छोड़ कर जाने को मजबूर कर दिया जाता है तो होगा क्या? इसे मैं बयान
करने चलूं तो चूक हो जाएगी इसलिए उनके अनूदित वाक्यों में ही देखेंः
The first of all is this — in whose hands shall the administration and
the Empire of India rest? Now, suppose that all English, and the whole
English army, were to leave India, taking with them all their cannon and
their splendid weapons and everything, then who would be rulers of
India? Is it possible that under these circumstances two nations — the
Mahomedans and the Hindus — could sit on the same throne and remain
equal in power? Most certainly not. It is necessary that one of them
should conquer the other and thrust it down. To hope that both could
remain equal is to desire the impossible and the inconceivable.
यह तर्क तो उन्होंने उस जलसे में उपस्थित रईसों और मुसलमानों को अपनी बात का कायल करने के लिए दिया था कि कांग्रेस जिस तरह का प्रशासनिक हस्तक्षेप कर रही है, उसमें एक दिन नौबत यह आ सकती है कि अंग्रेज यहां से चले जाएं. परन्तु सोच लो उस हालत में क्या होगा, एक ही गद्दी पर दो बादशाह नहीं बैठ सकते। इसी तरह एक ही भाषाक्षेत्र में दोनों जबाने नहीं चल सकतीं। एक बार हिन्दी को स्वीकृति मिल गई तो यह उर्दू को अपदस्थ करती चली जाएगी और हमारी सांस्कृतिक अस्मिता समाप्त हो जाएगी।
फिर परिणाम क्या होगा।
श्रोताओं में निराशा न घर कर जाए इसलिए उन्होंने समझाया कि घबराने की बात
नहीं है। अभी हम कुछ नहीं कह सकते। सब कुछ खुदा की मरजी पर निर्भर करता है:
you must remember that although the number of Mahomedans is less than
that of the Hindus, and although they contain far fewer people who have
received a high English education, yet they must not be thought
insignificant or weak. Probably they would be by themselves enough to
maintain their own position. But suppose they were not. Then our
Mussalman brothers, the Pathans, would come out as a swarm of locusts
from their mountain valleys, and make rivers of blood to flow from their
frontier in the north to the extreme end of Bengal.
This thing —
who, after the departure of the English, would be conquerors — would
rest on the will of God. But until one nation had conquered the other
and made it obedient, peace could not reign in the land. This conclusion
is based on proofs so absolute that no one can deny it.
यह सर सैयद अहमद की नई सोच नहीं थी। भाषा की समस्या पर उठे विवाद और उसमें एक ही भाषाक्षेत्र में दो भाषाएं चल ही नहीं सकतीं उसी का विस्तार था, इसलिए वह हिन्दी को किसी भी सूरत में स्वीकृति के लिए तैयार नहीं थे।
हम सांस्कृतिक फासिज्म की बात अक्सर करते हैं जिसकी कोई तुक नहीं है, परन्तु भाषाई सांप्रदायिकता की बात आज तक नहीं सुनी जब कि यह मुख्य रूप से उस क्षेत्र की समस्या है जिसे मोटे तौर पर हिन्दी प्रदेश कहा जा सकता है और इसमें स्वाभाविक भाषाओं पर किसी एक भाषा को बल प्रयोग से थोपने का प्रयत्न किया जाता रहा, जो कभी भारत पर अफगानों की मदद से सत्ता हासिल करने या उसमें बराबरी का संघर्ष करने के रूप में कल्पित किया गया और कभी सरकार की मदद से उर्दू को थोपने की जद्दोजहद के रूप में।
भारत की सांप्रदायिक समस्या धर्मकेन्द्रित नहीं रही है, भाषाकेन्द्रित रही है। कोई किसी का बड़े पैमाने पर धर्म बदलने नहीं जा रहा था। पर भाषा बदले बिना या कहें दो में से एक को हटाए बिना रह नहीं सकती थी इसलिए पाकिस्तान की पहचान उर्दू भाषा और अरबी लिपि को बनाया गया और अरबी लिपि को पान इस्लामिज्म का सर्वनिष्ठ तत्व बता कर भावुकता पैदा की गई, न कि मजहब को ले कर ।
यह दूसरी बात है कि जिस भाषा के नाम पर बटवारा हुआ उसके बटे हुए देश का लगातार बटवारा उस भाषा को लादने के कारण हुआ क्योंकि उनकी अपनी भाषाओं की अस्मिता से इसका टकराव हुआ। सांप्रदायिकता के धार्मिक पक्ष को इतना उभारा गया है कि इसके भाषाई मूलाधार को समझा ही नहीं जा सका ।