हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास-30-(1)
सर सैयद के सामने तीन चिन्ताएं थीं और इनसे ही वे निर्णय किए गए जो दूसरे काल या दूसरे हितों से जुड़े लोगों को गलत लग सकते हैं, परन्तु उनके अपने सरोकारों को ध्यान में रखें तो उनसे सही निर्णय आदर्श, अर्थात् देश-काल-बाह्य वस्तुपरकता में ही हो सकता है।
हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास - 30 (1)
आज की स्थिति में यदि हम अतीत की गलतियों को समझना चाहें तो समझ सकते हैं, परन्तु उनके आधार पर यदि उस काल में लिए गए निर्णयों के औचित्य का मूल्यांकन करने चलें तो हमसे अवष्य चूक होगी। सर सैयद के सामने तीन चिन्ताएं थीं और इनसे ही वे निर्णय किए गए जो दूसरे काल या दूसरे हितों से जुड़े लोगों को गलत लग सकते हैं, परन्तु उनके अपने सरोकारों को ध्यान में रखें तो उनसे सही निर्णय आदर्श, अर्थात् देश-काल-बाह्य वस्तुपरकता में ही हो सकता है।
उनके सामने सबसे बड़ी चिन्ता आत्माभिमान की रक्षा की थी। यह आत्माभिमान तीन तत्वों से बना था! एक दरबारी संस्कार, दूसरा समकालीन यथार्थ में अपने भविष्य का अनुमान और तीसरा इसकी रक्षा के लिए अपेक्षित उपाय। वह जानते थे कि इसमें दोष मुस्लिम समुदाय का है जो धार्मिक जुनून के कारण शिक्षा में और इसलिए उपलब्ध अवसरों का लाभ उठाने से बंचित रह गया। परन्तु यहीं से आरंभ होता है वह आत्मप्रक्षेपण जिसमें आप उनसे खार खाने, यहां तक कि घृणा करने लगते हैं जो अवसर का लाभ उठाने में सफल रहे थे जब कि आपकी विफलता आपकी अकर्मण्यता के कारण रही।
इसकी अभिव्यक्ति कई रूपों में होती है। पहली असुरक्षा की भावना के रूप में जिसमें अपना ही इतिहास अपना पीछा करता लगता है। इसके इकहरे पाठ में हमसे चूक भी हो सकती है। सबसे पहली यह आशंका कि शिक्षा में अग्रता के कारण हिन्दू जिस गति से आगे बढ़ रहे हैं, उसमें एक दिन ऐसा आ सकता है जिसमें सभी उच्चपदों पर हिन्दू विराजमान हो जाएं! आइ सी एस में भारतीयों की भी भागदारी के कारण यह संभावना बढ़ रही थी। ऐसी स्थिति में वे मुसलमानों से बदला लेने का या उनके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने का प्रयत्न कर सकते हैं। ब्रिटिश सरकार जो पहले से ही मुसलमानों की राजनिष्ठा के प्रति आषंकित है, ऐसे अवसरों पर उन्हें जैसा वे करना चाहे, करने की पूरी छूट दे सकती है। प्रषासन में अधिक भागीदारी और नीतिगत मामलों में अधिक हस्तक्षेप के लिए बनी नई कांग्रेस पार्टी ने उनकी आशंकाओं को और बढ़ा दिया था। इसके चलते हिन्दुओं का अधिकार और प्रभाव बढ़ता जाएगा और उसी अनुपात में मुसलमानों की अधोगति बढ़ती जाएगी।
उनकी आशंकाओं पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि उनमें से कुछ ब्रिटिश
अधिकारियों की अपनी आशंकाओं और उनके कान भरने का परिणाम था। ब्रिटेन को
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के अनुभवों से यह आशंका बढ़ गई थी कि आगे यदि
शिक्षित मध्यवर्ग और उसके सहायक बने अमलावर्ग की सहमति और पहले की विफलताओं
से सबक लेते हुए नया विद्रोह हुआ तो उसके परिणाम अधिक अनिष्टकर हो सकते
हैं। इस बार इसकी संभावना शिक्षित और पाश्चा त्य संस्थाओं और अधिकारों के
प्रति सचेत मध्यवर्ग के नेतृत्व मे आ सकता है जिसमें मुसलमानों की कोई
हैसियत ही नहीं, इसलिए यह खतरा हिन्दुओं की ओर से हा सकता है। अतः जरूरी था
एक ऐसा तन्त्र जिसके माध्यम से उसकी अपनी सुगबुगाहटों का पता चलता रह सके
और उससे बचाव की तैयारियां दोनों रूपों में जारी रहें! पहला, उनकी ऐसी
मांगों को कुछ काट छांट के साथ स्वीकार करते हुए उनको तुष्ट रखते हुए,
दूसरा आसन्न संकट हो देखते हुए उसी अनुरूप दमन की तैयारियां करते हुए। पहले
प्रयोजन से ही भारतीय राष्टीय कांग्रेस की स्थापना तत्कालीन खुफिया विभाग
के सर्वोपरि अधिकारी ह्यूम की पहल पर हुई थीः
Hume embarked on an
endeavor to get an organization started by reaching-out to selected
alumni of the University of Calcutta, writing in his 1883 letter that,
"Every nation secures precisely as good a Government as it merits. If
you the picked men, the most highly educated of the nation, cannot,
scorning personal ease and selfish objects, make a resolute struggle to
secure greater freedom for yourselves and your country, a more impartial
administration, a larger share in the management of your own affairs,
then we, your friends, are wrong and our adversaries right, then are
Lord Ripon's noble aspirations for your good fruitless and visionary,
then, at present at any rate all hopes of progress are at an end and
India truly neither desires nor deserves any better Government than she
enjoys.
इसकी स्थापना ह्यूम के सुझाव पर लार्ड डफरिन की सहमति के बाद कुछ ऐंग्लो इंडियनों, पारसियों और भारतीय हितों के प्रति सहानुभूति दिखाने वाले अंग्रेजो को ले कर की गई थी। इसकी पहली बैठक बंबई में 28 दिसंबर 1885 को गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज में हुई थी जिसमें व्योमेष चन्द्र बनर्जी को अध्यक्ष चुना गया था। अतः कांग्रेस को पहली नजर में बंगाली हिन्दुओं का संगठन कहना काल्पनिक लगता है, और सर सैयद की आशंका अतिरंजित लगती है, परन्तु यदि हम इसकी गहरी छानबीन करें तो पता चलेगा, जिनसे ब्रिटिष शासन को अन्देषा बना हुआ था और जिसे दूर करने के लिए यह उपाय किया गया था वह बंगाली हिन्दू ही थे जिनमें एक साथ सहयोग और आत्मगौरव की चेतना का विकास हो रहा था और जो ही आगे चल कर खतरा पैदा कर सकता था।
ऐसी स्थिति में ब्रिटिश प्रशासन की जरूरत एक ओर तो उस युक्ति का सहारा लेने की थी जिसे भाप इंजिन में स्टीम रिलीज काक कहते हैं, अर्थात यदि दबाव अधिक बढ़ जाय जिसके बाद बायलर के फटने की नौबत आ जाय, उससे पहल ही अवांछित दबाव को कम करने के लिए भाप को कम कर दिया जाय। कांग्रेस की स्थापना ऐसी ही एक युक्ति थी। उसकी दूसरी आवश्यकता थी एक प्रतिरोधी शक्ति को उभारना जो इस तरह के संगठन से हितों के टकराव की स्थिति में रहे और इसके लिए कांग्रेस की स्थापना से पहले से ही सर सैयद के माध्यम से तैयारी की जा रही थी। यह प्रतिरोधी शक्ति टकराव की स्थिति में बनी रहे इसके लिए प्रयत्न यह होना था कि वह कांग्रेस के साथ न मिल पाए। इस काम के लिए सर सैयद के माध्यम से मुसलमानों को अलग थलग रखने और अपने भाग्योदय के लिए पूरी तरह ब्रिटेन की अनुकंपा पर निर्भर रहने के लिए लामबन्द करना था।
कुछ स्थितियां ऐसी होती है जिनमें दो अलग अलग हितों से जुड़े व्यक्ति एक दूसरे से मेल बैठाते हुए, मैत्री दिखाते हुए परस्पर अपने हितों के लिए उपयोग करना चाहते है और इसके लिए दोनों ओर से कुछ रियायतें दी जाती है या कुछ निजी हितों का साझा किया जाता है जिसमें दोनों को लगता है कि वे दूसरे का अपने लिए उपयोग कर रहे हैं। शत्रु देषों के जासूसों के बीच यह अक्सर देखने में आता है। इसका फैसला अन्तिम परिणाम से होता है जिसमें एक देश का जासूस दूसरे के पंजे में इस तरह आ जाता है कि वह अपने सारे रहस्य उसे उगल देता है और दूसरा उसे सुरक्षा देने के लिए अपने देश में शरण की व्यवस्था करा देता है। शीतयुद्ध के दौरान सीआइए और केजीबी के जासूसों के मामले में यह कई बार देखने में आया!
ठीक यही स्थिति सर सैयद, उनके नेतृत्व में लामबन्द मुस्लिम
समाज और ब्रिटिश हितों के बीच की खैंचतान में देखने में आती है जिसमे सर
सैयद ब्रिटिश कूटनीति के हाथों में किस सीमा तक खेल रहे थे इसका अनुमान हम
उनके मेरठ में दिए गए भाषण के कुछ अंषों से कर सकते हैं। वह बताते हैं कि
हम अंग्रेज जितने एक दूसरे के निकट हैं उतनी निकटता हमारी हिन्दुओं से नहीं
हो सकती, क्योंकि हम दोनों किताबों वाले मजहबों के लोग हैं, जिनमें अल्लाह
की कृपा कभी एक पर होगी कभी दूसरे पर। आज अगर यह ईसाइयों के पक्ष में है
तो हमे इसे खुदा की मरजी मान कर स्वीकार करना चाहिएः
I do not
think the Bengali politics useful for my brother Mussalmans. Our Hindu
brothers of these provinces are leaving us and are joining the Bengalis.
Then we ought to unite with that nation with whom we can unite. No
Mahomedan can say that the English are not "People of the Book." No
Mahomedan can deny this: that God has said that no people of other
religions can be friends of Mahomedans except the Christians. He who had
read the Koran and believes it, he can know that our nation cannot
expect friendship and affection from any other people.
इतना ही
नहीं, वह मध्यकालीन शासन की मिसाल देते हुए यह सिद्ध कर रहे थे कि अंग्रेज
जो भी कर लगाते हैं, जैसे भी खर्च करते हैं, जिन भी युद्धों की तैयारी करते
हुए भारतीय राजस्व से अपना साम्राज्य विस्तार करते हुए करते हैं वह सब
जायज है। कांग्रेस वाले इसका हिसाब कैसे मांग सकते हैं। इसकी हद तो यह कि
वह मानते थे कि वे जितनी रियायत और लिहाज से कर लगाते हैं, वह मूर्खता है,
उन्हें अधिक बेरहमी से कर लगाना चाहिएः
When after the Mutiny, the
Hon'ble Mr. Wilson was Financial Minister, he brought forward a law for
imposing a tax, and said in his speech that this tax would remain for
five years only. An honourable English friend of mine showed me the
speech and asked me if I liked it. I read it and said that I had never
seen so foolish a Financial Minister as the Hon'ble Mr. Wilson. He was
surprised. I said that it was wrong to restrict it to five years.
It
is necessary for Government to strengthen the frontier. If in England
there had been any need for strengthening a frontier, then the people
would themselves have doubled or trebled their taxes to meet the
necessity. In Burma there are expenses to be borne, although we hope
that in the future it will be a source of income. If under such
circumstances, Government increase the salt-tax by eight annas per
maund, is this thing such that we ought to make complaints? If this
increase of tax be spread over everybody, it will not amount to half or
quarter of a pice. On this to raise an uproar, to oppose Government, to
accuse it of oppression — what utter nonsense and injustice! And in
spite of this they claim the right to decide matters about the Budget.
(आगे का कल)